मिथिला इतिहास का स्वर्णिम आकलन 1500 बी.सी. से 1947 ईस्वी. तक
आर्यन और मिथिला :-
भारत में आर्यन सभ्यता के इतिहास वैदिक, ईरानी व यूनानी ग्रथों से प्राप्त होता है, जिनके अनुसार 1500 बी.सी. से 1000 बी.सी. के मध्य अफगानिस्तान, उत्तर पष्चिमी सीमान्त प्रदेष, पंजाब और पष्चिमी उत्तर प्रदेष में आर्यों का प्रवेष हो चुका था । इस क्षेत्र को मुनस्मृति में ‘‘ब्रम्हवर्त्त प्रदेष‘‘ या सप्तसिंधु क्षेत्र कहा गया है जो सरस्वती, झेलम, चेनाब, रावी, व्यास, सतलुज, सिंधु नदियों के बीच स्थित है।
मैक्समूलर के अनुसार भारत में आर्यन मध्य एषिया या यूरेषिया अर्थात् आल्पस पर्वत के पूर्वी भाग से ईरान व आफगानिस्तान व भारत आए । आर्यन भारत में पूर्व वैदिक काल (1500 ई. पूर्व अर्थात आज से लगभग 3500 वर्श पूर्व आए) । उन्हें भारत के तत्कालीन मूल निवासियों जैसे दास व दस्यु से संघर्श करना पड़ा । आर्यन द्वारा लड़ाई के दौरान दस्यु की हत्या का विवरण ऋग्वेद में है । आर्यन दास व दस्यु पर इसलिए विजय प्राप्त कर पाये क्योंकि उनके पास बेहतर हथियार, घोड़े वाले रथ व रण कौषल थे । धीरे-धीरे इस श्रेश्ठता के आधार पर गैर आर्यन भी आर्यन रीति रिवाजों व संस्कृति को अपना लिए जिससे आर्यनजनों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई । आर्यन गोत्र के षासक ’’भरत’’ थे, जिन्हें वषिश्ट पुरोहित मदद करते थे । भारत देष का नाम राजा भरत के उपर रखा गया । बाद में भरत ने एक अन्य आर्यन षासक पुरू से रिष्ता बनाया जिससे ’’कुरू’’ नाम का नया गोत्र बना ।
भारत के इस वैदिक युग में कुछ आर्यन गंगा के उत्तरी क्षेत्र में अपना जनपद स्थापित किया जिसे ’’पांचाल’’ कहा गया । वैदिक युगों में कुरू व पांचालों ने गंगा के उपरी पठारों की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । धीरे-धीरे आर्यन श्रेश्ठ रीति रिवाजो व संस्कृति को न केवल मध्य पूर्व से आए आर्यजनों बल्कि भारत के तत्कालीन मूलवसिंदों यथा दास व दस्यु ने आत्मसात कर लिया । आर्य षब्द का अर्थ होता है – प्रगतिषील व श्रेश्ठ । धीरे-धीरे आर्यन का अर्थ समस्त हिन्दू समाज से हो गया, जो भारत के सनातन धर्म को मानते थे । भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है । ऋग्वेद के अध्ययन से स्पश्ट है कि आर्यन प्रकृति प्रेमी व प्रकृति पूजक रहे । उनके सोच में प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना रही । इसमें आकाष, पृथ्वी व जल के पूजन के साथ-साथ आकाष व पृथ्वी के बीच अनेक देवताओं की सृश्टि हुई । देव मण्डल के साथ ’’आर्य कर्मकाण्ड’’ का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ (अग्निहोत्र), श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार (अतिथि देवो भवः) आदि मुख्यतः सम्मिलित थे । आर्य आध्यात्मिक दर्षन (फिलोसॉफी) जिसमें ब्रम्ह, आत्मा, विष्व, मोक्ष आदि षामिल हैं, को विषेश महत्व दिए, साथ ही षुद्ध नैतिक आधार पर आधारित वैदिक परम्परा को प्रोत्साहित व परिपोशित किए ।
आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज को वृत्ति और श्रम के आधार पर चार वर्णों क्रमषः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैष्य व षूद्र में विभक्त किया । प्रारम्भिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य (वांड्मय), और कला का ऊंचा स्थान रहा । आर्यन सभ्यता में संस्कृत भाशा, ज्ञान के सषक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई । आर्यों हेतु प्राचीनतम साहित्य ’’वेदभाशा’’ चार वेद, काव्य और चिंतन (दर्षन) महत्वपूर्ण हैं।
ब्रम्हवर्त्त प्रदेष में आर्य के आगमन के दो सौ वर्श के अंदर आर्य बिहार के विदेह (मिथिला) वैषाली और चम्पा में बस गए । ‘‘षतपथ ब्राम्हण‘‘ पुस्तक के अनुसार राजा विदेह माधव तथा उनके पुरोहित गौतम रहूगण। (जिन्हें बाद में गौतम ऋशि कहा गया) ने पूर्वोत्तर दिषा की ओर बढते हुए पहली बार गंडक नदी जिसे सदानीरा और षालीग्रामी भी कहा गया है, के तटीय क्षेत्र की यात्रा करने पहुंचे । मानव समुदाय से रहित इस विरान जंगल क्षेत्र में आने वाले वे पहले आर्य जन थे । पौराणिक कथाओं के अनुसार सर्वप्रथम विदेह माधव ने ही इस प्रदेष में अपने पुरोहित के साथ मिलकर अग्नि प्रज्वलित की थी । कालान्तर में ब्राम्हण ऋशियों के द्वारा बड़े पैमाने पर यज्ञ-कुण्डों के प्रज्वलन के कारण धीरे-धीरे यहां की कीचड़मयी दल-दली भूमि मानव समुदाय के निवास योग्य बनी और षनैः षनैः कृशि कार्य का विकास हुआ । आर्यों ने अपने प्रयास से ही वनाच्छादित प्रदेष को सर्वोत्कृश्ट प्रांत बनाया ।
विदेह माधव के साथ पहुंचे उनके पुरोहित गौतम रहूगण ने सर्वप्रथम एक आश्रम की स्थापना की । कालान्तर में इसी आश्रम के आसपास एक नगर की बसाहट हुई । इस आश्रम को तपोवन या गौतम ऋशि का आश्रम से भी जाना गया ।
कुछ समय बाद अयोध्या के सूर्य वंष के इक्ष्वाकु राजा का छोटा पुत्र निमि ने सदानीरा (गंडक) नदी को पार कर नदी के पूर्वी भाग में अपने नाम पर ‘‘मिथिला‘‘ नाम की नगरी की स्थापना की तथा मिथिला के नरेषों का नामकरण ‘‘विदेह‘‘ की जगह ‘‘जनक‘‘ हो गया, उनके प्रजावत्सल स्वभाव के कारण ।
जनक राजवंष (इक्ष्वाकुवंषीय क्षत्रिय) और मिथिला :-
अयोध्या में सूर्यवंषीय राजाओं के षासन थे, जिसमें श्री राम चन्द्र अवतार लिये थे । उपलब्ध जानकारी के अनुरूप अयोध्या में सूर्यवंषीय व इक्ष्वाकुवंषीय क्षत्रिय राजाओं की सूची इस प्रकार है :- 1. राजा सूर्य 2. राजा मनु 3. राजा इक्ष्वाकु 4. राजा इक्ष्वाकु के बड़े पुत्र विकुक्षि एवं छोटा पुत्र निमि/मिथि । अयोध्या से राजा इक्ष्वाकु के छोटे पुत्र निमि/मिथि मिथिला क्षेत्र पंहुचे थे । इस प्रकार इक्ष्वाकुवंषीय क्षत्रिय नरेषों की मिथिला में क्रम इस प्रकार है :-
