मधुबनी (आाकिल हुसैन) : मिथिलाचंल का प्रसिद्ध सामा-चकेवा की परंपरा अब विलुप्त की कगार पर पहुंच चुकी है। पहले मिथिला क्षेत्र के हर घरों से सामा-चकेवा खेलने की परंपरा निभायी जाती थी, वहीं अब कुछ ही घरों तक सिमट कर रही गयी है। सामा-चकेवा खेलने के दौरान सामाजिक प्यार देखा जाता था। जहां रात होते ही सभी घरों की लड़कियां एवं अन्य औरते एक साथ होकर झूंड में सामा-चकेवा खेलती थी। यह पर्व खास तौर पर भाई-बहन के अटूट प्यार के निषानी के तौर पर खेला जाता था। यह त्यौहार कार्तीक माह सपमी से शुरु होकर पुर्णिमा के दिन सपन्न होता है। कहा जाता है कि सामा कृष्ण की पुत्री थी। जिस पर गलत आरोप लग गये थे, तो कृष्ण ने सामा को पक्षी के रुप में रहने का श्राप दिया। भाई चकेवा को जब उक्त बातों की जानकारी हुई तो तपस्या कर अपने बहन सामा को पुनः मनुष्य रुप में ला दिया। कहा जाता है कि तब से सामा-चकेवा का त्यौहार मनाया जाता है। समाज सेवी व वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रकांत झा ने बताया कि सामा-चकेवा अब मिथिला से सिमट रहा है,जो काफी दुखदायक है। मिथिला की परंपरा नष्ट होने से हमारी संस्कृति सिमटती जा रही है। श्री झा ने कहा कि पष्चिमी सभ्यता के कारण मिथिला का कई लोकपर्व सिमट रहा है। जिसके कारण हमारी सभ्यता खत्म हो रहा है। हमलोग पष्चिमी सभ्यता के कारण प्राचीन काल से आ रही सभ्यता को भुल रहे है। श्री झा ने मिथिला के लोगों से इस महान पर्व को बचाने के लिए आगे आने का आह्वान किया है। उन्होंने बताया कि इस पर्व को कायम रखने के लिए वे कलम व लोगों से अपील करने का काम कर रहे है।
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