डेस्क : मिथिलाक्षर लिपि का प्राचीनतम उल्लेख ‘‘ललित विस्तर’’ नामक बौद्ध ग्रंथ में मिलता है जहाँ यह ‘‘वैदेही लिपि’’, ‘‘ब्राम्ही लिपि’’, ’’मगधी’’ या ’’प्राच्य भारतीय लिपि’’ कही गई है। आज इस लिपि का सबसे प्रचलित नाम ‘‘तिरहुता लिपि’’ है।
मैथिली भाषा मिथिला में तीन लिपियों में लिखी जाती थी, मिथिलाक्षर (तिरहुताक्षर), कैथी और नागरी लिपि। तीनों लिपियाँ साथ-साथ नहीं चली हैं, बल्कि काल-क्रमेण एक को दबा कर दूसरी आती गई।
ब्राम्ही या मगधी या ’’प्राच्य भारतीय लिपि’’ स्थानीय अंतर के साथ समस्त मिथिला, बंगाल, आसाम और उड़ीसा में प्रचलित रहा। मगध में भी यही लिपि प्रचलित थी, किंतु नालंदा के विनाश के साथ वहाँ यह लिपि भी समाप्त हो गई।
10वीं सदी आते आते नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के उदय के साथ ही भारत की लिपियों में भी स्थानीय विशेषताएँ आने लगी। इसके बाद उक्त प्राच्य भारतीय लिपि (ब्राम्ही लिपि) एक से तीन हो गई- मिथिलाक्षर, बंगला, और ओड़िया।
उड़ीसा में वृत्ताकार शिरोरेखा की परिपाटी चली, जिससे उस लिपि का ढॉचा मिथिलाक्षर और बंगाक्षर से नितांत भिन्न हो गया। शेष दोनों का ढॉचा तो एक ही रहा, पर आकृति मूलक अंतर इतना हो गया कि दोनों स्पष्टतः भिन्न-भिन्न लिपियाँ हो गई। एक का नाम बंगलाक्षर या बंगाक्षर पड़ा और दूसरी का वैदेही/ तिरहुता/ मिथिलाक्षर। ब्राम्ही लिपि से निकला मिथिलाक्षर व बंगलाक्षर में बहुत समानता होने के बावजूद इनमें अन्तर भी पर्याप्त मात्रा में रहे जिससे दोनों स्वतंत्र लिपि बन गये।
इस प्रकार स्वतंत्र रूप में विकसित मिथिलाक्षर का प्रयोग समस्त मिथिला में 11वीं सदी से लेकर मुगल षासनकाल (अकबर के षासनकाल) तक सार्वजनिक तौर पर एकछत्र होता रहा।
मुस्लिम आक्रमणों के समय मिथिला पर कई सम्राटों व सामंतों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रशासनिक अधिकार जमया।
मध्यदेश (कर्णाटक) से आए कायस्थों और अन्य वर्गों ने इन सम्राटों/सामंतों के हाकिमों व अमलों के रूप में आसन जमाया। वे शासन की भाषा के रूप में फारसी तो लाए ही, साथ-साथ अरबी-फारसी शब्दों से लदी-हिन्दुस्तानी भाषा और ‘‘कैथी लिपि’’ भी लेते आए। फारसी से अनभिज्ञ मिथिलावासियों ने इस हिन्दुस्तानी कैथी लिपि को अपेक्षाकृत सरल पाकर खूब पसंद किया। फलतः मिथिला के घरेलू पाठशालाओं में मिथिलाक्षर के साथ-साथ कैथी लिपि भी सीखने लगे।
1870 ई. के आसपास कार्नवालिस ने कैथी लिपि को मान्यता दी और मिथिला के सभी सरकारी दफ्तरों में सारे अभिलेख इसी कैथी में तैयार किए गए। इससे कैथी लिपि का ज्ञान सबों के लिए अनिवार्य हो गया और मिथिलाक्षर केवल शास्त्रीय, सांस्कृतिक, और सामाजिक व्यवहारों में सीमित रह गया।
लार्ड मेकॉले ने आधुनिक शिक्षा चलाई। तत्कालीन शिक्षाधिकारियों ने तिरहुत जिला को हिन्दुस्तानी क्षेत्र मान लिया। शिक्षा विभाग ने नई शिक्षा में कैथी लिपि के बदले नागरी लिपि को और हिन्दुस्तानी के बदले हिन्दी को प्रतिष्ठित किया। तब से मिथिला के स्कूलों में कैथी लिपि के बदले नागरी लिपि और हिन्दुस्तानी भाषा के बदले हिन्दीभाषा की पढ़ाई शुरू हुई। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा पद्धति द्वारा शिक्षित लोगों को मिथिलाक्षर से कोई संबंध न रह गया, केवल प्राचीन पंरपरा के विद्वानों में ही मिथिलाक्षर चलता रहा, क्योंकि उनके सभी गं्रथों हस्तलेख मिथिलाक्षर में ही थे। पिछले कुछ शताब्दी में जब संस्कृत के गं्रथ ‘नागरी लिपि’ में मुद्रित होकर उपलब्ध हो गए, तब प्राचीन परंपरा के पंडितों में भी मिथिलाक्षर का प्रचार घटता गया और मिथिला में भी नागरी लिपि का एकछत्र राज्य हो गया।
