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मिथिला-गाथा :: भामती मिश्र के निःस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल, अद्वैत वेदान्त का सर्वोच्च ग्रंथ ’’भामती’’

मिथिला-गाथा :: भामती मिश्र के निःस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल, अद्वैत वेदान्त का सर्वोच्च ग्रंथ ’’भामती’’

डेस्क : वाचस्पति मिश्र (10वीं शताब्दी) मिथिला के सुप्रतिष्ठित धवल ग्राम अंधराठाढ़ी के निवासी थे। विदित है कि मधुबनी जिलान्तर्गत अंधराठाढ़ी एक ऐतिहासिक ग्राम है ।  मिथिलान्तर्गत आने वाले अनेक तपोवनों में से यह एक तपकुण्ड है जहॉ एक -से-बढ़कर एक सारस्वत मनीशाओं ने जन्म लेकर, अथक अध्ययन कर विद्यार्जन के लिये जीवन के भौतिक सुखों को समिधा बना डाला, तथा उस ऊर्जा से प्राप्त कीर्ति चॉदनी को विश्व मंच पर सम्मुज्वलित किया।  वाचस्पति मिश्र संस्कृत के उद्भट विद्वान थे तथा सभी दर्शन-शास्त्रों पर कई टीका लिखे। जब वाचस्पति मिश्र ’’ब्रह्मसूत्र : शांकर भाष्यम्’’ पर टीका लिखने को सोच रहे थे तथा वे पूर्ण वयस्क हो चुके थे, तब उनकी माँ वाचस्पति की शादी अंधराठाढ़ी के पास के गांव भभाम (चन्देष्वर महादेव मंदिर हरड़ी गांव के बगल में) के एक लड़की से कराने के लिए तत्पर हुई। माँ लड़की के माता-पिता को स्पष्ट रूप से बतायी कि उनका लड़का विद्वान हैं, तथा पठन-पाठन में तल्लीन रहते हैं, इहलौकिक माया जाल से बचना चाहते हैं।  वे आध्यात्म के राह पर अग्रसर हैं। लड़की के पिता लड़के की माँ की बात सुनकर अपनी बेटी भामती की शादी वाचस्पति मिश्र से कराने मना करने लगे। परन्तु जब बात बेटी भामती तक पहुॅची तो भामती अपने पिता जी से बोली कि ऐसे विद्वान व्यक्ति से शादी करने में मुझे कोई एतराज नहीं है। यह सुन भामती क पिता हक्के-बक्के हो गए। 

गुरू पुर्णिमा के दिन वाचस्पति मिश्र की शादी भामती से हुई। शादी के बाद वाचस्पति मिश्र अपनी रचना (ब्रह्मसूत्र : षांकरभाश्यम पर टीका लेखन) में जुट गए। वाचस्पति ठहरे ब्रम्हान्वेशी, वे ’’ब्रम्ह सत्य जगत् मिथ्या’’ के सिद्धान्त व ब्रम्हाण्ड के रहस्यों को जानने में अपने मन को इतना तल्लीन कर लिए कि वे अपने तन व उसके भौतिक सुखों को भूल गए।  भूल गए अपने दाम्पत्य जीवन को । तल्लीन हो गए उस अन्नत कोटि ब्रम्हाण्ड के संचालक ’’सनातन ब्रम्ह’’ के रहस्यों को जानने व उन तथ्यों को संसार के सामने लाने हेतु । जब लगभग 16 वर्ष बाद वाचस्पति का टीका लेखन कार्य सम्पन्न हुआ तो एक दिन प्रौढ़ सुन्दर महिला को अपने घर देखने पर विस्मय होकर पूछ बैठे :- आप कौन हैं प्रवेय ? भामती मिश्र बोली- स्वामी, मैं आपकी पत्नी हूँ, जिसे आप लगभग डेढ़ दषक पूर्व शादी करके लाए थे। वाचस्पति गंभीर मुद्रा में याद करने लगे तब उन्हें याद आने लगा कि अच्छा यही वह चिर सुन्दरी हैं जो मुझे समय पर स्नान, खाना, विछावन, रात्रिकालीन अध्ययन हेतु दीप की रौशनी आदि की व्यवस्था करती थी। खाना पड़ोसते समय कई बार इनकी हाथ दिखाई दिए थे, वह उन्हें याद आया। वाचस्पति बोले आप अपना हाथ दिखाइए । भामती ने हाथ दिखाया तो कहा-हाँ हाँ यही वो हाथ है जिसे बराबर मैं देखा था खाना खाते वक्त ।

वाचस्पति ने आगे कहा कि मैं टीका (भाष्य) लिखने का कार्य पूर्ण कर लिया हूँ । यह टीका मानवता हेतु मेरा सर्वोच्च योगदान है। मैंने अपना ऋण चुका दिया है । अब मैं इस संसार का परित्याग करना चाहता हूँ। क्योंकि दाम्पत्य सुख नष्वर है ।

 

