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श्रीधर दास – चाणक्य की भूमिका में

शंकर झा की कलम से : मिथिला जिसे प्राच्य इतिहास काल में विदेह व तिरहुत के नाम से भी जाना जाता था, उसका सामाजिक व सांस्कृतिक विकास सूर्यवंशीय क्षत्रिय इक्ष्वाकुवंशीय ( जनक वंशीय) शासन काल के लम्बी अवधि के बाद कर्णाट वंशीय शासन काल में सर्वाधिक हुआ, विकास का चरोत्कर्ष प्राप्त किया।

Author Shankar Jha

-महाकाव्यकाल (रामायण काल, त्रेता युग) में जनक-वंशीय शासन काल में मिथिला का सौंदर्ययुक्त संस्कृति थी मिथिलावासी सुसम्पन्न थे। शासन व प्रशासन व्यवस्था प्रजा वत्सल और कल्याणकारी थे, समाज में हर्षोउल्लास व्याप्त था।

-परन्तु उसके बाद भारतीय इतिहास का लम्बा काल खण्ड में मिथिला का सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक विकास का क्रम काफी धीमा पड़ गया।

कमलादित्य स्थान अंधराठाढ़ी

-लेकिन सौभाग्यवश, ग्यारहवीं सदी के अंत में (1097 ई. में) एक नया शासन व्यवस्था की नींव पड़ी और यह व्यवस्था लगभग 228 वर्षों तक न केवल सशक्त रूप से चली बल्कि यह व्यवस्था मिथिला को प्रशासनिक, सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक विधाओं को चरमोत्कर्ष पर पहुँचायी जिसे कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था कहते हैं।

-कर्णाटवंशीय शासकों के नेतृत्व में मिथिला, सभ्यता और संस्कृति का उपमेय केंद्र बन कर विकसित हुआ, जो परवर्ती काल में न केवल बिहार का बल्कि सम्पूर्ण भारत वर्ष को प्रभावित व गौरवान्वित किया। कर्णाट वंशीय सशक्त व सकारात्मक शासन व्यवस्था भारतीय मानचित्र में मिथिला को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में सम्मान का स्थान दिलाने में कामयाब रही। कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था की स्थापना नान्यदेव के द्वारा की गई थी। नान्यदेव एक कुशल योद्धा, सेनानायक, रणनीतिकार, राजनीतिकार, संगीतज्ञ व सनातन धर्म प्रेमी थे इनके द्वारा स्थापित शासन व प्रशासन व्यवस्था इतना सुसंगठित थी कि वह लगभग 228 वर्षों तक चलती रही। इस काल-खण्ड (जो भारत का मध्य युगीन काल खण्ड था, जिनमें भारत के अन्य भू-भागों में विभिन्न बाह्य आक्रांताओं के आक्रमणों व लूट को देश झेल रहा था) में भी मिथिला में सशक्त प्रशासन व स्वच्छ राजनीति देकर मिथिला की कला शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति को नई ऊँचाई दी। साथ ही मिथिला क्षेत्र को उन बाहरी आक्रमणों से बचाकर इसकी विशिष्ट सभ्यता को अक्षुण्ण रख सका। कर्णाट वंशीय राजा जो दक्षिण भारत के कर्णाट भू-भाग के थे, परन्तु विस्तारवादी रणनीति के तहत बिहार के उत्तर-पश्चिमी भू-भाग के तरफ आए थे, तथा इन्हें यहाँ शासन व्यवस्था स्थापित करने का मौका मिला। कर्णाट वंशीय शासक इस दृष्टिकोण से भाग्यशाली थे कि उन्हें तत्कालीन मिथिला के कुछ मूल वासिन्दों, जो अति कुशल राजनीतिकार रणनीतिकार विद्वान व शास्त्रज्ञ थे, का सहयोग मिला। शासक वर्ग भी इन मैथिलों की कुशलता को सलाम कर ससम्मान अपने राजदरबार में स्थान देकर विभिन्न पदों (मंत्री प्रधानमंत्री / महामत्तक आदि) पर रखे। तत्कालीन मिथिला के सामाजिक व शैक्षिक परिवेश के अनुसार दो वर्ग क्रमशः ब्राम्हण व कायस्थ को इन राजाओं के दरबार में मंत्री / प्रधानमंत्री / परामर्शदाता के रूप में अत्यधिक स्थान मिले। मिथिला के मूल वासी ये परामर्शदातागण इतने योग्य व कर्मठ थे कि कर्णाट शासन काल में अच्छी-अच्छी नीतियाँ, विकास योजनाएँ व युद्ध रणनीति बनाए, अमल में लाए जिससे यह शासन व्यवस्था पूरे भारतवर्ष में अनुपमेय बन गयी।

