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छठ महोत्सव :: सूर्य षष्ठी का महात्म्य प्रसिद्ध लेखक शंकर झा की कलम से…

भारतवर्ष में सूर्य उपासना का प्रमाण आदि काल से मिलता है, उड़ीसा स्थित कोणार्क का विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कश्मीर, मुलतान, गुजरात, उज्जैन, मथुरा के अतिरिक्त बंगाल व बिहार इत्यादि अनेक स्थानों में प्राचीन सूर्य प्रतिमाएॅं मिलती हैं ।

सूर्य सृष्टि के आदि देव हैं । जब मानव ने पहली बार ऑंख खोली होगी तो शायद उसे प्रकृति की किसी घटना ने उतना विस्मित नहीं किया होगा, जितना श्री भगवान् भास्कर की पृथ्वी पर विकिर्ण रश्मियों ने ।

सूर्य षष्ठी महोत्सव (छठ महोत्वस) कार्तिक माह में मनाया जाता है । कार्तिक माह धर्म कर्म के लिये पुण्यमास है । बारहो महिनाओं में इसे श्रेष्ठ माह कहा गया है।

इस समय सूर्य तवष्टा (विश्वकर्मन) स्वरूप में रहते हैं, अर्थात निर्माता का स्वरूप । यह स्वरूप सृष्टि के संचालन में प्रमुख कारक तत्व है । सूर्य सृष्टि के संचालक हैं । जीवों एवम् वनस्पतियों के प्राणदाता के रूप में सूर्य का महात्म्य (महत्व) सर्वविदित है । प्रकृति को सजीवता प्रदान करने का श्रेय सूर्यनारायण को है । इसी कारण शास्त्रकारों ने सूर्य को जगत की आत्मा निरूपित किया है। सूर्य लोककल्याण में सतत् संलग्न क्रियाशीलता, गतिशीलता के जीवंत प्रतिमान हैं ।

समुद्र का जल सूर्य की उष्मा प्राप्त कर वाष्प के रूप में परिवर्तित होकर बादलों के स्वरूप में वर्षा का कारण बनता है, जो जीवन-आधार है । सृष्टि का जीवन इसी चक्र पर निर्भर है।

सूर्य को ब्रम्हा का प्रत्यक्ष प्रतीक के रूप में माना गया है क्योंकि ब्रम्हा का पालनहार स्वरूप सूर्य के माध्यम से प्रकट होता है । सूर्य का ब्रम्हत्व जीवधारियों के जीवन दाता के स्वरूप में निर्विवाद रूप से स्थापित है ।

सूर्य लोकमंगल कारी भी हैं। जितने भी ग्रह या उपग्रह (मंगल, शनि, शुक्र, बृहस्पति, राहु, केतु आदि) हैं, उनका स्वयं का प्रकाश नहीं होता, सूर्य की किरणें ही इन्हें प्रकाशित करती हैं । समस्त ग्रह व उपग्रह सूर्य को संचालक के रूप में मध्य में रखकर ईर्द-गिर्द संचालित होती है ।

 सूर्योपासना से समस्त क्रूर ग्रहों के विकट प्रकोप से रक्षा होती है । शनि देव के पिता सूर्य देव समस्त अनिष्ट को नष्ट करने वाले हैं । मंगल, राहु, केतु, शनि इत्यादि विकट ग्रह भी सूर्य नारायण की कृपा से अनुकूल बन जाते हैं । यम (प्राणहर्त्ता) भी सूर्य देव के पुत्र हैं, अतः भगवान सूर्य के उपासक को यमपाश के भयानक डर से सहज ही मुक्ति मिल जाती है । अर्थात् सूर्य देव लोकमंगल के कारक हैं ।

सूर्य, मानव जाति के आदि पूर्वज हैं :-
सूर्योपासना को भारतीय संस्कृति ही नहीं, अपितु जापान इत्यादि अनेक राष्ट््रों में विशेष महत्व प्रदत्त है । जापान के राजवंश को सूर्यवंशी माना जाता है ।भगवान श्री राम सूर्य वंश में मनुष्य रूप में अवतार लिये थे । भारत वर्ष के अनेकों राजवंश अपने को सूर्यवंशी बताते हैं ।