मिथिलाक्षर का ऐतिहासिक महत्व
राजा न्यायदेव के मंत्री श्रीधर (कायस्थ) के अंधरा ठाढी शिलालेख (1097 ई) में सर्वप्रथम मिथिलाक्षर का दर्शन होता है। उसके बाद पनिचोभ ताम्रपत्र, तिलकेश्वरगढ़ अभिलेख, खोजपुर अभिलेख, भगीरथपुर शिलालेख, आदि अनेक शिलाओं और ताम्रपत्रों में मिथिलाक्षर के क्रमिक विकास का दर्शन होता है। 1500 ई. के बाद के मिथिलाक्षर हस्तलेख भारी मात्रा में उपलब्ध है, जिनकी एक उत्कृष्ट सूची बिहार रिसर्च सोसाइटी ने प्रकाशित की है। इनमें म. म. पक्षधर मिश्र और महाकवि विद्यापति ठाकुर के हस्तलेख विशेष गौरव के हैं।
मिथिलाक्षर के विषेशज्ञ श्रीभवनाथ झा कहते हैं कि 11वीं सदी से लेकर आज तक जितने भी अभिलेख हैं, ज्यादातर में मिथिलाक्षर का ही प्रयोग किया गया है। कोई-कोई ही ऐसा है जिसमें देवनागरी का प्रयोग किया गया है। मिथिलाक्षर में सबसे पुराना अभिलेख मधुबनी के अंधराठाढ़ी में कमलादित्य स्थान में प्राप्त हुआ था, जिसमें प्राप्त विश्णु मूर्ति के नीचे एक अभिलेख लिखा गया था। इस अभिलेख में 1096 ई. के कर्णाटवंषीय जानकारी दी गई है। अभिलेख से ही पता चलता है कि कर्णाटवंषीय नान्यदेव के मंत्री श्रीधर दास ने इस मूर्ति को स्थापित किया था। श्री झा बताते हैं कि मधुबनी के अंधराठाढ़ी में ही एक मां तारा की मूर्ति मिली थी, जिसे श्री झा डिसाइफर किया था। इसकी विषेशता यह है कि मिथिलाक्षर में बौध्दमंत्र लिखा गया है, जो बिहार में मिले कई अवषेशों में मिला है। हमारे देष की एक कहावत है :- कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बाणी। यानि लिपि और भाशा की दृश्टि से हमारा देष षुरू से ही समृद्ध रहा है। भाशा जगत जितना अनूठा और विस्तृत है, उससे जरा भी कम लिपियों का संसार नहीं। जितनी पुरानी मानव सम्यता, लिपियों का इतिहास भी करीब इतना ही पुराना है। कालांतर में कई विलुप्त लिपियों को पढ़ने में सफलता मिली, लेकिन ऐसी कई लिपियॉ है जो आज भी अबुझ हैं।
मिथिला के लोक व्यवहार में मिथिलाक्षर
परन्तु आज मिथिलाक्षर को जानने वालों की संख्या नगण्य हैं। जबकि ऐसा युग रहा जब विषय कुछ भी हो, वे लिखे गए मिथिलाक्षर में ही।संस्कृत के हजारों पांडुलिपि मिथिला शोध संस्थान और कामेश्वर सिंह पुस्तकालय दरभंगा में रखे हैं, जो मिथिलाक्षर में हैं। आज से करीब 100-150 वर्ष पूर्व से ही मिथिला में देवनागरी लिपि के तरफ रुझान बढ़ा तथा मिथिलाक्षर के तरफ घटने लगा। फिर भी साहित्यिक विद्वानों व संस्कृत विद्वानों ने इसे सीमित स्तर पर बचा के रखा। विस्तृत स्तर पर लेखन में भले ही देवनागरी लिपि का धड़ल्ले से उपयोग होने लगा परन्तु बच्चों के अक्षर आरम्भ के सुअवसर पर पिछले सात-आठ दशक तक मिथिलाक्षर को उपयोग होता रहा। बच्चों को मिथिलाक्षर में ’’आंजी सिध्दि रस्तु’’ लिखा कर अक्षरारम्भ (पढ़ाई शुरु) कराये जाने की परम्परा रही। क्रमशः अक्षरारम्भ की यह परम्परा भी समाप्त हो गयी। लेकिन मिथिलाक्षर का अस्तित्व मुंडन, उपनयन, विवाह श्राध्द अदि पर संबंधी लोगों को प्रेषित होने वाले सूचना व आमंत्रण पत्रों पर बना रहा । इसको ‘पता‘ कहते हैं। करीब 20-25 वर्ष पूर्व तक यह परम्परा धरल्ले से चल रही थी। परन्तु ‘‘पता‘‘ के बजाय आमंत्रण-कार्ड का प्रेस से छपाई प्रारम्भ हुआ तो मिथिलाक्षर का उपयोग यहाँ भी बंद हो गया।
