प्रसिद्ध लेखक शंकर झा की कलम से : मिथिला की भूमि को भारत की संस्कृति एवम् परम्परा में अमूल्य स्थान प्राप्त है। संस्कृति जहाँ बनती है, यह वही क्षेत्र है। संस्कृति से ज्यादा देश की सम्पत्ति कुछ नहीं होता है। हम जानते हैं कि जिस समाज की संस्कृति और सभ्यता समाप्त हो जाती है उस समाज को मिटने में देर नहीं लगती।
- मिथिला वैदिक शास्त्र, साहित्य और दर्शन की कर्म भूमि है।
- मिथिला धाम, विद्या, विद्वानों और दर्शनशास्त्रज्ञों का धवल धाम रहा है।
- आदर्शों एवम् संस्कारों को लेकर मिथिलांचल राष्ट्र के मानचित्र पर सुर्खियों में रहा है।
विश्व की मधुरतम् भाषा मैथिली की जन्मभूमि तथा अध्यात्म, संस्कृति और कला की पीठ-स्थली मिथिला, निर्विवादतः महाश्वेता भगवती भारती का ललित ललाम का लीला क्षेत्र है।
दिग्दीप्त ब्रम्हवेत्ता प्रातः स्मरणीय विद्वतगण यथा याज्ञवल्क्य, जनक, विद्यापति, मण्डन मिश्र, वाचस्पति मिश्र आदि के अवतरण भूमि मिथिला पुरा काल से ही प्राच्य विद्या की प्रशस्त पुनीत प्रकाश पयस्विनी को न केवल मिथिला अपितु बृहत्तर लोक धरातल तक प्रकीर्ण करती आ रही है। अपनी शाश्वत संचेतना और उपलब्धियों का परिमल पराग से दूर दिगन्त को सुरभि-सज्ज करता हुआ मिथिलांचल आज भारत के एक आदर्श ज्ञान-स्थल के रूप में सहज सुख्यात है विविध क्षेत्रों में मिथिला की उपलब्धियाँ अनुपमेय हैं।
भारत के इतिहास में पुराकाल से ही मिथिलांचल का विशिष्ट स्थान रहा है। इस धरती ने मिथिलाधिपति राजर्षि जनक को जन्म दिया था, जिन्हें विदेह की अमिधा (संज्ञा) उपलब्ध थी। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में राजर्षि जनक को प्रवृत्तिमार्ग का आदर्श अवतार कहा है।
न्याय और मीमांसा के मूर्धन्यपंडित आचार्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने आय अद्वैतवादी आचार्य शंकर, मिथिला आए थे जब आचार्य शंकर ग्राम महिषी (मंडन मिश्र का गाँव) पहुँचे और एक पनिहारिन से मंडन मिश्र के घर का पता पूछा, तो पनिहारिन संस्कृत में जवाब देकर पता बतायी थी। अर्थात् उन दिनों मिथिला का अणु-अणु और कण-कण विपुल वैदुष्य की विभा से विभासित था।
वार्तिकार वररुचि, गौतम कपिल, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य, गंगेश, पक्षधर मिश्र जैसे दर्शन, न्याय व मीमांसा के विद्वान तथा गार्गी, मैत्रेयी, भारती जैसी ब्रम्हवादिनी विभूतियों और विद्यापति जैसे महाकवियों तथा अमर भाषाविद् पतंजलि जैसे भगवती भारती के वरदपुत्र पर मिथिला “यावच्चन्द्रदिवाकरौ गर्व करती रहेगी।
धर्म, संस्कृति और कला की पीठस्थली ‘मिथिला’ शताब्दियों तक महान् भारत के आध्यात्मिक चिन्तन, दर्शन और सामाजिक वैचारिकी को उन्मेषित, उत्प्राणित करती रही है।
कालजयी व्याकरणाचार्य पाणिनि ने ‘मिथिला’ शब्द अर्थ इस प्रकार की है :- “ मिथिला वह जनपद है, जहाँ शत्रुओं को चकनाचूर कर दिया जाता है”। – मिथिला की हृदय स्थली इतिहास के आरम्भिक पृष्ठों पर ही विराट ज्ञानलोक प्रसारित करने वाली अनूठी भूमि रही है। वेदों में उल्लेखित कथा के अनुसार मिथिला तब विदेहों की भूमि के रूप में प्रख्यात थी।
