बिहार राज्य के सुदूर मधुबनी जिलान्तर्गत ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े गुदरी के लाल दिगम्बर झा आंग्ल भाषाई शिक्षा में एम.ए. तथा शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त थे। इन्हें महाविद्यालय की पढ़ाई पूरा करने के लिए ट्यूशन पढ़ाकर धन अर्जन करना पड़ा। शिक्षण योग्यता हेतु प्रशिक्षण (टी.सी.) प्राप्त कर लेने से एक शिक्षक के रूप में मुजफ्फरपुर व पटना के विद्यालयों में शिक्षकत्व की भूमिका अदा किए। यूँ कहें कि एक योग्य शिक्षक बनने के लिए वे आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष किए।
जीवन काल
(सितम्बर 1915-जुलाई 2007)
‘‘आंग्ल भाषा व विज्ञान आधारित शैक्षणिक संस्था के
संस्थापक सितारा‘‘
बाद में बाबूबरही (जिला मधुबनी) में उच्च विद्यालय की स्थापना होने के उपरांत पटना के विद्यालय से पद त्याग दिए, तथा अपने पैतृक गांव अंधराठाढ़ी के नजदीक स्थित बाबूबरही उच्च विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में अपना योगदान देना प्रारम्भ किए। उन दिनों अच्छी सड़क व रेल मार्ग के अभाव में पटना जाना भी दुरूह था। उच्च विद्यालय बाबूबरही में श्री झा का प्रभावशील शिक्षकत्व गुण के कारण कुछ ही बरस में यश कीर्ति स्थापित हो गया और वे एक लोकप्रिय छात्र वत्सल शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
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ग्राम अंधरा के शिक्षा प्रेमी कर्मठ व्यक्तित्व के धनी श्रीकान्त चौधरी जो अंधरा में मध्य विद्यालय की स्थापना करवा चुके थे, उनके मन में एक उच्च विद्यालय अंधराठाढ़ी में भी स्थापना करने का विचार आया। श्री चौधरी का बाबूबरही उच्च विद्यालय आना-जाना लगा रहता था, अतः बगल गांव ठाढ़ीवासी शिक्षक दिगम्बर झा से भी उनकी मुलाकात अक्सर हुआ करती थी। श्रीकान्त चौधरी जी ने एक दिन श्री झा के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर आपके जैसे योग्य शिक्षक प्रधानाध्यापक की महती जिम्मेदारी को स्वीकार करें तो वे अंधराठाढ़ी में उच्च विद्यालय प्रारम्भ करने की पहल करेंगे। इस पर श्री झा का सकारात्मक जवाब पाकर श्रीकान्त चौधरी उच्च विद्यालय खोलने सैद्धान्तिक माहौल अंधराठाढ़ी में बनाना प्रारम्भ कर दिए। आर्थिक रूप से अत्यन्त पिछड़ा (बाढ़ की विभीत्सिका, सुदृढ सड़क मार्ग का अभाव, रेल मार्ग का अभाव, बाजार का अभाव) अंधराठाढ़ी का उस ग्रामीण परिवेश में 2 प्राच्य विद्या आधारित संस्कृत की पाठशाला तो थी, परन्तु आंग्लभाषा आधारित व आधुनिक विज्ञान आधारित शिक्षा व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं था, डिबिया युग का धुप्प अंधेरा पसरा था। ऐसी काली अंधेरी युग में जब कुछ लोगों ने उच्च विद्यालय खोलने की बात किए तो पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ । आम लोगों की प्रतिक्रिया थी कि आंग्लभाषा व विज्ञान आधारित उच्च विद्यालय का खुलना यहां असंभव है। परन्तु शाश्वत सत्य है कि अंधेरे-क्षितिज से ही सुदूर देदीप्यमान सूरज के उगने की प्रथम लालिमा दिखाई देती है। अंधराठाढ़ी के शिक्षण जगत के नभोमण्डल पर उच्च विद्यालयीन सूरज को प्रगट करने के पूर्व लालिमा बिखेरने का काम किया, कुछ शिक्षण योगियों ने जिनमें से कुछ प्रमुख थे – दिगम्बर झा, रामफल चौधरी, महात्मानन्दीश्वर झा, पण्डित सहदेव झा और कालीकान्त झा।