1 राजा निमि/मिथि 31 अरिष्टनेमि जनक
2 राजा जनक 32 श्रुतायु जनक
3 उदावसु जनक 33 श्रुतायु जनक
4 नन्दिवर्धन जनक 34 सुपाष्वर्व जनक
5 सुकेतु जनक 35 स´्जय जनक
6 देवरात जनक 36 क्षेमारि जनक
7 वृहद्रथ जनक 37 अनेना जनक
8 महावीर्य जनक 38 मीनरथ जनक
9 सुधृति जनक 39 सत्यरथ जनक
10 धृश्टकेतु जनक 40 सत्यरथी जनक
11 हैय्यष्व जनक 41 उपगु जनक
12 मरू जनक 42 क्षुत जनक
13 प्रसिद्धक जनक 43 षाष्वत जनक
14 कृतिरथ जनक 44 सुधन्वा जनक
15 देवीमढ़ जनक 45 भुभाश जनक
16 विवुध जनक 46 सुश्रुत जनक
17 महाधृत जनक 47 जय जनक
18 कृतिरथ जनक 48 विजय जनक
19 कृतिरोमा जनक 49 ऋतु जनक
20 स्वर्णरोमा जनक 50 सुनय जनक
21 हृस्वरोमा जनक 51 वीतहव्य जनक
22 सीरध्वज जनक 52 स´्जय जनक
23 भानुमान जनक 53 क्षेमाश्व जनक
24 षतध्रुस्त्र जनक 54 धृति जनक
25 षुचि जनक 55 बहुलाष्व जनक
26 उर्जवाहु जनक 56 कृति जनक
27 सत्यघ्वज जनक 57 कराल जनक
28 कुणि जनक
29 अज्जन जनक
30 ऋतुजित जनक श्रोत ः- वृहद विश्णुपुराणे उल्लिखित ।
आज से लगभग 2700 वर्श पूर्व (ईसामसीह से 725 वर्श पूर्व) तक जनकवंष था (अष्वघोश लिखित ‘‘ललित विस्तर’’) नामक पुस्तक में इसका विवरण है । अष्वघोश रचित ‘‘बुद्ध चरित‘‘ में उल्लेख है कि जनक वंष का अंतिम षासक कराल जनक एक ब्राम्हण कन्या का अपहरण किया जिससे जनकवंषीय विदेह षासन का पतन हुआ । 725 ई. पूर्व विदेह, बृज्जि/बज्जी गणतंत्र में मिला लिया गया जो लिच्छवी षासक (वैषाली) के अधीन था ।
नोट :- ईसा से 600-500 वर्श पूर्व (बी.सी.) जैन धर्म प्रवर्तक महावीर (ज्ञातृक क्षत्रिय, 540 बीसी से 468 बीसी), और बौद्ध धर्म प्रवर्तक गौतम बुद्ध (षाक्य क्षत्रिय, 563 बीसी से 483 बीसी), वैषाली गणतंत्र से संबद्ध रहे ।
मगध साम्राज्य व मिथिला :-
अजातषत्रु मगध साम्राज्य का प्रमुख षासक था । अजातषत्रु वैषाली (बृज्जि/बज्जी) गणतंत्र को मगध षासन के अंतर्गत कर लिया । मगध षासक पाटलिपुत्र (पटना) में अपना राजधानी स्थापित किया, अर्थात वैषाली गणतंत्र जिसमें मिथिला राज्य भी था वह मगध षासन के अधीन हो गया । मगध षासक मिथिला जनपद का नाम इस समय विदेह से बदलकर तीरभुक्ति अर्थात नदी के किनारे का प्रदेष कर दिया । मगध षासन काल में बौद्ध धर्म मुख्य धर्म हो गया तथा मगध षासकों द्वारा बौद्ध धर्म का काफी प्रचार प्रसार किया गया । तीरभुक्ति (मिथिला) क्षेत्र में भी बौद्ध धर्म का काफी प्रचार प्रसार हुआ परन्तु मैथिली ब्राम्हण व कुछ सनातन धर्मावलंबी इस प्रचार प्रसार का विरोध किया । इससे वैदिक सनातन धर्म की रक्षा हुई। मगध काल में मगध व तीरभुक्ति जनपदों से बौद्ध भिक्षुक तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया करते थे ।
नंद वंष व मिथिला :-
इस वंष का प्रथम षासक महापद्यमनंद से लेकर अंतिम षासक धनानंद सभी पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाये रखा तथा तीरभुक्ति प्रदेष भी इसका हिस्सा रहा ।
मौर्य षासन व मिथिला :-
मिथिला राज्य मौर्य षासन के अधीन हो गया । वर्श 250 ईस्वी पूर्व (बीसी) के आसपास सम्राट अषोक द्वारा वैषाली क्षेत्र में बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार प्रसार किया गया । परन्तु मिथिला क्षेत्र में बौद्ध धर्म का विरोध वहां के ब्राम्हण व उच्च जाति के लोगों के द्वारा किया गया। इससे वैदिक सनातन धर्म की रक्षा हुई । मौर्य साम्राज्य का पतन का एक कारण यह विरोध भी था ।
षुंग वंष (भारद्धाज गोत्रिय ब्राम्हण) और मिथिला :-
यह वंष 184 ई.पूर्व (बी.सी.) से 75 ई.पूर्व (बी.सी.) तक राज्य किया । मौर्य वंष के अंतिम षासक बृहद्रथ की हत्या करके पुश्यमित्र षुंग ने षुंग वंष की स्थापना की तथा मिथिला को अपने षासन अंतर्गत रखा । पुश्यमित्र ने पुरोहित परम्परा को पुनः स्थापित किया और अष्वमेघ यज्ञ कराये ।
कुषाण वंष और मिथिला :-
यह वंष 75 ई.पूर्व (बी.सी.) से लगभग 200 ई. (ए.डी.) तक राज्य किया । कुशाण वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक कनिश्क था (127 ई.से 150 ई.), तिरहुत जनपद कुशाण वंष के अधीन था ।
गुप्त वंष और मिथिला :-
यह वंष (300 ई.से 551 ई.) तक राज्य किया । गुप्त वंष के षासन काल में मिथिला जनपद इसका भाग था तथा इस समय मिथिला जनपद तीरभुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । गुप्त वंष के षासक कुमार गुप्त के द्वारा पॉचवी सदी में नालन्दा वि.वि. की स्थापना की जो बिहारसरीफ में था तथा तेरहवीं षताब्दी तक रहा । यह बौद्ध भिक्षुओं की षिक्षा हेतु समर्पित था।
वर्धन काल और मिथिला :-
यह वंष (552 ई.से 750 ई.) तक राज्य किया । वर्धनकाल में मिथिला जनपद इस षासन का हिस्सा था । हर्शवर्धन काल में मिथिला (तीरभुक्ति) अधिक ख्याति प्राप्त किया तथा इसका साम्राज्य मिथिला नेपाल होते हुए तिब्बत और चीन तक था ।
वर्धन षासन काल में तिब्बत षासक द्वारा मिथिला जनपद पर आक्रमण कर कुछ समय के लिये मिथिला पर तिब्बत षासन स्थापित हुआ परन्तु यह कम समय के लिये रहा ।
पाल वंष, गुर्जर प्रतिहार वंष, कल्चुरी वंष, चंदेल वंष और मिथिला :-
इन सभी वंषों का (750 ई.से 1097 ई.) तक राज्य रहा । मिथिला इन वंषों के अधीन रहा । पाल वंष के षासक 750 ई.से 1097 ई. के मध्य कई बार गुर्जर प्रतिहार वंष, कल्चुरी वंष व चंदेल वंष से लड़ाई कर मिथिला पर षासन स्थापित करते रहे ।
पालवंषः- कालः- अश्टम नवम् षताब्दी (701-800 ए.डी.)
