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महापर्व :: सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व का पर्व है छठ पूजा

अंधराठाढ़ी(रमेश लाल कर्ण) : लोक आस्था का यह त्योहार सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व का पर्व है . छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में न पुरोहितो की आवश्यकता होती है और न अधिक धनों की जरूरत पड़ती है तो आस-पड़ोस के सहयोग की. ब्रतियो के लिए कठिन तपस्या है . सबसे बड़ी बात यह है की छठ पर्व शुरू करने के वाद सालो साल तक उन्हें ही करना होता है . जब तक की अगली पीढ़ी की किसी विवाहिता महिला इसके लिए तैयार न हो जाय . छठ पूजा में प्रयुक्त होने बाले सामग्री सामाजिक महत्व को दर्शाता है . बाँस से निर्मित सूप ,टोकरी,कोनिया ,डगरी, मिटटी के बने हाथी ,छठी मैया की प्रतिमा ,ढकना,दीप,कोसिया कुरवार एवं गुड़ अरवा चावल और गेहू से बने प्रसाद और विभिन्न प्रकार के फल और हरा  सब्जी और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है। शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है और न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो आस-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है। पुरे त्योहार में अगरवत्ती मात्र कृत्रिम होता है .अन्यथा सभी प्राकृतिक सामानों का उपयोग होता है . इस पर्व के वैज्ञानिक पक्ष यह भी है की किसान उपयोगी पर्व है .छठ पर्व के वाद से ही धन कटनी शुरू हो जाती  है . इसके कटनी ओसाव रखरखाव आदि के लिए इस  पर्व के बहाने बाँस के वर्तनो इकट्ठा कर लेते है . दूसरा पक्ष यह है की इख , गुड़ ,अदरख हल्दी आदि की भी व्यवस्था भी हो जाती  है . छठ के बाद से ठंढ काप्रकोप बढने लगता है .अदरख ,ह्ल्दी गुड़ आदि गर्म एवं पीत नासक होता है

छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता 
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है; कुछ पुरुष भी इस व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को परवैतिन कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रति को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रति फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात बिताती हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं। जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है व्रति को ऐसे कपड़े पहनना अनिवार्य होता है। महिलाएँ साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।’ ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित कार्य को सफल होने के लिए व्रत रखते हैं। छठ गीत लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय अनेकों सुमधुर और भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाये जाते हैं।इस गीत में एक ऐसे तोते का जिक्र है जो केले के ऐसे ही एक गुच्छे के पास मंडरा रहा है। तोते को डराया जाता है कि अगर तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से कर दी जाएगी जो तुम्हें नहीं माफ करेंगे, पर फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप का भागी बनता है। पर उसकी भार्या सुगनी अब क्या करे बेचारी? कैसे सहे इस वियोग को? अब तो सूर्यदेव उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते, उसने आखिर पूजा की पवित्रता जो नष्ट की है.

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