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रोचक :: ‘निमि‘, ‘मिथि‘, ‘मिथिला‘ व ‘जनक‘ शब्दों की तथ्यात्मकता शंकर झा की कलम से…

डेस्क : निमि – किसी समय तत्कालीन आर्यावर्त में सूर्य नाम का एक सूर्यवंशीय क्षत्रिय का शासन था। इसी वंश में श्री रामचन्द्र जी कभी अवतार लिए थे। इसी सूर्य नामक राजा के पुत्र ‘मनु‘ हुए । मनु महा मेधावी पुरूष थे । उन्होंने ‘मनुस्मृति‘ रूपी महान ग्रंथ का निर्माण किया।
मनु के पुत्र ‘इक्ष्वाकु‘ अयोध्या के राजा हुए । इक्ष्वाकु के प्रथम पुत्र ‘विकुक्षि‘ थे तथा द्वितीय पुत्र ‘निमि‘ थे। 
निमि तथा मिथि :- ’निमि’ बड़ा ही कुशाग्र बुद्धि वाला दूरदर्शी पुरूष थे । उन्होंने मन ही मन सोचा कि जीवन क्षणभंगुर है। मृत्यु सनातन है । ’’आये हैं सो जाएंगे, राजा रंक फकीर’’। जो कीर्ति करेगा वह मरणोपरान्त भी समाज में जिंदा रहेगा । इस सिद्धान्त को मन में स्थिर कर दृढ़ संकल्प लिया कि ऐसी कीर्ति करूं कि मैं सार्वभौम बन जाऊं । 
मन में दृढ़ निश्चय कर ’निमि’ ने अपने कुलगुरू ऋषि ’वशिष्ठ’ से निवेदन किया कि – वह ईश्वर के सदृश्य सर्वत्र विराजमान रहे, ऐसा यज्ञ करा दें । वशिष्ठ ने ’निमि’ से कहा कि मैं पूर्व में ही देवराज इन्द्र का यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया हूं । इन्द्र के यज्ञ की समाप्ति के उपरांत मैं आपका यज्ञ करा दूंगा । ’निमि’ मौन हो गए । वशिष्ठ ’निमि’ के मौन को स्वीकृति मानकर इन्द्र के यज्ञानुष्ठान हेतु चल दिए। ’निमि’ के मन में आया कि – जीवन क्षणभंगुर है, क्या पता कल क्या हो जाय ? निमि के अंदर तीव्र इच्छा उसे व्याकुल कर दिया । अतएव ’निमि’ अयोध्या से निकलकर व्याकुल मन में पूर्व दिशा की ओर चल पड़े । चलते-चलते ’निमि’ मिथिला क्षेत्र आ गए।
 मिथिला क्षेत्र में गौतम ऋषि का आश्रम था । तथा उन दिनों यह क्षेत्र मिथिला, नहीं बल्कि गौतम का ’तपोवन’ कहलाता था । इस ’तपोवन’ का नाम ’मिथिला’ बाद में पड़ा जो आगे स्पष्ट होगा। ’निमि’ गौतम ऋषि के तेज व तपस्या से काफी प्रभावित व आकर्षित हुए । निमि ने गौतम ऋषि से इसी तपोवन में यज्ञ-अनुष्ठान कराने का आग्रह कर दिए । ताकि उस यज्ञ के फल से वे (निमि) सर्वत्र व्यापक हो जावें । इस उत्कृष्ट इच्छा को देखकर गौतम ऋषि निमि को यज्ञ कराने का वचन दिया ।
कुछ ही दिनों बाद गौतम ऋषि यज्ञ प्रारम्भ करने के उद्देश्य से याज्ञवल्क्य, भृगु, वामदेव, अगस्त्य, भारद्वाज आदि ऋषियों को आमंत्रित कर ’निमि’ का दीर्घकालीन यज्ञ के अनुष्ठान का संकल्प करा कर यज्ञ प्रारम्भ करवा दिए ।
यज्ञ की पूर्णाहुति होती, इससे पहले ही इन्द्र का यज्ञ समाप्त कर ऋषि वशिष्ठ अयोध्या लौटे। कुलगुरू वशिष्ठ को जब इस बात की जानकारी हुई कि ’निमि’ ने उनके लिए प्रतीक्षा नहीं किया, तथा दूसरे ऋषियों के सहयोग से यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ कर दिया है, इस अवज्ञा से क्रोधित हो, निमि के यज्ञस्थल पर क्रोधावश आ धमके । कुलगुरू पर अविश्वास के कारण ऋषि वशिष्ठ ने निमि को दण्डस्वरूप विदेह होने का श्राप दे दिया। इधर यज्ञ की समाप्ति नहीं हुई थी, और निमि प्राणहीन हो गए ।

अब उपर्युक्त घटना, निमि के यज्ञ में शामिल सभी ऋषियों के लिये एक विचित्र समस्या खड़ी कर दी । परन्तु यज्ञ के ऋत्विक ऋषि गौतम ने सभी ऋषियों से आग्रह किया कि हम लोग अपने-अपने तपबल से इस प्राणहीन ’निमि’ के शरीर को मंथन करें। मंत्रोच्चारण एवं ऋषियों के तपबल के कारण मंथन से एक सुंदर राजकुमार बालक का आविर्भाव हुआ । मंथन से उत्पन्न होने के कारण उस राजकुमार का नाम ’मिथि’ हुआ । तथा ऋषियों ने इसी राजकुमार ’मिथि’ से शेष यज्ञ का कार्य पूर्ण कराया ।
मिथिला :- चूंकि मंथन के द्वारा ’मिथि’ राजकुमार अविर्भूत हुए तथा बाद में राजा के रूप में ’मिथि’ ने जिस नगरी को बसाया, शासित किया, वही ’’मिथिला’’ कहलायी ।
 जनक :- इक्ष्वाकु वंशीय राजा ’मिथि’ इतने महान और प्रजा-वत्सल राजा हुए कि प्रजा को पुत्रवत समझकर, पालन करने लगे । पुत्रवत् पालन करने के कारण प्रजा उन्हें ’जनक’ (अर्थात पिता) कहने लगी । जब प्रजा उन्हें जनक संबोधित करने लगी, तभी से उनकी नगरी ’’जनकपुर’’ कहलाने लगा ।

अतः स्पष्ट है कि इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा जो अयोध्या में हुए उनमें से कुछ प्रमुख हैं :-
1. सूर्य
2. मनु
3. विकुक्षि (मनु के ज्येष्ठ पुत्र )
इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा जो ’मिथिला’ में हुए तथा बाद में ’जनक’ कहलाए इनमें से कुछ प्रमुख हैं :-
1. निमि
2. मिथि (जिन्होंने अपने शासित नगरी का नाम ’मिथिला’ दिया)
3. सीरध्वज – ये ’निमि’ से बाइसवें पीढ़ी के शासक थे । ’सीरध्वज’ ’जनक’ की दुहिता थीं – सीता ।

-:लेखक :-
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृशि विष्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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