1 गोपाल – 750 ई. 2 धर्मपाल – 750 ई.
3 देवपाल – 790 ई. 4 विग्रहपाल
5 नारायणपाल/राज्यपाल 6 महेन्द्रपाल – नवम् षताब्दी
7 म्हिपाल – नवम् षताब्दी 8 नमपाल – नवम् षताब्दी
मदनपाल – नवम् षताब्दी (पहले वैदिक मतावलंबी थे बाद में बौद्ध मतावलंबी हो गये)
गोपाल, पाल वंष के संस्थापक थे । वे आस्तिक थे तथा मॉं चण्डी के उपासक थे । पाल वंष के प्रारंभिक राजधानी बंगाल में थी । मिथिलान्तर्गत मिथिला क्षेत्र में षासन करने के लिए उन्होंने 750 ई. में अपनी उप-राजधानी मुंगेर में स्थापित की थी । इस वंष में विषिश्ट षासक निम्नलिखित हैं- 1. गोपाल 2. धर्मपाल 3. दवपाल 4. नारायणपाल 5. महीपाल 6. मदनपाल । इस वंष में कई राजा बौद्ध धर्म के अनुयायी थे । गोपाल ने बिहारषरीफ के पास ओदंतापुरी में एक मठ तथा विष्वविद्यालय की स्थापना की थी। धर्मपाल ने आठवीं षताब्दी में भागलपुर जिला में विक्रमषिला विष्वविद्यालय की स्थापना की स्थापना की ।
पाल वंष के बौद्ध षासकों के समय में बुद्ध के कई रूपों की मूर्तियां बनीं । सम्पूर्ण मिथिला पर पाल वंष का षासन रहने के कारण पाल वंष के अंतिम षासक मदनपाल अपनी राजधानी मुंगेर से हटाकर अंधराठाढ़ी से 10 कि.मी. ईषानकोण में अवस्थित दो ग्रामों क्रमषः मदना तथा मदनपट्टी के मध्य कई टीलों पर निर्मित किए । मदनपाल द्वारा स्थापित मदनेष्वरनाथ, महादेव भी वहीं स्थापित हैं।
सेन वंष और मिथिला :-
काल :- दसवीं-ग्यारहवीं षताब्दी (901 – 1097 ए.डी.)
1 सामन्त सेन (आदि षूर) – नवम् षताब्दी के अंत में
2 हेमन्त सेन – दषम् षताब्दी
3 विजय सेन – दषम् षताब्दी
4 वल्लाल सेन – एग्यारहम् षताब्दी
5 लक्ष्मण सेन – एग्यारहम् षताब्दी
सेन वंष के संस्थापक राजा सामंत सेन थे । वे षैव धर्मावलम्बी (षिव के भक्त) थे । सामंत सेन का प्रसिद्ध नाम षूरसेन था । सेन वंष के कुछ प्रसिद्ध षासकों में 1. सामंत सेन (षूरसेन) 2. हेमंत सेन 3. बल्लाल सेन व 4. लक्ष्मण सेन थे । सेनवंषीय राजाओं की मुख्य राजधानी बंगाल में थी, परन्तु अंग, बंग कलिंग, उत्कल तथा मिथिला पर इनका षासन था । अंधराठाढ़ी प्रखण्ड से 25-30 कि.मी. उत्तर दिषा में बलिराजगढ़ का किला अवस्थित हैं, जो सेन वंषीय षासक द्वारा बनाया गया था । कर्णाट वंषीय राजा नान्यदेव से सेन वंष के अंतिम राजा की हार होने पष्चात सेन वंष का पतन हो गया । अंधराठाढ़ी के कमलादित्य स्थान में कर्णाट वंषीय नरेष नान्यदेव के मंत्री श्री श्रीधर दास के द्वारा स्थापित मंदिर सेन वंष की पराजय तथा कर्णाटवंषीय राजा की जीत की खुषी में की गई थी । इस मंदिर में प्राप्त षिलालेख में नान्यदेव को ’विजेता’ कहकर संबोधित किया गया है ।
कर्णाट वंष और मिथिला :-
काल :- ग्यारहवीं षताब्दी से चौदहवीं षताब्दी
नान्य देव – (1097/1147 ईस्वी)
गंगदेव – (1147 – 1188 ईस्वी)
नरसिंह देव – (1188 – 1227 ईस्वी)
रामसिंह देव – (1227 – 1285 ईस्वी)
षक्र/षक्ति सिंह देव – (1276 – 1296 ईस्वी)
हरिसिंह देव – (1303 – 1324 ईस्वी)
कर्णाट वंष के षासक क्षत्रिय (हिन्दू) थे, जो पूर्व में दक्षिण भारत से आए थे और बाद में मिथिला क्षेत्र में बस गए थे । कर्णाट वंष के प्रमुख षासक जो मिथिला में राज किए वे थे – नान्यदेव (कर्णाट वंष के संस्थापक) गंगदेव, नरसिंह देव, रामसिंह देव, षक्ति सिंह, हरिसिंह देव । इस षासन काल में मिथिला उन्नतिषील सांस्कृतिक केन्द्र बन गया। यह षासन काल लगभग 228 वर्श रहा । श्रीधर दास का ’अंधराठाढ़ी अभिलेख’ से स्पश्ट होता है कि नान्यदेव 1097 ईसवीं में कर्णाट वंष की स्थापना किये तथा राजगद्दी पर बैठे ।
नान्यदेव (1097-1147)ः-
ऽ नान्यदेव के षासन काल में मिथिला की राजधानी सिमरांव/सिमरांवगढ़ थी, जो आजकल नेपाल में है ।
ऽ वे 50 वर्शों तक (1097-1147 तक) मिथिला (तिरहुत $ नेपाल) पर षासन किए । अतः मिथिला और नेपाल का पारस्परिक संबंध बहुत पुराना है । मिथिला से नेपाल जाने का रास्ता भी सुगम था ।
नान्यदेव का महत्व :-
ऽ मिथिला (नेपाल सहित) में कर्णाट वंषीय षासन की संस्थापना नान्यदेव 1097 में किए तथा 50 वर्शों तक षानदार, प्रगतिपूर्ण, रचनात्मक षासन किए ।
ऽ जब पूरे भारत में राजनीतिक अस्थिरता थी, तथा विदेषी आक्रमणकारियों की लूट-पाट अन्य प्रान्तों में मची थी, उन दषकों में नान्यदेव मिथिला को स्थायित्व दिये और अपने षासन तंत्र को इतना मजबूत किये कि कर्णाट वंषीय षासन लगभग 228 वर्शों तक चलता रहा ।