विवस्वान सूर्य के पुत्र मनु तथा उनके पश्चात् इक्ष्वाकु से सूर्यवंश के आगे बढ़ते हुए वंश क्रम में भगवान श्री राम, महाराणा प्रताप, शिवाजी इत्यादि वीरों को जन्म देने का श्रेय प्राप्त है। इस प्रकार भगवान सूर्य मानव जाति के आदि पूर्वज के रूप में विशेष महत्व रखते हैं ।

छठ पूजा की शास्त्रीय प्रमाणिकता :-
सूर्यषष्ठी का वर्णन ’’स्कंदपुराण के प्रभास खण्ड पृष्ठ संख्या 1027’’ में हैं ।
स्कंद पुराण में एक कथा आई है, जो इस प्रकार है :-
लम्बे अंतराल से प्रभास क्षेत्र में तपस्यारत् ब्रम्हर्षि भृगु का पुत्र ऋषि च्यवन, जिनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना ली थी, को राजपुत्री सुकन्या (राजा शर्याति की पुत्री) की नजर पड़ी । सुकन्या च्यवन ऋषि के बांबी के समीप पहुंची, वहॉ मिट्टी के ढेर में दो चमकती हुई वस्तु देखकर, कौतुहल वश कॉटे से उसे फोड़ दिया । लेकिन वह चमकती हुई कोई वस्तु नहीं, च्यवन ऋषि की ऑखें थीं । ऑखों की पीड़ा से च्यवन ऋषि क्रोधित हो गए । जब राजा शर्याति को इसके बारे में पता चला तो वे सुकन्या सहित च्यवन ऋषि के नजदीक गए तथा उनसे प्रार्थना किए की मुनिवर, मेरी कन्या ने अज्ञानतावश जो अपराध किया है, उसे क्षमा करें तथा अपना कोप वापस ले लें । मैं आपकी सेवा के लिये अपनी पुत्री सुकन्या को ऋषिवर की पत्नी रूप में समर्पित करना चाहता हूं, जो आपकी सेवा करे । राजा शर्याति की प्रार्थना सुनकर ऋषि का कोप शांत हुआ । राजा अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से करके राज्य वापस लौट गए ।
इधर अंधे व बूढ़े पति की सेवा में सुकल्या लग गयी । एक दिन सुकन्या, नदी किनारे शाम के समय बहुत सारी महिलाओं एवम् पुरूषों को नदी के तट पर पश्चिमोत्तर सूर्य की उपासना करते देखी, दूसरे दिन सुबह भी उन्हीं लोगों द्वारा पूर्वोत्तर सूर्य की उपासना देखी । उस पर्व के संबंध में सुकन्या महिलाओं से जानकारी ली, जिस पर महिलाओं ने बताया कि इस पर्व को ’’सूर्य षष्ठी का छठ पर्व’’ कहते हैं, जिसमें कार्तिक मास के षष्ठी तिथि को शाम एवम् दूसरे दिन सुबह जल में प्रवेश कर सूर्य की उपासना करने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। अगले वर्ष सुकन्या भी उन्हीं महिलाओं के साथ पति (च्यवन) के स्वास्थ्य एवम् ऑख की ज्योति के लिये भक्ति भाव से यह उपासना किया, जिसके प्रभाव से, कुछ दिनों के बाद च्यवन ऋषि जवान हो गए तथा उनकी दृष्टि वापस मिल गई ।
सूर्य षष्ठी का वर्णन महाभारत (द्वितीय खण्ड) तृतीय अध्याय पृष्ठ संख्या 959 में भी है, जो इस प्रकार है :-
पाण्डव पुत्र वनवास काट रहे थे, उस समय उनकी काफी दुःखद स्थिति थी । खाद्य वस्तुओं की अनिश्चितता बनी रहती थी । एक रोज महाराज युधिष्ठिर ने धौम्य मुनी से प्रश्न किया कि मुनिवर इस दुःख से छुटकारा पाने का उपाय बतावें । तब धौम्य मुनी ने इस प्रकार कहा :- सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न, सूर्य रूप ही है । अतः भगवान सूर्य ही सभी प्राणियों के पिता हैं, इसलिये हे युधिष्ठिर, तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ । जो मनुष्य षष्ठी और सप्तमी को भववान सूर्य की उपासना (कार्तिक माह में) अहंकार रहित होकर करता है, उस मनुष्य को पुत्र, धन, रत्न, धैर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है । महाराज युधिष्ठिर ने इसी विधि से सूर्य की पूजा की, जिससे भवनान सूर्य प्रसन्न हुए, और उन्हें एक ताम्बे की बटलोई (खाना बनाने का पात्र) यह कहकर दिया कि इस पात्र में जो भोजन तैयार होगा, वह भोजन तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक गृहलक्ष्मी (द्रोपदी) अंत में भोजन नहीं कर लेगी ।