-इन्हीं परामर्शदायी प्रधानमंत्री / मंत्री / महामत्तक में से एक थे श्रीधर दास

श्रीधर दास की सेवा प्रधानमंत्री के रूप में, कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था के संस्थापक श्री नान्यदेव को मिली। साथ ही नान्यदेव के बाद उनके उत्तराधिकारी पुत्र गंगदेव को भी मिली।

श्रीधर दास के परिवार के विद्वत सदस्य कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था के पूर्व सेन वंशीय शासकों को भी अपनी सारस्वत सेवा दिए थे। श्रीधर दास भी सेन वंश के शासकों को अपनी सेवा नान्यदेव के आगाज के पूर्व दिए थे और सेन शासक के दरबार के वे महामण्डली के पद पर आसन्न थे। श्रीधर दास के वंशज सूर्याकार को हरिसिंह देव के शासन काल में प्रसिद्धि मिली थी। कायस्थ विद्वान रत्नदेव का परिवार भी कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था में अहम भूमिका निभायी। कायस्थ विद्वानगण अपनी कुशलता के बल पर राजाओं को अतिमहत्वपूर्ण विषयों पर परामर्श देते थे। इसका उल्लेख चण्डेश्वर ठाकुर कृत राजनीतिरत्नाकार में मिलता है।

अंधराठाढ़ी अभिलेख

श्रीधर दास से संबंधित अकाट्य प्रमाण हैं कर्णाट वंशीय शासन काल का “अंधराठाढ़ी अभिलेख” अंधराठाढ़ी अभिलेख ने इस ऐतिहासिक घटना पर से संशय का बादल हॅटा कर प्रमाणित कर दिया कि नान्यदेव का राज्यारोहण वर्ष 1097 ई. था, तथा नान्यदेव पाँच दशक तक ( 1097ई. से 1147 ई. तक ) मिथिला पर शासन किए। श्रीधर दास अंधराठाढ़ी अभिलेख में नान्यदेव को “श्रीमान नान्यपति की संज्ञा से संबोधित किए हैं और उन्हें विजेता व गणरूपी रत्न की संज्ञा दिए ।

मिथिला के उद्भट विद्वानों व रणनीतिकारों में से एक श्रीधर दास न केवल कर्णाट-प्रांत से आए क्षत्रिय शासक (सूर्यवंशीय क्षत्रिय) के संस्थापक नान्यदेव के प्रिय प्रधानमंत्री / मंत्री थे बल्कि वे एक कुशल योद्धा, योग्य कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, उद्भट वास्तुविद् और प्रशासक थे।

श्रीधर दास अपनी कार्य कौशलता के बल पर कर्णाट वंश के पूर्व सेन वंश के शासकों को भी सेवायें दे रहे थे। एकबार एक घटना घटी कि बल्लाल सेन (बंगाल के शासक ) को भ्रम हुआ कि श्रीधर दास लक्ष्मण सेन (बल्लाल सेन का पुत्र जो मिथिला का शासक था) से उनका संबंध बिगाड़ना चाह रहा है। इसलिए बल्लाल सेन श्रीधर दास को संशयवश राज्य से बिना पूर्व सूचना की निष्कासित कर दिया। इससे श्रीधर दास अपमानित महसूस किए और आक्रोशित हो गए। इसी क्रोध में श्रीधर दास ने कर्णाटवंशीय सेनापति श्री नान्य देव (जो उस समय सेन वंश को मिथिला से उखाड़ना चाह रहे थे) को इन सेन वंशीय राजाओं की कमजोरी उजागर करते हुए उन्हें रण में हराने की रणनीति बनाकर नान्यदेव को सौंपा। नान्यदेव को इसी मौके की तलाश थी। नान्यदेव अपने नए रणनीतिकार की मदद से लक्ष्मण सेन के विरूद्ध लड़ाई छेड़ दिया तथा सेन वंश के मिथिला शासक को परास्त कर (दूसरी बार में) कर्णाट वंशीय शासन की स्थापना की। नान्यदेव की जीत व कर्णाट वंश की स्थापना की खुशी में श्रीधर दास ने अंधराठाढ़ी के कमलादित्य स्थान में विष्णु की मूर्ति (काला पाषाण पर) खुदवाकर उसके पादपीठ पर शिला श्लोक अंकित करवाया जो इस प्रकार है :

