देवतालाब : मनुष्य की प्रगति का आधार उसका कर्म ही होता है। हमें जीवन में जो भी मिलता है वह हमारे कर्मों से ही प्राप्त होता है। अच्छे कर्म में सत्य और धर्म का अनुसरण है जबकि झूठ धोखा और दूसरे को कष्ट पहुंचाना बुरा कर्म है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक भाव होना जरूरी है। सकारात्मक भाव अपनाने से दोष में भी गुण देखा जाता है। प्रभु की भक्ति में कभी कमी नहीं आनी चाहिए।स्थानीय शिव मन्दिर देवतालाब में स्वामी विचि़त्रानंद जी महाराज की पावन सनिध्यता में आयोजित श्रीमदभागवत कथा के दौरान वृन्दावन से पधारें कथा व्यास हरिमोहन जी षास्त्री ने श्रद्धालुओं को पुण्य प्रवचन दिये।
कथा वाचक शास्त्री जी महाराज ने कथा के दौरान श्रीकृष्ण एवं सुदामा के मित्रता के बारे में बताया कि सुदामा के आने की खबर पाकर किस प्रकार श्रीकृष्ण दौड़ते हुए दरवाजे तक गए थे। पानी परात को हाथ छूवो नाही नैनन के जल से पग धोये। योगेश्वर श्री कृष्ण अपने बाल सखा सुदामा जी की आवभगत में इतने विभोर हो गए के द्वारका के नाथ हाथ जोड़कर और अंग लिपटाकर जल भरे नेत्रो से सुदामा जी का हाल चाल पूछने लगे। उन्होंने बताया कि इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता में धन दौलत आड़े नहीं आती।आचार्य ने सुदामा चरित्र की कथा का प्रसंग सुनाकर श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर दिया स्व दामा यस्य स सुदामा अर्थात अपनी इंद्रियों का दमन कर ले वही सुदामा है। भागवत ज्ञान यज्ञ के सातवें दिन कथा का वाचन हुआ तो मौजूद श्रद्धालुओं के आखों से अश्रु बहने लगे। उन्होंने कहा श्री कृष्ण भक्त वत्सल हैं सभी के दिलों में विहार करते हैं जरूरत है तो सिर्फ शुद्ध ह्रदय से उन्हें पहचानने की कथा के दौरान बीच बीच में मण्डली द्वारा भजन की प्रस्तुति की गई। मनुश्य स्वंय को भगवान बनाने के बजाय प्रभु का दास बनने का प्रयास करे क्यों कि भक्ति भाव देख कर जब प्रभु में वात्सल्य जागता है तो वे सब कुछ छोड कर अपने भक्तरूपी संतान के पास दौडे चले आते हैं। गृहस्थ जीवन में मनुश्य तनाव में जीता है जब कि संत सद्भाव में जीता है। यदि संत नहीं बन सकते तो संतोशी बन जाओ। संतोश सबसे बडा धन है। सुदामा की मित्रता भगवान के साथ निस्वार्थ थी उन्होने कभी उनसे सुख साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कामना नहीं की। लेकिन सुदामा की पत्नी द्वारा पोटली में भेजे गये चावलों में भगवान श्री कृष्ण से सारी हकीकत कह दी और प्रभु ने बिन मांगे ही सुदामा को सबकुछ प्रदान कर दिया। उन्होंने श्रोताओं से कहा की नियमित सात दिन तक कथा सुनने से जन्म जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है। सप्ताह भर की कथा का सारांश में प्रवचन करते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग बाकी दिन की कथा नहीं सुन पाए हैं उन्हें इस कथा का श्रवण करने से पूरी कथा सुनने का पुण्य लाभ प्राप्त हो सकता है। पापों का नाश करने के लिए भगवान धरती पर अवतार लेते हैं। धरती पर आने के बाद भगवान भी गुरु की भक्ति करते हैं। उन्होंने कहा कि सच्चे गुरु के आशीर्वाद से जीवन धन्य हो जाता है। कलयुग में माता-पिता और गुरु भक्ति करने से पापों का नाश होता है। जब सत्संग में जाएं तो सिर्फ कान न खोलें बल्कि आंख भी खोल कर रखें। मनुष्य को आत्मचिंतन और आत्म साक्षात्कार की आवश्यकता है। कथा केवल सुनने के लिए नहीं है बल्कि इसे अपने जीवन में उतारें इसका अनुसरण करें।
भगवत भजन करने से स्वयं तो आत्मविश्वासी होता ही है दूसरों में भी विश्वास जगता है। आत्मविश्वास में कमी आने पर हम हर प्रकार से संपन्न होते हुए भी हमें कार्य की सफलता पर संशय रहता है। समापन के अवसर पर उन्होंने श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि प्रतिदिन माता.पिता का आदर करें सूर्य को अर्घ्य अर्पण करें भगवान को भोग लगाएं गाय को रोटी दें और अपने आत्मविश्वास को हमेशा कायम रखें। अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा अच्छे कार्यों के लिए अवश्य निकालें। उन्होंने भगवत गीता के प्रथम और अंतिम श्लोक के साथ इस कथा का समापन किया।