ऽ वे प्रबल योद्धा तथा कुषल कूटनीतिज्ञ थे साथ ही संस्कृत भाशा के महान प्रेमी थे ।
ऽ वे खुद विद्वान थे और विद्वानों का आदर करते थे, जिससे मिथिला में विद्वन्मण्डली परम्परा मजबूत हुआ । संस्कृत षिक्षा पल्लवित व पुश्पित हुआ ।
ऽ इनकी सषक्त और सुसंस्कृत षासन के कारण ही, मिथिला भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया । मिथिला की सुसंस्कृत परम्परा बिहार के लिये भी गौरवषाली साबित हुआ ।
ऽ इनके षासन क्षेत्र में मिथिला तथा नेपाल दोनों थे ।
नान्यदेव के दो पुत्र थे :-
ऽ मल्लदेव- नेपाल पर षासन किए ।
ऽ गंगदेव – मिथिला पर षासन किए ।
गंगदेव (1147- 1188)ः-
ऽ मिथिला पर राज्य करते हुए भीठ भगवानपुर व दरभंगा में उपराजधानी बनाये परन्तु सिमरांवगढ़ मुख्य राजधानी बनी रही । वे मिथिला पर 1147 से 1188 तक (41 वर्श) षासन किए ।
ऽ श्रीधर दास गंगदेव के मंत्री थे जिनके अनुसार नान्यदेव से अधिक गंगदेव के समय में मिथिला में षांति व्याप्त था ।
ऽ वे राज्य को परगना में विभाजित किए थे, तथा प्रत्येक परगना में ’चौधरी’ नाम का राजस्व अधिकारी नियुक्त किए ।
ऽ अंधराठाढ़ी में दुर्ग (किला) का निर्माण कमलादित्य स्थान में कराए । ये बहुत तालाब खोदवाए तथा मंदिर बनवाए ।
ऽ गंगदेव कुषल षासक थे, इन्होंने कर्णाट वंषीय राज्य को और सुढृढ़ किया ।
ऽ गंगदेव व मल्लदेव के बीच झगड़ा के कारण ही मिथिला का विभाजन हो गया जिससे नेपाल अलग होकर स्वतंत्र राज्य बन गया ।
नरसिंह देव (1188-1227)ः-
ऽ 39 वर्श (1188-1227) तक मिथिला पर राज्य किए ।
ऽ मिथिला में सांस्कृतिक कार्य को बढ़ावा मिला, जो सांस्कृतिक कार्य नान्यदेव के समय से प्रारम्भ हुआ था।
ऽ नरसिंह देव के षासन काल में मिथिला पर मुस्लिमों का आक्रमण हुआ, जिससे मिथिला राज्य के राजनीतिक प्रतिश्ठा पर आघात पहुंचा । परन्तु नरसिंह देव मुस्लिम षासकों से मित्रता कर मिथिला को मुस्लिम आक्रमण से सुरक्षित रखे । वे मुस्लिम षासकों को ’कर’ देना स्वीकार कर लिए । इस प्रकार नरसिंह देव मिथिला को मुस्लिम आक्रमणों से आक्रान्त होने से बचा लिए ।
ऽ इनके समय में सांस्कृतिक विकास के लिये दो मंत्री क्रमषः रामादित्य ठाकुर और कर्मादित्य ठाकुर (विद्यापति के पूर्वज) का महत्वपूर्ण योगदान रहा ।
ऽ यह षासन काल मिथिला भाशा (मैथिली) तथा साहित्यिक विकास हेतु प्रसिद्ध हुआ ।
ऽ यह षासन काल संस्कृत रचनाकारों को बहुत प्रश्रय दिया ।
ऽ नेपाल मिथिला राज्य से स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा ।
रामसिंह देव (1227-1285) :-
कर्णाट वंष के एक योग्य षासक सिद्ध हुए ।
सांस्कृतिक उपलब्धियों से भरा रहा षासन काल ।
वे धार्मिक थे अतः धार्मिक साहित्य के संरक्षक थे ।
इस षासनकाल में साहित्य, दर्षन, कला, षिक्षा व तंत्र विद्या का बहुत विकास हुआ । संस्कृत साहित्य व दर्षन षास्त्र में काफी विकास हुआ । संपूर्ण मिथिला में तंत्र-मंत्र का प्रभाव था, लोगों की रूचि इस विद्या के प्रति था ।
राजधानी सिमरॉवगढ़ थी ।
गांव-गांव में तालाब खुदवाए व मंदिरों का निर्माण करवाए ।
विद्वान लोग ही इनके मंत्री हुआ करते थे । वेद पर इन विद्वानों से टीका लिखवाकर संकलन करवाए । विद्वान इनके दरबार में विभूशित होते थे । कर्णाट वंष के पहले षासक थे जो वेद पर टीका लिखवाये और उसे संकलित करवाये ।
रामसिंह देव अपने स्थानीय अधिकारी को नगद वेतन के बदले भूभाग देते थे जो उनका जागीर कहलाता था ।
प्रषासन में ’पटवारी’ नाम के पद का सृजन किए ।
बिहार पर मुस्लिम षासकों का आधिपत्य तेंरहवी षताब्दी में हो गया था, परन्तु स्वतंत्र सांस्कृतिक परिवेष का मिथिला, अपने मिथिला नरेष के बृद्धि व चातुर्य के बल पर स्वतंत्रता सुरक्षित रख सका ।
षक्तिसिंह या षक्र सिंह (1276-1296) :-
मिथिला का अनुश्रुति के अनुसार षक्तिसिंह देव को षक्र सिंह माना गया है ।
इनके षासन काल में राजमहल में पारिवारिक कलह चलता रहा, जिससे षक्तिसिंह को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा।
षक्तिसिंह अपना नाबालिग पुत्र हरिसिंह देव को गद्दी सौंपकर, स्वयं निर्वासित जीवन व्यतीत किए । वे सप्तरी जिला में अपने कुलदेवी की प्रतिमा की स्थापना कर उसका नाम षक्रेष्वरी भगवती रखे । कालान्तर में इस भगवती का नाम सखड़ेष्वरी भगवती से जाना जाने लगा ।