परन्तु उच्च विद्यालय के लिए जमीन (कम से कम 8-10 एकड़) कक्षाओं व प्रशासकीय कार्यों हेतु कमरों की व्यवस्था, छात्रावास की व्यवस्था, लेबोरेटरी की व्यवस्था में अत्यधिक रूपये की आवश्यकता थी, जिन्हें चंदा के बदौलत इकट्ठा करना बड़ी समस्या थी तथा काफी समय लगना लाजिमी था। अतः अर्थाभाव को देखते हुए निर्णय लिया गया कि अंधरा मध्य विद्यालय प्रांगण स्थित रिक्त जमीन पर दो कच्चा कमरा बनाकर उच्च विद्यालय प्रारम्भ कर दी जाए। धीरे-धीरे जमीन, कक्षाओं हेतु कमरों आदि की व्यवस्था चन्दा मांगकर पूरी की जायेगी। उपर्युक्त शिक्षण योगियों ने आपस में परामर्श कर वर्ष 1950 ई. के जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में उच्च विद्यालय प्रारम्भ करने का मन बना लिया। परन्तु लक्ष्य बड़ा था तथा अर्थ व माहौल का अभाव था, अतः यह नेतृत्व टीम अपने उद्देश्य से पीछे न हटने की शपथ लेने एक मानसिक व धार्मिक निर्णय लिया जो उच्च विद्यालय की स्थापना में मील का पत्थर साबित हुआ। वर्ष 1950 ई. के जनवरी माह के प्रथम सप्ताह के शुभ-लग्न में पाँच शिक्षण योगियों क्रमशः दिगम्बर झा, महात्मा नन्दीश्वर झा, श्रीकान्त चौधरी, कालीकान्त झा और पं. श्री सहदेव झा, अंधराठाढ़ी के कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर पहुँच गए। अंधरा मध्य विद्यालय के प्रांगण स्थित उस बेल पेड़ के पास जहाँ ठाढ़ी दुर्गा पूजा का विल्वाभि निमंत्रण का धार्मिक अनुष्ठान हुआ करता था; अर्थात पेड़ के रूप में साक्षात माँ दुर्गा का स्वरूप । पाँचों कर्म योगियों ने उस बेल पेड़ को संकल्प बैठक का सभापति मानते हुए अन्य ग्रामीणों के सामने संकल्प प्रस्ताव पारित कर, मंगलाचरण गायिकी किए तथा कृत संकल्पित हो गए उच्च विद्यालय खोलने हेतु। मिथिला जहाँ शक्ति के उपासक सबसे ज्यादा पाये जाते हैं, माँ दुर्गा जहाँ घट-घट में बसी हुई हैं, वहाँ साक्षात दुर्गा की शक्ति स्वरूपा विल्व वृक्ष की अध्यक्षता में संकल्प वास्तविकता के धरातल पर अवतरित होना सुनिश्चित हो गया। माता रानी की प्रेरणा से देखते ही देखते भू-दाता (क्रमशः मथुरा प्रसाद महथा व महन्त राजेश्वर गिरि) आर्थिक सहयोग कर्ताओं (क्रमशः महन्त राजेश्वर गिरि, मथुरा प्रसाद महथा, भोला महथा, चुनचुन मिश्र, परमेश्वर नारायण महथा, मोसाहेब कामत, फतनेश्वर मिश्र, बिरेन्द्र मिश्र, मधुलाल मिश्र, बद्री ठाकुर, लक्ष्मी नारायण साहु, पंडित नन्दीश्वर झा, मधुसूदन चौधरी आदि) अपने आप हाई स्कूल की स्थापना की शुभ यात्रा में जुड़ते गए, महफिले कारवाँ सजता गया। अंधराठाढ़ी व पास के गॉवों से भी दान- दाताओं की झड़ी लग गयी।
अंधराठाढ़ी में स्थापित विद्याप्रभा विकीर्ण करने वाली संस्था म.रा.गिरि उच्च विद्यालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक दिगम्बर झा जो इस विद्यालय में अद्भुत शैक्षणिक योग्यता के बल पर जुड़े, परन्तु संस्थापना काल से पूर्ण स्थापना काल तक के झंझाबातों को व्यवस्थित करते करते, इस संस्था को प्रदेश स्तर पर आंग्ल भाषा व विज्ञान आधारित शिक्षा व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्तम्भ बनाने तक, अपनी प्रशासनिक क्षमता को सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा दिया, जिसकी