
मायावती ऐसा स्थापित कर पाएं, इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि अपने चुनावी समीकरण को वो बांधे रख पाएं. मायावती का दांव इसबार दलित-मुस्लिम समीकरण पर है और इसमें उन्हें सेंध लगती नज़र आ रही है. मुस्लिम मतदाताओं के बीच अभी भी सपा को बसपा से अधिक प्राथमिकता मिल रही है. उसकी वजह है मायावती का भाजपा के साथ गठबंधनों का इतिहास. मुस्लिम मतदाता को लगता है कि सीटों की कमी पड़ी तो मायावती कहीं फिर से भाजपा का साथ लेकर सरकार न बना लें. ऐसा हुआ तो वो ठगे जाएंगे और इसीलिए वो इस स्थिति से बचने के लिए सपा को शायद पहली प्राथमिकता दे रहे हैं.
मायावती अगर केवल जीत का दंभ भरती रहीं तो अंदर ही अंदर मुस्लिम वोट खिसकता जाएगा और उनके लिए स्थिति कठिन हो जाएंगी. ऐसे में उन्हें तत्काल यह समझाने की ज़रूरत है कि वो किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जाएंगी. भाजपा के साथ समझौता नहीं, भले ही विपक्ष में बैठना पड़े, ऐसा बयान दरअसल सूबे के मुस्लिम मतदाताओं के लिए मायावती का संदेश है ताकि वो शक और भय से उबरकर उनके लिए वोट कर सकें. ऐसा अगर हो पाता है तो एक नकारात्मक दिखने वाला बयान मायावती के लिए एक सकारात्मक तस्वीर तैयार कर सकता है.
ज़ाहिर है कि मायावती के विरोधी इस बयान को उनकी हार की स्वीकारोक्ति के तौर पर दिखाने का काम करेंगे. लेकिन विपक्ष के इस हमले से मायावती कमज़ोर कम, प्रतिबद्ध ज़्यादा नज़र आएंगी.
सूबे में इसबार का विधानसभा चुनाव मायावती के लिए खासा निर्णायक है. उनकी पार्टी, उनका नेतृत्व और देश में दलित राजनीति के वर्चस्व की दृष्टि से मायावती के लिए यह चुनाव जीतना बहुत ज़रूरी है. मायावती इसे भली भांति समझती हैं. और शायद इसीलिए विपक्ष में बैठने की बात कहकर उन्हें एक बड़ा दांव खेला है.