राजमहल में उक्त सत्ता परिवर्तन का मुख्य सूत्रधार चण्डेष्वर ठाकुर थे, वे हरिसिंह के संरक्षक के रूप में कार्य किए और जब हरिसिंह वयस्क हो गए, तब षासन का डोर सौंप दिये ।
इनके षासन काल में बंगाल मुस्लिम गवर्नर तथा दिल्ली मुस्लिम सुल्तान का बराबर आक्रमण होता रहा, जिससे मिथिला क्षेत्र को काफी क्षति उठाना पड़ा, परन्तु षक्ति सिंह अपना षासन कायम रखने में सफल रहे ।
षक्तिसिंह को अपने षासन के अंतिम वर्शों में व्यक्तिगत दुःखों व दुर्दिनों का सामना करा पड़ा ।
हरिसिंह देव (1303-1324) :-
ये नान्यदेव के बाद सबसे महान षासक सिद्ध हुए । वे कर्णाट वंष के अंतिम महान षासक हुए, जो मिथिला को सामाजिक व बौद्धिक रूप से सषक्त बनाए । परन्तु हरिसिंह देव बाहरी मुस्लिम आक्रमणकारी से मिथिला की रक्षा करने में दुर्बल साबित हुए ।
इनके षासन काल में ’’मिथिला का इतिहास’’ अपनी विषिश्ट पहचान बनाई, तथा उत्तर भारत में मिथिला बहुचर्चित हो गया । ये मिथिला को महान तथा सम्पन्न बनाए ।
हरिसिंह देव के दरबार में प्रबुद्ध सदस्यों का परिशद था, जो हरिसिंह को षासन करने में मदद करता था ।
प्रबुद्ध सदस्यों का परिशद बहुत षक्तिषाली था, इसमें गृह विभाग का अध्यक्ष थे ’गणेष्वर’ वे सर्वाधिक योग्य थे । ’’गणेष्वर सुगति सोपान’’ नाम के पुस्तक की रचना की, जो मिथिला का ’’संवैधानिक इतिहास’’ पर प्रकाष डालता है ।
गणेष्वर के अतिरिक्त अन्य षक्तिषाली मंत्री थे – वीरेष्वर, चण्डेष्वर, देवादित्य आदि ।
हरिसिंह देव का षासन उत्कर्श-अपकर्श काल से गुजरा ।
इनके षासन काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों का आक्रमण श्रृंखला बना रहा, वे मिथिला पर आक्रमण करते रहे ।
इस प्रकार उत्तर पूर्व भारत का स्वतंत्र राज्य मिथिला मुसलमान षासन के अधीन हो गया तथा उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो गई ।
हरिसिंह के षासन काल में भी राजधानी सिमरांवगढ़ ही थी ।
हरिसिंह के नेपाल चले जाने के कारण तथा तुगलक वंष के षासक गयासुद्दीन की जीत के कारण मिथिला में हजारों-हजार की संख्या में मुस्लिम का प्रवेष हुआ ।
मिथिला में कर्णाट वंष का पतन का कारण मुस्लिम आक्रमण रहा ।
हरिसिंह देव मिथिला में सामाजिक और धार्मिक क्रांति लाए । मिथिलावासी धार्मिक कट्रता और रूढि़वादिता के षिकार थे । हरिसिंह इसमें आधुनिक विचार को समाहित किए ।
हरिसिंह ’पंजी प्रथा’ जो वर्श 1294 ईस्वी में मिथिला में प्रारम्भ हुआ था उसे 1313 ईस्वी में संषोधन कराए । इस पंजी प्रथा के अनुसार मिथिला का ब्राम्हण तथा कायस्थ का वंषवृक्ष बनाया गया । इसी पंजी के अनुसार ब्राम्हण और कायस्थ परिवार में वर-वधू का पंजीकरण कराने उपरांत ही षादी कराया जाने लगा, जिसे सिद्धान्त कहा गया । ब्राम्हण को चार वर्ग में विभाजित किया गया – श्रोत्रीय, योग, पंजीबद्ध, जयवार। इसी पंजी प्रथा के कारण ’पंजीकार’ तथा ’घटक’ का जन्म हुआ । पंजीकार वर-वधू को पंजीकृत कर वैवाहिक अधिकार प्रमाण-पत्र देना प्रारम्भ किए । पंजी प्रथा मिथिला में ब्राम्हण व कायस्थ के अतिरिक्त क्षत्रियों का भी बना था, परन्तु कालान्तर में क्षत्रिय का पंजी प्रथा स्वतः समाप्त हो गया । वैवाहिक पंजी प्रथा के निर्माण के समय हरिसिंह ’रक्त’ पर विषेश ध्यान दिए । इस बात पर ध्यान दिया जाने लगा कि वर और वधू परिवार में विगत छह पीढ़ी से कोई रक्त संबंधी न हों । इससे कुलीनवाद की प्रथा प्रारम्भ हुई ।
हरिसिंह के समय मिथिला साहित्यिक क्षेत्र में काफी उन्नति किया । जैसे- हरिसिंह के मंत्री चण्डेष्वर के द्वारा ’रत्नाकर’, नैयायिकों द्वारा न्याय षास्त्रों की रचना जैसे – ’कृत्यरत्नाकर’, हिन्दू रूढि़वादी नियमों में सुधार से संबंधी पुस्तक ।
हरिसिंह मिथिला में अनेक तालाब कूप, तथा मंदिरों का निर्माण कराए । इससे मिथिला में सांस्कृतिक वैभव आया । ’विद्यापति का पुरूश परीक्षा’ हरिसिंह देव का संगीत व वाद्य यंत्र का प्रेमी होने का प्रमाण है । इनके समय मिथिला में नाट्य कला भी विकसित हुई।
हरिसिंह के षासन काल में मिथिला का सांस्कृतिक गौरव से सारा देष परिचित हुआ ।
गयासुद्दीन तुगलक जो दिल्ली का षासक था, के कहने पर बंगाल का तुगलक वंष के नवाब फिरोजषाह तुगलक के बार बार आक्रमण से त्रस्त होकर हरिसिंह देव अपनी राजधानी ग्राम पस्टन को त्याग कर नेपाल की ओर पलायन कर गये ।
ओइनवार वंष और मिथिला :-