संसारी कोई भी सुख ऐसा नहीं होता, जिसके बदले दुःख नहीं होता हो । इस भौतिक सुख से आध्यात्म सुख ज्यादा आनन्द दायक है । भामती ने कहा – हे स्वामी, आपकी जो इच्छा हो कीजिए । मैं आपके राह में अवरोध नहीं पैदा करूंगी । वाचस्पति ने घबराते हुए पूछा- हे पत्नी ! जब मैं चला जाऊँगा तो आप अकेले परेशान तो नहीं होएंगी ? भामती स्त्रित्व की दृढ़ता के साथ जवाब दी – हे स्वामी ! जिस दैवीय शक्ति ने मुझे पिछले लगभग डेढ़ दशक में आपके साथ निभाने की शक्ति दी जिसके बदौलत आप मानव मात्र के पथ-प्रदर्शक भाष्य लिख सके, वही शक्ति मुझे शेष वैराग्य जीवन जीने की शक्ति भी प्रदान करेंगे, आप चिंता ना करें। मिथिला-गाथा :: भामती मिश्र के निःस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल, अद्वैत वेदान्त का सर्वोच्च ग्रंथ ’’भामती’’
इस पर वाचस्पति मिश्र भाव विव्हल हो बोल पडे़ – हे भामती ! मैंने अपने जीवन में इस प्रकार का प्रेम कभी नहीं पाया था न कभी सुना था । आपका इस निःस्वार्थ प्रेम पाकर आभारी हूँ और आजीवन आभारी रहूंगा । त्याग व सतीत्व की देवी भामती के सामने वाचस्पति मिश्र जैसा प्रखर-दार्शनिक-सूर्य अपने को बौना एवम् निस्तेज समझने लगा ।

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मैं अपनी सबसे महत्वपूर्ण रचना ब्रह्मसूत्रः शंकर भाष्यम पर टीका आपके चरणों में अर्पित करता हूँ। साथ ही इस रचना का नाम आपके नाम पर ‘‘भामती’’ रखता हूॅ, ताकि संसार आपके असाधारण व्यक्तित्व, पति-परायणता, सर्वोच्च त्याग व निःस्वार्थ प्रेम को सदा के लिए याद रख सके। आज के युग में भामती पुस्तक अद्वैत वेदान्त के जगत में ‘‘स्कूल ऑफ थाउट्स’’ के रूप में पढ़ाया जाता है।  यदि वाचस्पति मिश्र ’’ब्रम्ह सूत्र-षांकरभाश्यम्’’ पर भामती टीका नहीं लिखते तो षंकराचार्य द्वारा रचित यह ब्रम्ह सूत्र-षांकर भाश्यम् समय के प्रवाह में विलुप्त हो जाता । ’’वाचस्पति मिश्र एक संस्मरण (1995)’’ के लेखक पं. स्व. सहदेव झा ने अपने षोधपरक प्रस्तुतीकरण में दावा किया है कि वाचस्पति के कंधा पर चढ़कर ही षंकराचार्य इतने बड़े दार्षनिक के पद पर सुषोभित हुए और विष्व में दर्षनषास्त्र का प्रेरणा स्त्रोत बने । साथ ही सच्चिदानंद (ब्रम्ह) का वह दिव्य स्वरूप का रहस्य, रहस्य ही रह जाता, संसार के सामने प्रकट नहीं हो पाता । श्री मिश्र ने अपने दाम्पत्य सुख को समिधा बना कर ब्रम्ह-सूत्र जैसे- गूढ़ विशयों के राज को समझकर उसे मानव के आध्यात्मिक कल्याणार्थ लाने हेतु तप-कुण्ड में होम कर दिया तथा सफलता प्राप्त कर सनातन धर्म के गूढतम मर्म को चिर सनातन बना दिया ।

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भामती टीका मिथिला मैथिल के भावाद्वैत सनातन विचारधारा को अक्षुण्ण रखने की षक्ति प्रदान किया । वाचस्पति मिश्र द्वारा रचित अंतिम ग्रंथ ’’ब्रम्हसूत्र-षांकरभाश्यम्’’ पर टीका का समर्पण अपनी पत्नी भामती मिश्र के नाम ’’भामती’’ कर देना, विष्व इतिहास में सर्वोच्च बौद्धिक प्रेम जन्य उपहार है।  पंडित प्रवर सहदेव झा का मानना है कि यह उपहार षाहजहॉ द्वारा पत्नी की याद में समर्पित ताजमहल से भी अनूठा है, क्योंकि ताजमहल एक भौतिक अनुपम मकबरा है जिसकी जीवन अवधि है, परन्तु ’’भामती’’ बौद्धिक व आध्यात्मिक रचना है जो परम ब्रम्ह जैसे षाष्वत है, जिसका कभी अंत नहीं । भामती का वाचस्पति मिश्र के प्रति निःस्वार्थ प्रेम ने प्रेम का एक नया परिभाषा दिया है कि :- सच्चा प्रेम वह है जिसमें अपेक्षा शून्य हो, यह पुरूष-महिला के बीच परस्पर शारीरिक संबंध से बहुत ऊँचा है, मानव सेवा का उद्देश्य इस प्रेम की मंजिल है।

शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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