आभा से चमत्कृत होकर अंधराठाढ़ी उच्च विद्यालय के परिधि में स्थित सैकड़ों गांव के बच्चे अपनी-अपनी उच्च शिक्षा यहां से प्राप्त करने लगे तथा देश के विभिन्न प्रतिष्ठित महाविद्यालयों तक पहुँचकर प्रतिष्ठित पदों यथा अभियंता, डॉक्टर, विख्याता व प्रशासनिक अधिकारी बनने लगे परन्तु ये सभी अपने गुरू प्रवर दिगम्बर झा के सानिध्य पाते ही चरणास्पर्श कर आशीष लेना नहीं भूलते। दिगम्बर झा के शैक्षणिक क्षमता व प्रशासनिक योग्यता की डंका जिला व प्रदेश स्तर पर बजने लगी। जिसकी चर्चा कई दशक बीतने के बाद भी होती है । म.रा.गि.उच्च विद्यालय अपने 27 वर्षों की यात्रा में शिक्षा जगत में कई कीर्तिमान स्थापित कर दिया तथा दिगम्बर झा अपनी सेवावधि पूरी कर शासकीय नियमानुसार अवकाश प्राप्त किए। परन्तु अवकाश प्राप्ति अपरांत भी झिंगुर कुंवर (तत्कालीन प्रधानाचार्य दरभंगा पब्लिक स्कूल, दरभंगा) के अनुरोध पर दिगम्बर झा दरभंगा पब्लिक स्कूल में शिक्षण का कार्य किया तथा पुनः अंधराठाढ़ी पब्लिक स्कूल के प्रबंध कमिटी के आग्रह पर अंधराठाढ़ी पब्लिक स्कूल में निदेशक के पद को सुशोभित करते अवकाश प्राप्त करने के उपरांत लगभग ढ़ाई दशक तक शिक्षण का कार्य किया। शैक्षणिक कार्य वे लगभग साढ़े पॉंच दशक तक संपादित किये। श्री झा माँ ठाढ़ी परमेश्वरी के आशीष से सिंचित धवल ग्राम के शैक्षिक कायनात का मूर्धन्य सितारा थे, जिनके जिव्हा पर माँ सरस्वती का वास था । इंग्लिश ग्रामर के पार्ट्स ऑफ स्पिच हो, नैरशन हो, वाईस हो, आर्टिकल्स हो या टेन्स हो, इंग्लिश डिक्शनरी के वोकेबलरी हो सारा का सारा धारा प्रवाह । उच्च विद्यालय में किसी भी विषय का शिक्षक के अनुपस्थिति पर खुद कक्षा लेने हाजिर। विरले मिलेंगे ऐसे विद्या वारिधि 4 शिक्षक तथा अब तो मुमकिन नहीं कि प्रधानाध्यापक उच्च विद्यालय में खुद पढ़ायें । अर्थात मिथिला के शैक्षिक नभोमण्डल का जाज्ज्वलयमान मूर्धन्य सितारा एक बार शिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया तो जीवन पर्यन्त कर्तव्य पथ पर अथक गमन करता रहा, अस्त हुआ तभी जब कैवल्य धाम में बुला लिया गया। श्री झा विद्यानुरागी थे तथा मैथिली
वांड्मय के परिपोशक थे, तभी तो अपने व्यस्ततम जीवन-चर्या से समय निकालकर मैथिली साहित्य की श्री वृद्धि हेतु दो अमरकृतियां क्रमश: संजय ऊवाच – मैथिली महाभारत तथा परित्राणाय्-साधुनाम् की रचना समर्पित कर दिये ।
अतः श्री झा के जीवन वृतांत से स्पष्ट है कि विद्या, विद्वानों और दर्शनशास्त्रों के धवल धाम मिथिला जो आध्यात्म, संस्कृति, और कला की पीठ स्थली रही है, तथा जो महाश्वेता भगवती भारती का ललित ललाम का लीला क्षेत्र है, के शैक्षणिक कायनात पर श्री झा एक देदीप्यमान नक्षत्र थे।
पांच दशक तक मिथिला में ज्ञान की रश्मि बिखेरने वाला प्रकाष स्तम्भ थे । भले ही वे अब हमारे बीच नहीं है, परन्तु उनके द्वारा मिथिला के शिक्षा जगत् में खींची गई चमकीली रेखा की आभा कभी म्लान नहीं होगी, आने वाली पीढि़यों के शिक्षाविद् उनकी जीवनी से प्रेरणा लेते रहेंगे तथा मिथिला के शैक्षिक श्वेत पटल पर रंग बिरंगी लकीरें खींच, सतरंगी इन्द्रधनुष उकेरते रहेंगे। भगवती भारती के वरद्पुत्र श्री झा पर
शैक्षिक जगत यावच्चन्द्रदिवाकरौ गर्व करती रहेगी ।
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)