मूल :- खौआर जगतपुर (सुगौना षासन – ब्राम्हण वंषीय षासन लगभग 200 वर्श 1326 से 1526 ईस्वी तक)। प्रारंभिक राजधानी ओईनी गांव, इसलिये ओइनवार वंष कहलाया । अब इसे बैनी गांव कहा जाता है जो मुजफ्फरपुर जिला, बिहार में है । पं. कामेष्वर ठाकुर इस गांव के रहने वाले थे ।
1 पं. कामेष्वर ठाकुर – 1326-1354 ई. ये हरिसिंह देव (कर्णाटवंषीय अंतिम षासक) के दरबार में मंत्री थे तथा तंत्र विद्या के सिद्ध पुरूश थे । दिल्ली का तुगलक षासक गयासुद्दीन तुगलक तिरहुत राज्य का पट्टा पं. कामेष्वर ठाकुर को सौंपकर दिल्ली चला गया । इस प्रकार कामेष्वर ठाकुर तुगलक षासनकाल में मिथिला का करद राजा बने । कुछ ही समय पष्चात पं. कामेष्वर ठाकुर अपना त्यागपत्र दिल्ली के तुगलक बादषाह को भेज दिया । दिल्ली के तुगलक षासक गयासुद्दीन तुगलक ने अपने विष्वास पात्र बंगाल के सुबेदार फिरोजषाह तुगलक के द्वारा तिरहुत का करद राजा पं. कामेष्वर ठाकुर के पुत्र भोगीष्वर ठाकुर को बनाया ।
तांत्रिक सिद्ध पुरूश, फिरोजषाह तुगलक ने हरिसिंह के मंत्री पं.कामेष्वर ठाकुर को पकड़कर लाने के लिये सैनिक को आदेष दिया । पं. ठाकुर ने अपने तंत्र बल से उसे अंधा कर खड़ा कर दिया इसलिये ’’अंधःस्थली’’ नाम से उस समय जाना जाने लगा, धीरे-धीरे अपभ्रंष से अंधराठाढ़ी हो गया ।
2 भोगीष्वर ठाकुर -1354-1360 ई.
3 गणेष्वर सिंह ठाकुर – 1360-1371 ई. अपने षासनकाल में बंगाल के सुबेदार को गणेष्वर सिंह ठाकुर कर देना बंद कर दिये । इससे क्रुद्ध होकर बंगाल सुबेदार मो.असलान द्वारा हत्या कर राज्य अपने कब्जे में वर्श 1371 ई. में ले लिया । गणेष्वर सिंह ठाकुर के दो पुत्र थे । जिसमें कीर्ति सिंह बहुत बहादुर व साहसी थे।
4 कीर्ति सिंह – 1402-1410 ई. गणेष्वर सिंह ठाकुर के पुत्र कीर्ति सिंह चतुराई पूर्वक दिल्ली के तुगलक वंषीय बाहषाह से समझौता कर सहायता प्राप्त कर बंगाल सुबेदार मो. असलान की हत्या कर अपने पिता की हत्या का बदला लिया गया । फिर वह मिथिला का राज्य संभाला । विद्यापति ने कीर्ति सिंह की इसी वीरता व चतुराई का वर्णन अपनी रचना कीर्तिलता (अवहट्ठ भाशा में) में किया है । दुर्भाग्य से कीर्ति सिंह की मृत्यु अल्प आयु में हुई ।
5 भव सिंह – 1410 ई. – अल्प षासन काल भोगीष्वर ठाकुर के छोटे भाई भवेष्वर ठाकुर उर्फ भवसिंह तिरहुत की राज्य सत्ता संभाले। भव सिंह अपनी राजधानी भव ग्राम अथवा भभाम में बनाई। भव सिंह ने चंडेष्वर ठाकुर (विद्यापति के पितामह के ज्येश्ठ भ्राता) को अपना मंत्री बनाया। ये मूर्धन्य विद्वान थे तथा इनके द्वारा चंडेष्वर नाथ मंदिर ग्राम हरड़ी में बनवाया गया । पं. गोनू झा भवसिंह के समकालीन थे।
6 देव सिंह – 1410-1413 ई.
7 शिव सिंह – 1413-1416 ई. उन्होंने अपनी राजधानी बागमती नदी के तट पर गजरथपुर में बनवाई। विद्यापति इनके दरबार में राजकवि व पुरोहित थे। षिवसिंह की पत्नी का नाम रानी लखिमा था । मुसलमानों के आक्रमण से उनके द्वारा बागमती नदी के किनारे बनयी गई नई राजधानी ’गजरथपुर’ भी नश्ट हो गया तथा अंततः षिव सिंह का प्राणांत हो गया । विद्यापति षिव सिंह की पत्नी रानी लखिमा की जान बचाने, जिस समय षिवसिंह व मुस्लिमों के बीच लम्बी लड़ाई चल रही थी लखिमा को लेकर नेपाल के राजा पुरादित्य के पास चले गये । बारह वर्श प्रतीक्षा व षिवसिंह के प्राणांत के बाद रानी लखिमा सती हो गई । इसका उल्लेख विद्यापति ने ‘‘लिखनावली‘’ पुस्तक में किए हैं ।
8 रानी लखिमा – 1416-1428 ई.
9 पद्य सिंह – 1428-1430 ई.
10 विश्वास देवी – 1430-1442 ई.
11 हरि सिंह – 1442-1444 ई. अपनी राजधानी हरड़ी ग्राम के नरेनडीह पर स्थापित किया ।
12 नरेन्द्र सिंह – 1444-1460 ई. अपनी राजधानी हरड़ी ग्राम के नरेनडीह में बरकरार रखा तथा विद्यापति इनकी सभा का सभापति हुए जिसका उल्लेख विद्यापति ने ’’विभागसार’’ नामक पुस्तक में किया ।
13 धीर सिंह – 1460-1462 ई.
14 भैरव सिंह – 1462-1488 ई. सरिसब पाही के अयाची मिश्र के पुत्र षंकर मिश्र ने ’’बालोहम जगदानन्द’’ वाला ष्लोक भैरव सिंह को सुनाया था। भवनाथ मिश्र उर्फ अयाची मिश्र भैरव सिंह के समकालीन थे । अभिनव वाचस्पति इस समय हुए जो राजा भैरव सिंह के दरबार की षोभा बढ़ाये ।
15 रामभद्र सिंह – 1488-1510 ई. राजधानी रामभद्रपुर में बनवाये ।
16 लक्ष्मी नाथ सिंह – 1510-1526 ई. सिंकदर लोदी के आक्रमण में मारे गये 1526 ई. में ।
कंश नारायण वंष (1548-1551 ई.)