इसलिये हमारे पौराणिक परम्परा में यह नियम रहा है कि गृहलक्ष्मी सभी-परिवार वालों एवम् अतिथियों को भोजन करा कर ही अंत में स्वयं भोजन करे । इस नियम को श्रद्धापूर्वक पालन करने से उस परिवार में भोजन की कमी नहीं होती है । 

बाल्मिकी रामायण में सूर्य भगवान की स्तुति का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है :- युद्ध क्षेत्र में श्रीराम, शिव वरदानी राक्षस राज रावण से निरन्तर यु़द्ध करने से थककर चिन्ता कर रहे थे । इस समय देवताओं सहित अगस्त्य ऋषि ने आकर श्रीराम को ’’आदित्यहृदयस्त्रोत’’ का पाठ करने का परामर्श दिया । भगवान श्री राम ने श्रृद्धापूर्वक इस स्त्रोत का स्तवन किया, फलस्वरूप सूर्य की शक्ति पाकर राम ने रावण का वध किया ।
’’आदित्यहृदयस्त्रोत’’ को शीघ्र फल देने वाला महान् श्लोक (मंत्र) माना जाता है ।
भगवान सूर्य की उपासना के फलस्वरूप शाम्ब का कुष्ठ रोग निवारण हुआ था ।
भगवान सूर्य ने महर्षि याज्ञवल्क्य को उपदेश प्रदान कर प्रखर ब्रम्हज्ञानी स्वरूप प्रदान किया ।

सूर्य षष्ठी का छठ पर्व निर्विवाद रूप से बिहार से प्रारम्भ हुआ । बिहार के लोग झारखण्ड प्रदेश में भी नौकरी चाकरी व विवाह संबंध के चलते आए, वहां भी पर्व प्रारम्भ हुआ । बिहार से प्रारंभ होकर सूर्यषष्ठी लोकोत्सव के रूप में प्रसार में विवाह संबंधों का महत्वपूर्ण योगदान है । बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में सदियों से प्रचलित परम्परानुसार लड़कियों का विवाह अपने से पश्चिम प्रक्षेत्रों में करने को रही है, जिस परम्परा का अनुपालन आज भी अधिकांश लोक करते हैं । यह सर्वविदित है कि जगत जननी सीता का मायका जनकपुर (मिथिला) तथा ससुराल (अयोध्या/अवधपुरी) रही है । मिथिला से अवधपुरी पश्चिम में होने के नाते आदर्श प्रतिमान स्वरूप आज भी लड़कियों का विवाह पश्चिम दिशा में करने तथा बहुएं पूर्वी दिशा से लाने की परम्परा अनवरत् प्रचलित है । बिहार में अन्य प्रदेशों से आने वाली बहुओं के मायकों एवम् बेटियों के ससुराल में सूर्यषष्ठी का छठ पर्व के प्रसार ने लोकोत्सव का स्वरूप धारण कर लिया है ।

बिहार व उत्तरप्रदेश के निवासी कर्मठ रहे हैं । जहां भी उनका प्रवास हुआ, समाज में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया । उक्त दोनों प्रांतो की सघन जनसंख्या होने से बहुत से लोगों को रोजगार के लिए बाहर जाना विवशता रही है । भारत की स्वतंत्रता के बाद आवागमन के साधनों की सुगमता ने उद्यमियों के लिये अनेक अवसर प्रदान किए हैं । वर्तमान में भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र, विशेषकर हिन्दीभाषी राज्यों के शहरों में उत्तरप्रदेश, बिहार व झारखंड के निवासियों की उल्लेखनीय आबादी की बसाहट हुई है । इस कारण सूर्यषष्ठी के छठ पर्व ने भारतवर्ष के बड़े हिस्से में प्रमुख पर्व के रूप में अपना स्थान स्थापित कर लिया है । अन्य प्रदेश के लोगों ने भी सूर्यषष्ठी महोत्सव से अपने का सबद्ध कर लिया है । भारतीय परम्परा में आदिकाल से सूर्य की आराधना प्रचलित है, अतः देश के जन-जन का इस पर्व से जुड़ाव अत्यंत स्वभाविक है।

-: लेखक :-
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्ववविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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