मिथिला को ‘तीरभुक्ति’ के रूप में भी प्रसिद्धि मिली थी।- मिथिला का अर्वाचीन नाम ‘तीरहुत’ या ‘तिरहुत’ है। संभवतः यह शब्द ‘तीरभुक्ति’ का अपभ्रंश है। ‘तीरभुक्ति’ का अर्थ होता है “नदियों के तट पर निवास करने वाला” । मिथिला के निवासियों के साथ यह अर्थ चरितार्थ होता है क्योंकि यहाँ छोटी-बड़ी नदियों का बाहुल्य है, जिसके कारण यहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ का ताण्डव घटित होता है।- कालान्तर में कर्नाटक के युवराज नान्यदेव ने 11वीं सदी में तिरहुत में अपनी राजधानी स्थापित की। नान्यदेव तथा उनके परवर्ती शासकों के सत्ताकाल में तिरहुत का अमेय, उत्कर्ष हुआ तथा दर्शन, विधि और साहित्य के संदर्भ में इसने विश्वव्यापी ख्याति का समार्जन किया। कर्णाटकाल (वर्ष 1097 ई. से 1324 ई.) मिथिला में संस्कृत भाषा में एक से बढ़कर एक रचनाओं का निर्माण हुआ। मिथिला दर्शनशास्त्र का केन्द्र बन गया ।
उदयनाचार्ज द्वारा संस्कृत में रचित “कुष्मांजलि” इस समय के महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक था। जिसके बाद इस रचना से कई संस्कृत ग्रंथों का जन्म हुआ।- यह कर्णाटकाल ही था जब मिथिला में मैथिली भाषा और मैथिली साहित्य का आगाज हुआ तथा कुछ विकास भी हुआ। मिथिला में संस्कृत भाषा का प्रभाव मैथिली भाषा के विकास में सहयोगी साबित हुआ।
पंडित जोतिरीश्वर ठाकुर द्वारा कृत “वर्ण रत्नाकर’ मैथिली भाषा का प्रथम गद्य माना गया है जो इसी काल में लिखा गया। जोतिरीश्वर ठाकुर द्वारा की गई दुसरी रचना “धूर्त समागम नाटक” में मैथिली गीत के प्रारंभिक स्वरूप मिलते है।
प्राकृतपैंगलम में मैथिलीपद्य से मिथिला के ग्राम जीवन की झलक मिलती है। इस समय मैथिली के मशहूर लेखक डाक और घाघ के द्वारा लिखा गया कृषि सूत्र भी मैथिली भाषा के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ।
कर्णाटवंशी शासकों द्वारा नेपाल पर विजय प्राप्त करने के फलस्वरूप मिथिला की तरह ही नेपाल में भी मैथिली भाषाओं में कई रचनाँए प्रतिपादित हुई, इसमें नेपाल के मैथिल विद्वानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
– सन् 1324 ई. में यहाँ मुस्लिमों का आधिपत्य स्थापित हुआ। कुछ ही समय पश्चात् फिरोज शाह तुगलक ने तिरहुत का साम्राज्य कामेश्वर ठाकुर ( ओइनवार वंशीय मैथिल ब्राम्हण) को अभ्यर्पित कर दिया। कामेश्वर ठाकुर के उत्तराधिकारियों ने लगभग दो शताब्दियों तक इसके शासन-सूत्र का धारण-संचालन किया। ओइनवार वंशीय शासनकाल में मैथिली भाषा तथा मिथिला के वैदिक परंपरा में इस वंश के शासकों के द्वारा सहयोग तथा उत्साह वर्धन के कारण काफी समृद्धि मिली। ओइनवार वंशीय राजा शिव सिंह (1404 ई से 1410 ई) के दरबार में विद्यापति राजकवि के साथ-साथ राज पुरोहित थे । राजा शिव सिंह विद्यापति की विद्वता व चातुर्य को देखकर तथा मुस्लिम आक्रमण की बारंबारता को देखते हुए विद्यापति को राज मंत्री व सेनापति का भी कार्यभार दिया।
मुस्लिम आक्रमण की गंभीरता को देखते हुए विद्यापति ने मिथिला समाज को संगठित करने हेतु तथा मिथिला की अस्मिता रक्षा हेतु जनसामान्य भाषा मैथिली को पल्लवित व पुष्पित करने लगे। इस समय तक संस्कृत भाषा मिथिला के बुद्धजीवी वर्गों की भाषा थी जिनकी संख्या कम थी, जबकि सामान्य जनों की भाषा मैथिली का पूरे समाज पर पकड़ थी। इसलिए विद्यापति द्वारा मैथिली में सैंकड़ों छोटे-छोटे गीत जिन्हें मैथिली पदावली कही जाती है की रचनाएं की गई।