17 मजुमदार (कर्ण कायस्थ) – 1549-50 ई. (मजूमदार कंष नारायण वंष का प्रमुख षासक था)
मजलिस खॉं (1551-52 ईस्वी)- षासन मात्र एक वर्श का रहा ।
बिहौर राजपूत वंष :- (1552-1556 ईस्वी)
1 बीरबल सिंह – 1552 ई.
2 उन्माद सिंह – 1553 ई.
3 खड़ग सिंह – 1554 ई.
4 कौषेष्वर सिंह – 1555 ई.
5 मनमथ सिंह – 1556 ई.
नोटः- ये लोग नाम मात्र का राजा थे, वास्तविक षासन दिल्ली व बंगाल के मुस्लिम षासकों के हाथ में था ।
खंडवला वंष और मिथिला :- (श्रोत्रिय ब्राम्हण वंष – 400 वर्श लगभग (1557-1947 ई.))
1 म.म. महेष ठाकुर – 1557-1569 ई. बस्तर राज्य में प्रधान पंडित थे । श्रोत्रिय ब्राम्हण थे, प्रकाण्ड विद्वान थे, इनके परमप्रिय षिश्य थे – श्री रधुनन्दन झा । श्री झा परम मेधावी विद्वान व प्रत्युत्पन्नमति थे । इनकी इन विषेशताओं से अत्यधिक, प्रभावित होकर मुगलषासक अकबर ने श्री झा को ’पंडित राय’ की उपाधि से विभूशित कर मिथिला क्षेत्र का षासन श्री झा के गुरू महेष ठाकुर को सौंप दिया । ये अपनी राजधानी भौर गांव (जो मधुबनी से 14-15 किमी पूरब लोहट चीनी मिल के पास) में रखा ।
2 म.म. गोपाल ठाकुर – 1569-1581 ई.
3 म.म. परमानन्द ठाकुर-1581 -1583 ई.
4 म.म. षुभंकर ठाकुर-1583 ई.-1617 ई. ये अपनी राजधानी दरभंगा के निकट षुभंकरपुर नाम के ग्राम में स्थापित किया । परन्तु बाद में अपनी राजधानी को मधुबनी के निकट भउआरा में स्थानान्तरित किया ।
5 म.म. पुरूशोत्तम ठाकुर-1617-1641 ई.
6 म.म. सुन्दर ठाकुर – 1641-1668 ई.
7 म.म. महिनाथ ठाकुर-1668-1690 ई. ये पराक्रमी योद्धा थे इन्होंने मिथिला की प्राचीन राजधानी सिमरांअ परगने को अपने में मिला लिया ।
8 म.म. नरपति ठाकुर-1690-1700 ई.
9 राजा राघव सिंह बहादुर-1700-1739 ई. मूर्सिदाबाद के नवाब ने इन्हें राजासिंहबहादुर की उपाधि से सम्मानित किया तब से इनके वंषज राजा सिंह की उपाधि से जाने जाने लगे । इनके ही कुल के एक कुमार-एकनाथ ठाकुर द्वेष वष भावना से आहत होकर बंगाल-बिहार का नवाब अलिवर्दी खॉ राजा राघव सिंह को सपरिवार बंदी बनाकर पटना ले गया। बाद में भादव के षुक्ल चतुर्थी (चौठी चंद्र) को कर निर्धारित कर मुक्त कर दिया । माना गया है कि इसी कारण मिथिला में यह तिथि ‘‘पर्व तिथि‘‘ बन गई । और इस तिथि को कलंकित होने के बावजूद चंद्रमा की पूजा होने लगी । मिथिला के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र कहीं चौठी चंद्र नहीं मनाया जाता है।
10 राजा विश्णु सिंह बहादुर-1739-1743 ई.
11 राजा नरेन्द्र सिंह बहादुर – 1743-1770 ई. (राधवसिंह के द्वितीय पुत्र) कंदर्पीघाट (ग्राम हरिना) में 1753 ई. में नरेन्द्र सिंह तथा अलीवर्दी खॉं (बंगाल के षासक) के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुई थी जिसे द्वितीय हल्दी घाटी की युद्ध की संज्ञा दी जाती है । यहां नरेन्द्र सिंह द्वारा स्थापित ’’नरेन्द्र विजिया भगवती’’ की मनोरम मूर्ति स्थापित है । राजा नरेन्द्र सिंह द्वारा निष्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण अलीवर्दीं खॉ ने पहले पटना के सुबेदार रामनारायण से नरेन्द्र सिंह के विरूद्ध आक्रमण करवाया । यह युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगद्वार घाट होते हुए झंझारपुर के पास कंदर्पीघाटी के पास हुआ । सुबेदार रामनारायण की सेना कमजोर पड़ने के कारण बाद में अलीवर्दी खॉ (बंगाल के षासक) की सेना भी दरभंगा राजा नरेन्द्र सिंह के विरूद्ध आक्रमण किया । नरहन राज्य के ब्राम्हण राजा अजित नारायण ने दरभंगा राज का साथ दिया तथा भयंकर व लोमहर्शक युद्ध हुआ । इन युद्धों में महाराज दरभंगा राजा नरेन्द्र सिंह विजयी हुए ।
12 रानी पद्मावती – 1770-1778 ई.
13 राजा प्रताप सिंह बहादुर – 1778-1785 ई. इन्होंने अपनी राजधानी को भउआरा (मधुबनी) से झंझारपुर स्थानान्तरित किया ।
14 राजा माघव सिंह बहादुर – 1785-1807 ई. इन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से दरभंगा स्थानान्तरित किया । लार्ड कर्नवालिस ने इनके साम्राज्य की जमीन की बंदोबस्ती करवाया ।
15 महाराजा छत्र सिंह बहादुर-1807-1839 ई. इन्होंने 1814 से 1815 ई. के नेपाल युद्ध में अंग्रेजो कीसहायता की।लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इन्हें महाराजा की उपाधि दी।
16 महाराजा रूद्र सिंह बहादुर – 1839-1850 ई.
