डेस्क : शास्त्रों के अनुसार माता पूजन के लिए कलश स्थापना करने हेतु 21 सितंबर 2017, गुरुवार को प्रात: 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक शुभ का चौघड़िया है। इसमें घटस्थापना कर सकते हैं। उषाकाल में कलश स्थापना केअभिलाषी भक्तों को इस मुहूर्त में घटस्थापना कर लेनी चाहिए। जो भी साधक अभिजीत मुहूर्त में घटस्थापना करना चाहते हैं, उनको दोपहर 12 बजे से 12 बजकर 24 मिनट के बीच में घटस्थापना करनी होगी। इसका एक बड़ा कारण है कि इस दिन 12 बजे से लेकर 1 बजकर 30 मिनट तक लाभ का चौघड़िया है। जो लोग दुकानों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों में घटस्थापना करना चाहते हैं, उनके लिए भी लाभ के चौघड़िया में घटस्थापना करना उतम है।
नवरात्र प्रथम दिन
नवरात्र के आरंभ में प्रथम दिन मां शैलपुत्री की पूजा उपासना की जाती है। प्रथम दिन कलश या घट की स्थापना भी की जाती है। मां शैलपुत्री की शक्तियां अनन्त हैं। इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। शैलपुत्री के पूजन करने से ‘मूलाधार चक्र’ जाग्रत होता है। जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।
नवरात्र के आरंभ में प्रतिपदा तिथि को कलश या घट की स्थापना की जाती है। कलश को भगवान गणेश का रूप माना जाता है। हिन्दू धर्म में हर शुभ काम से पहले गणेश जी की पूजा का विधान है। इसलिए नवरात्र की शुभ पूजा से पहले कलश के रूप में गणेश को स्थापित किया जाता है। आइए जानते हैं कि नवरात्र में कलश स्थापना कैसे किया जाता है :
घट स्थापना मुहू्र्त
सुबह 6 बजे से 7:30 बजे तक
दोपहर 11:55 से 1:30 बजे तक
सायं 16:30 से 19:30 बजे तक
कलश स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री
शुद्ध साफ की हुई मिट्टी
शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश
मोली (लाल सूत्र)
साबुत सुपारी
कलश में रखने के लिए सिक्के
अशोक या आम के 5 पत्ते
कलश को ढंकने के लिए मिट्टी का ढक्कन
अक्षत (साबुत चावल)
एक पानी वाला नारियल
लाल कपड़ा या चुनरी
कलश स्थापना की विधि
नवरात्र में देवी पूजा के लिए जो कलश स्थापित किया जाता है वह सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का ही होना चाहिए। लोहे या स्टील के कलश का प्रयोग पूजा में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। भविष्य पुराण के अनुसार कलश स्थापना के लिए सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लेना चाहिए। जमीन पर मिट्टी और जौ को मिलाकर गोल आकृति का स्वरूप देना चाहिए। उसके मध्य में गड्ढा बनाकर उस पर कलश रखें। कलश पर रोली से स्वास्तिक या ऊं बनाना चाहिए।
कलश के ऊपरी भाग में कलावा बांधे। इसके बाद कलश में करीब अस्सी प्रतिशत जल भर दें। उसमें थोड़ा सा चावल, पुष्प, एक सुपाड़ी और एक सिक्का डाल दें। इसके बाद आम का पञ्च पल्लव रखकर चावल से भरा कसोरा रख दें। जिस पर स्वास्तिक बना और चुनरी में लिपटा नारियल रखें। अंत में दीप जलाकर कलश की पूजा करनी चाहिए। कलश पर फूल और नैवेद्य चढ़ाना चाहिए।
ध्यान
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
पौराणिक मान्यता
अपने पूर्व जन्म में माता शैलपुत्री, प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार वह अपने पिता के घर आयोजित यज्ञ में गईं जहां भगवान शंकर के अपमान को सुनकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आया और माता सती ने वहीं पर अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में सती ने शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। इस जन्म में भी शैलपुत्री, शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं।