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जज्बे को सलाम :: दरभंगा के युवा किसान धीरेंद्र ने आपदा को अवसर में बदलकर खेती में पाई सफलता

सौरभ शेखर श्रीवास्तव की ब्यूरो रिपोर्ट दरभंगा। प्रतिवर्ष नदियों में आने वाली बाढ़ ने जब किसानों को नुकसान पहुँचाया, तो इसी कड़ी में दरभंगा जिले के जाले प्रखण्ड के बेलवाड़ा गाँव के एक युवा किसान ने आपदा को नवाचार से अवसर में बदल दिया। जलीय कृषि की शुरूआत की और मखाना व काटा रहित सिंघाड़े की खेती से बाढ़ से हुए नुकसान को अवसर में बदल दिया। उन्होंने कहा कि 100 से अधिक किसान इस खेती को अपना चुका है।

 

दरभंगा के बेलवारा गांव के धीरेंद्र कुमार कृषि से विमुख किसानों को राह दिखा रहे हैं। वह आज युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने हैं। इनके बताए वैज्ञानिक विधि को अपनाकर सैकड़ों किसान खेती किसानी से अच्छी आमदनी प्राप्त कर रहे हैं।

 

धीरेंद्र प्रगतिशील नवोन्मेषी तथा पीएचडी हैं। पिछले पांच-छह सालों से खेती में नित्य नए प्रयोग कर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सफलता की मिसाल कायम कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र में धीरेन्द्र को एक दर्जन से अधिक पुरस्कार मिला है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा (नई दिल्ली), डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर) द्वारा अभिनाव किसान पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।

 

 

बाढ़ और सुखाड़ से जो किसान खेती छोड़ मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में चले गए थे। वे किसान भी लौटकर जल अधारित कृषि कर रहे है। ये सब युवा किसान धीरेन्द्र कुमार की प्रेरणा से संभव हुआ है।

 

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उन्होंने कहा कि बाढ़ के दौरान खेतों में 10 से 12 फीट जल जमाव हो जाता था। लम्बे समय तक पानी ठहरने से खरीफ फसल (धान) नष्ट हो जाती थी। ऐसे में खरीफ के विकल्प के लिए मखाना और सिंघाड़े की खेती काफी उपयुक्त साबित हो रही है।

 

उन्होंने कहा कि वर्ष 2019 में शुरू की मखाने की खेती और उसी समय से खेती में नफा और नुकसान की जानकारी प्राप्त हुआ। 2006 में 12वीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद कृषि क्षेत्र में ही कैरियर बनाने का लक्ष्य तय किया।

 

वर्ष 2019 में मखाना अनुसंधान संस्थान, दरभंगा द्वारा विकसित मखाने के स्वर्ण वैदही प्रभेद की आधा एकड़ खेत में प्रयोगिक तौर पर खेती की, धीरेन्द्र के लिए पहला अनुभव था। गाँव, समाज में कहा जाने लगा कि मखाने की खेती आसान नहीं है, लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर परिश्रम से असंभव को संभव कर दिखाया।

 

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श्री कुमार ने कहा कि जिस खेत में मखान और सिंघाड़े की फसल होती है, वहाँ बाढ़ के साथ आई मछलियाँ भी जमा हो जाती है, जिससे माह अक्टूबर / नवम्बर में रबी फसल की बोआई से पहले मछली से आय भी प्राप्त कर लेते हैं।

 

एक एकड़ में मखाना, सिंघाड़ा और मछली से एक लाख रूपये से अधिक आय सिर्फ खरीफ सीजन में हो जाती है। उसी खेत में रबी सीजन में गेहूँ, दलहन, तिलहन व मवेशी के लिए हरे चारे की फसल हो जाती है। साथ ही मखाना, सिघाड़ा के पौधे गलने के कारण खेतों की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।

 

 

विश्वव्यापी कोरोना महामारी (आपदा) के दौरान जब लोग बेरोजगार होकर गाँव आए, तो खेती एक मात्र सहारा थी, ऐसे में लोगों को मखाने की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। बिहार सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी जुटाई। मखाने के दो प्रभेद स्वर्ण वैदही तथा सबौर मखाने की खेती शुरू की।

 

धीरेन्द्र ने बताया गया कि बिहार सरकार के उद्यान विभाग को मखाना बीज उपलब्ध कराते है। उसी बीज का मखाना विकास योजना अन्तर्गत राज्य भर में वितरण किया जा रहा है। देश के अन्य राज्यों में भी भेजा रहा है।

 

 

उन्होंने कहा कि अनाज के पुराने प्रभेद जिनकी खेती कम हो रही है, वे विलुप्त हो रहे है, उनको भी संरक्षित कर रहे है। बेकार पड़ी बंजर जमीन पर बाँस की खेती तथा श्री अन्न की खेती को बढ़ावा दे रहे है। उन्होंने किसानों से रसायनिक खाद और कीटनाशक का कम से कम प्रयोग करने की अपील भी करते है। उन्होंने स्वयं द्वारा बनाई जैविक खाद और कीटनाशक का फसलों में इस्तेमाल करते है। साथ ही इस तकनीकी के बारे किसान को बताते भी हैं।

 

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