17 महाराजा महेष्वर सिंह बहादुर – 1850-1860 ई. इनकी मृत्यु के पश्चात कुमार लक्ष्मीष्वर सिंह अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज्य को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ब्रिटिष द्वारा ले लिया गया । जब कुमार लक्ष्मीष्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए ।
18 महाराजा लक्ष्मीष्वर सिंह बहादुर – 1880-1898 ई. ये काफी उदार, लोक हितैशी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी व विद्वानों के हितैशी थे । महाराजा लक्ष्मीष्वर सिंह बहादुर (1880-1898) भारतीय राश्ट््रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे । अंग्रेजो से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद, वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे । डॉ राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाश चन्द्र बोस, और महात्मा गांधी से उनके धनिश्ट संबंध थे । सन 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेषन करना चाहती थी पर अंग्रेज षासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर एैसा करने की इजाजत नहीं दी । यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराज ने वहां एक महल दी खरीद लिया । उसी महल के ग्राउण्ड पर कांग्रेस का अधिवेषन हुआ । महाराज ने वह महल कांग्रेस को सौंप दी ।
19 महाराजाधिराज रमेष्वर सिंह बहादुर – 1898-1929 ई. ये महाराजा लक्ष्मीष्वर सिंह के छोटे भाई थे । ये भी अपने अग्रज की तरह काफी उदार, लोक हितैशी, विद्यानुरागी, कलाप्रेमी, विद्वानों व कलाकारों के हितैशी थे । ब्रिटिष षासक से घनिश्ट संबंध होने के नाते ब्रिटिष षासक इन्हें महाराजाधिराज की उपाधि प्रदान किया । भारत के अनेक नगरों में विषाल भवनों का निर्माण करवाये साथ ही बड़ी संख्या में मंदिरों का निर्माण करवाये । ये राजनगर, मधुबनी में अपनी राजधानी बनवाना चाहते थे, जिस कारण राजनगर में विषाल व भव्य राजप्रासाद तथा अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था । जिसे आर्किटेक्ट डॉ एम.ए.कॉर्नी के देखरेख में बनवाया गया । यहां का सबसे भव्य भवन नौलखा 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ । ये अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा हो न सका, जिसमें कमलानदी में भीशण बाढ़ से कटाई भी एक प्रमुख कारण था । जून 1929 ई. में इनकी मृत्यू हुई। ये भगवती के महाभक्त थे तथा तंत्र विद्या के विषिश्ट विद्वान थे ।
20 महाराजाधिराज कामेष्वर सिंह बहादुर – 1929 – 1947 ई. पिता के निधन के बाद ये गद्दी पर बैठे । इन्होंने अपने भाई राजा बहादुर विष्वेष्वर सिंह को अपने पूज्य पिता द्वारा निर्मित राजनगर का विषाल एवं दर्षनीय राजप्रासाद देकर उस अंचल का राज्य भार सौंपा । 1934 ई. के भीशण भूकंप में अपने निर्माण का एक दषक भी पूरा न हुए राजनगर के यह अद्भुत नक्काषीदार वैभवषाली भवन छतिग्रस्त हो गया । महाराजा कामेष्वर सिंह के समय ही भारत स्वतंत्र हुआ । जमींदारी प्रथा समाप्त हुई । देषी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया । महाराजा कामेष्वर सिंह को संतान न होने से उनके भतीजे (राजा बहादुर के बड़े पुत्र) कुमार जिवेष्वर सिंह संपंत्ति के अधिकारी हुए । दरभंगा नरेष कामेष्वर सिंह अपनी षान-षौकत के लिये पूरी दुनिया में विख्यात थे । ये नील के व्यवसाय प्रारंभ करवाये । चीनी मिल व कागज मिल खोले । इसमें बहुतों को रोजगार मिला । इस तरह दरभंगा राज केवल किसानों से कर के भरोसे न रहा बल्कि आय के नये स्त्रोत बनाये । इससे स्पश्ट होता है कि दरभंगा महाराज आधुनिक सोच के थे ।
पत्रकारिता के क्षेत्र में दरभंगा महाराज ने महत्वपूर्ण कार्य किया । उन्होंने न्यूज पेपर एंड पब्लिकेषन प्रा.लिमि. की स्थापना की और कई अखबार और पत्रिकाओं के प्रकाषन षुरू किया । अंग्रेजी में द इंडियन नेषन, हिन्दी में आर्यावर्त्त, और मैथिली में मिथिला मिहिर साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाषन किया । एक जमाना था जब बिहार में आर्यावर्त्त सबसे लोकप्रिय अखबार था ।
दरभंगा राज व संगीत :- दरभंगा महाराज संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे । 18वीं सदी से ही दरभंगा हिन्दुस्तानी षास्त्रीय संगीत का बड़ा केन्द्र बन गया था । उस्ताद बिस्मिल्ला खान, गौहर जान, पं. राम चतुर मल्लिक, पं. रामेष्वर पाठक, पं. सियाराम तिवारी दरभंगा राज से जुड़े ख्यात संगीतज्ञ थे । उस्ताद बिसमिल्ला खान तो कई वर्शों तक दरबार में संगीतज्ञ रहे । कहते हैं उनका बचपन दरभंगा में ही बीता था ।
महाराजा लक्ष्मीष्वर सिंह स्वयं एक सितारवादक थे । ध्रुपद को लेकर दरभंगा राज में नये प्रयोग हुए । ध्रुपद के क्षेत्र में दरभंगा धराना का आज अलग पहचान है। महाराजाधिराज कामेष्वर सिंह के छोटे भाई राजा बहादुर विष्वेष्वर सिंह प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और गायक कुंदन लाल सहगल के मित्र थे । जब दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिलते थे तो बातचीत, गजल और ठुमरी का दौर चलता था । दरभंगा राज का अपना फनी ऑरकेस्ट््रा और पुलिस बैण्ड था।
खेल व दरभंगा राज :- खेलों में दरभंगा राज का महत्वपूर्ण योगदान रहा । स्वतंत्रता पूर्व बिहार में लहेरियासराय में दरभंगा महाराज ने पहला पोलो मैदान बनवाया था । राजा बहादुर विष्वेष्वर सिंह ऑल इंडिया फुटबॉल फैडरेषन के संस्थापक सदस्य थे । दरभंगा नरेषों ने कई खेलों को प्रोत्साहन दिया ।
शिक्षाव दरभंगा राज :- शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेषों ने बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय, कलकत्ता विष्वविद्यालय, इलाहाबाद विष्वविद्यालय, पटना विष्वविद्यालय, कामेष्वर सिंह संस्कृत विष्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पीटल, ललित नारायण मिथिला विष्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय, और कई संस्थानों को काफी दान दिया । महाराजाधिराज रमेष्वर सिंह बहादुर (1898-1929) पं. मदन मोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बीएचयू को रू.50.00 लाख कोश के लिये दिये थे। ये पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विष्वविद्यालय को दे दिया था । सन 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिये रू.5.00 लाख देने वाले सबसे बड़े दान दाता थे । रमेष्वर सिंह आनंद बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल, कामेष्वर सिंह संस्कृत विष्वविद्यालय को दे दिया । कलकत्ता विष्वविद्यालय के ग्रंथालय को भी उन्होंने काफी धन दिया । ललित नारायण मिथिला विष्वविद्यालय को राजदरभंगा से 70935 किताबें मिली । दरभंगा नरेष ने स्कूली षिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान दिया।
21 राजा बहादुर विष्वेष्वर सिंह राजनगर का राज प्रासाद इन्हें इनके बड़े भाई महाराजाधिराज कामेष्वर सिंह ठाकुर द्वारा दिया गया ।
22 श्री जिवेष्वर सिंह राजा बहादुर विष्वेष्वर सिंह का पुत्र थे।
लेखक
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृृृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)