विद्यापति द्वारा मिथिला में धार्मिक व सांस्कृतिक चेतना को जगाते हुए सामाजिक संगठन को मजबूत करने के उद्येश्य से धार्मिक आस्था और भक्ति भावना से जुड़े मैथिली पदावलियों की रचना की गई विद्यापति ने अपनी कुल देवी (विसईवार वंश) भगवती जिनके शक्ति उपासक के रूप में गोसाउनिय गीत “जय जय भैरवि” की रचना की तो मिथिला में उस समय समस्त समाज में स्वीकार्य और सर्वमान्य शिवभक्ति पदावली की रचना प्रचुर मात्रा में की। कुछ श्रृंगारिक रचनाएं राधा-कृष्ण के प्रेम को दर्शाते हुए भी की गई है। ये मैथिली पदावलियों सोच विचार करके ही छोटी-छोटी रखी गई ताकि मिथिला के जनसामान्य इन्हें सुनकर याद कर अपने दैनिक जीवन में गा सकें इसलिए इस कालखण्ड में विद्यापति न केवल मैथिली भाषा व मैथिली साहित्य को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिए बल्कि खुद वे “राज कवि” से “जन-कवि” व “कविकोकिल” बन गए। – पुनः मुसलमानों (मुगल वंशीय) ने सत्तार्जन में सफलता पायी।
– परन्तु महेश ठाकुर की विद्वता से प्रभावित होकर मुगल बादशाह अकबर ने मिथिला राज उन्हें उपहार स्वरूप अर्पित किया। महेश ठाकुर ने खण्डवला वंश की स्थापना की। इसकी स्थापना का श्रेय श्री महेश ठाकुर जो प्रकाण्ड विद्वान थे तथा उनके शिष्य श्री रघुनंदन भी महान विद्वान और वाक्पटु थे, को जाता है। इन दोनों की विद्वता की चर्चा उन दिनों पूरे देश में होती थी जिसका प्रमाण मुगल शासक मानिसिंह के द्वारा दिल्ली के मुगल बादशाह अकबर के पास पहुँचा।
अकबर (1556 ई. से 1605 ई. तक) ने 1577 ई. में पंडित महेश ठाकुर को उनकी विद्वता से प्रसन्न होकर मिथिला का करद् राजा घोषित किया। खण्डवला – वंश जो “दरभंगा राज” से पूरे भारत में जाना जाता है, वह मिथिला के अधिकांश भाग पर करद् राजा के रूप में मुगल काल से लेकर ब्रिटिश काल तक आसीन रहा तथा मिथिला को अपने विद्वता और चातुर्य के बल पर बाहरी आक्रांताओं से बचाते हुए मिथिला की वैदिक व सनातन धर्मी परंपरा को अक्षुण रखने में मददगार साबित हुआ।
खण्डवला वंश के शासनकाल में भी मैथिल ब्राम्हणों के एक से एक शासक हुए जो मिथिला में समय की माँग को देखते हुए मैथिली भाषा, हिन्दी भाषा तथा अंग्रेजी भाषा में उपनिषद, धार्मिक ग्रन्थो इतिहास की किताबों, तंत्र विद्याओं संगीत विद्याओं तथा विज्ञान से संबंधित पुस्तकों की रचना में मददगार साबित हुए। इससे मिथिला में प्राच्य संस्कृत शिक्षा के साथ-साथ अंग्रजी और हिन्दी में भी शिक्षा का माहौल बना और विस्तार हुआ।
– अंग्रजी शासन आरंभ होने के पश्चात् देश में अंग्रजी शिक्षा का प्रचार प्रसार होने लगा क्योंकि उससे रोजगार की समस्या का हल मिल रहा था किन्तु मैथिलों ने अंग्रेजी शिक्षा को भी महत्व देते हुए संस्कृत शिक्षा की परंपरा का त्याग नहीं किया। फलतः जनक सीता और याज्ञवल्क की भूमि मिथिला संस्कृत साहित्य सृजन क्षेत्र में नाना प्रकार की बाधाओं के होते हुए भी देश के अन्य भागों से शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षाकृत आगे रही।
मिथिला के कई विद्वान का संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा पर उत्कृष्ट पकड़ थी, उनमें से कतिपय विद्वानों ने अंग्रेजी के माध्यम से संस्कृत साहित्य की सेवा की। डॉ. गंगानाथ झा, सर अमरनाथ झा आदि अनेक विद्वानों का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। आज भी संस्कृत भाषा एवं साहित्य को अपनी असीमित मेघा से महिमा मंडित करने में मिथिला के अनेक विद्वान अनथक गति से सक्रिय हैं। इन पर हमें गर्व है और हम इनके प्रति आभार नत हैं।
– शंकर झा