ॐ श्रीमन्नान्यपतिर्जेता गणरत्न महार्णवः

यत्कीर्त्या जनितो विश्वे द्वितीयः क्षीरसागरः

मन्त्रिणा तस्य नान्यस्य क्षत्रवंशाब्ज भानुनः

देवोयम् कारितः श्रीमान श्रीधरः श्रीधरेण च ।।

कमलादित्य स्थान अंधराठाढ़ी के संस्थापक श्रीधर दास एक साहित्यकार व महान कवि भी थे वे संस्कृत भाषा के भी विद्वान थे जो कमलादित्य स्थान के मंदिर में स्थित “श्रीधर ” नाम के विष्णु की मूर्ति की स्थापना करते समय शिलापट्ट पर संस्कृत का श्लोक उट्टकित करवाए थे, को देखकर स्पष्ट हो जाता है। भगवान लक्ष्मीनारायण (विष्णु) एवम् भगवान दिवाकर (सूर्य) की मूर्ति के शिलापट्ट (काला पाषाण पर ) पर उल्लेखित संस्कृत श्लोक से स्पष्ट है कि वे संस्कृत भाषा पर मिथिला के ब्राम्हण पंडितों की तरह पकड़ रखते थे साथ ही संस्कृत भाषायी ज्ञान में वे कितने निपुण थे इसकी झलक उनके द्वारा रचित विश्व विश्रुत रचना सदुक्ति कर्णामृत” नाम के काव्य ग्रंथ से भी मिलती है। इसकी रचना इनके द्वारा वर्ष 1127 ई. के आस-पास की गई थी। श्रीधर दास के वंश में कई विद्वान और हुए, जिनमें से मुंशी रघुनन्दन दास, अमृतकर आदि प्रसिद्ध हुए। आज भी उस वंश (बलाइन वंश) के कायस्थ अंधराठाढ़ी में हैं।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि मिथिला का सामाजिक, आर्थिक तथा सबसे अधिक सांस्कृतिक (कला व शिक्षा के क्षेत्र में) विकास जनक वंशीय शासन काल के बाद कर्णाट वंशीय शासन काल में ही हुआ। कर्णाट वंशीय शासन काल में मिथिला का सांस्कृतिक उपलब्धि पूरे बिहार व भारतवर्ष को चमत्कृत कर दिया तथा सभी क्षेत्रों के लिए अनुकरणीय सावित हुआ।

परन्तु जिस प्रकार चाणक्य के शिक्षा-दीक्षा व रणनीति के बिना चन्द्रगुप्त के बदौलत मौर्य शासन की स्थापना नहीं कर सकते थे, उसी तरह सेन वंशीय मौर्य खुद शासकों से नान्यदेव (जो एक सेनापति की भूमिका मात्र में थे) बिना श्रीधर दास जैसे रणनीतिकार व परामर्शदाता के विजय प्राप्त नहीं कर सकते थे और अगर नान्यदेव विजयी नहीं होते, तो मिथिला में कर्णाटवंश स्थापित नहीं होता। अतः श्रीधर दास की भूमिका नान्यदेव को रणनीतिक सहयोग देकर कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था स्थापित करने, चाणक्य की भूमिका से कम नहीं। उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में श्रीधर दास को मिथिला के सारस्वत पुत्रों द्वारा “मिथिला का द्वितीय चाणक्य” की संज्ञा देना सर्वथा उचित है।

शंकर झा
वित्त नियंत्रक ( छ.ग. वित्त सेवा)
ग्राम अन्धराठाढ़ी
जिला – मधुबनी ( बिहार )

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