मैथिली भाषा के नव-जागरण-युग में मिथिलाक्षर का पुनर्जागरण व संरक्षण
मिथिलाक्षर के विकास के लिए मिथिला के विद्वान व मैथिली साहित्य के विद्वान वर्षों से चिंतित रहे हैं। इस चिंता के तहत इसकी पुनर्जागरण के लिए कुछ पहल भी हुए जैसे :-
1 मिथिलाक्षरांकण प्रबंधक समिति, लहेरियासराय 1936 ई. के आसपास मिथिलाक्षर लिखने प्रेस कांटा बनवाए।
2 मैथिली के इतिहासकार डॉ. जयकान्त मिश्र, मिथिलाक्षर सिखाने इलाहाबाद से किताब छपवाये।
3 अखिल भारतीय मैथिली साहित्य परिषद् दरभंगा ने ‘‘मिथिलाक्षर अभ्यास पुस्तिका‘‘ छपवाया।
कितने बार मिथिलाक्षर सिखाने का अभ्यास भी चलाया गया।
4 हाल में साहित्य अकादमी के सदस्य डॉ. जयकान्त मिश्र ने मिथिलाक्षर का कॉटा बनवाया है और उनके तत्वावधान में निकलने वाले मैथिली शब्द-कोश में नागरी के साथ-साथ मिथिलाक्षर का व्यवहार किया गया है।
भारत शासन द्वारा विशेषज्ञ समिति का गठन :-
दिनांक 19 मार्च 2018 को श्री संजय झा बिहार राज्य योजना परिषद् के सदस्य एवम् नेता जनता दल युनाइटेक ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी से दिल्ली में उनके दफ्तर में मुलाकात कर एक ज्ञापन सौंपा था, जिसमें मैथिली के विकास के लिए एक कमिटी गठित करने के लिए आग्रह किया था। जावड़ेकर जी के पहल पर ही इस समिति का गठन हुआ है।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से हाल ही में इस लिपि के संरक्षण संवर्धन और विकास के लिए चार सदस्यी समिति का गठन कर दिया गया है, जो इस पर जल्द ही एक रिपोर्ट मंत्रालय को सांपेगी। इस चार सदस्या समिति के सदस्य इस प्रकार है :-
(1) ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा के मैथिली विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.(डॉ) रमण झा।
(2) कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा के सेवानिवृत्त प्रो. डॉ रत्नेश्वर मिश्र।
(3) पटना स्थित महावीर मंदिर न्यास के प्रकाशन विभाग के पदाधिकारी पण्डित भवनाथ झा।
(4) कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा के व्याकरण विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ (पं.) शशि नाथ झा।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर की अध्यक्षता में मैथिली लिपि के संरक्षण संवर्धन और विकास के लिए गठित विशेषज्ञ समिति की पहली बैंठक गुरुवार 5 जुलाई 2018 को दिल्ली में हुई। इस बैंठक में विशेषज्ञ समिति के चारों सदस्य के साथ बिहार राज्य योजना परिषद् के सदस्य संजय कुमार झा भी शामिल हुए। बैठक में केंद्रीय भाषा संस्थान के निदेशक भी मौजूद थे। माननीय मंत्री ने आश्वस्त किया कि मिथिलाक्षर को संरक्षित व सवंर्धित करने सभी प्रकार की सहायता की जावेगी।
सदस्यों ने सूचित किया कि मैथिली लिपि को पढ़ने व समझने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हैं, ऐसे में लिपि को पढ़ कर रोजगार पा सकेंगे। मैथिली लिपि में पचास हजार से अधिक पाडुलिपि हैं, जिन्हें पढ़कर समझना है, तथा उन बातों को अन्य भाषाओं में अनुवाद कर दुनिया के सामने मिथिला का गौरवशाली इतिहास के दबे तथ्यों को लाना है।
ऐसे भाषा की संख्या ज्यादा नहीं है जिसकी अपनी लिपि हो, उसमें मैथिली भाषा सौभाग्यशाली है कि इसकी अपनी लिपि है। जिसे संरक्षित और विकसित करना ऐतिहासिक आवश्यकता है ।
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)