प्रसिद्ध लेखक शंकर झा की कलम से : मिथिला का अप्रतिम, वैदिक वांग्मय के फलक पर कई देदीप्यमान सितारे प्राच्य काल से अपनी चमक के बल पर चमत्कृत करते आए है. इसी क्रम में एक और रवि समान भासमान सितारा का आर्विभाव दसवी सदी (वर्ष 984 ई. में) में समस्तीपुर के करियन गाँव में हुआ जिनका नाम “उदयनाचार्य” था।
उदयनाचार्य माँ भारती के सारस्वतपुत्रों में महान पुत्र थे जो मिथिला के वैदुष्य परम्पराको सशक्त रूप से संरक्षित व सवंर्द्धित किए।उद्यनाच न केवल गौतम जनक याज्ञवल्क्य, मण्डन, वाचस्पति द्वारा स्थापित व पल्लवित मिथिला के अद्वैत वेदान को आगे बढ़ाया, बल्कि इनके समकालीन समय में बौद्ध, जैन व चार्वाक जैसे अनीश्वरवादी (नास्तिक) दर्शनों का अध्ययन कर उनके आक्रमण से मिथिला के परम्परागत आस्तिक दर्शनों का बचाव कर उसे और मजबूती प्रदान किए।
वे मिथिला में प्रचलित विभिन्न दर्शन शास्त्रों यथा मीमान्सा दर्शन, न्याय दर्शन, व्याकरण आदि शास्त्रों का अध्ययन कर कई नए सिद्धान्त व तर्कों को उद्भूत (उत्पन्न) किया। इन गहन अध्ययन व मनन के तप से उनके सिद्धान्त व तर्क इतनी मजबूती से उभरा कि वे कई बौद्ध धर्मावलंबियों व अन्य नास्तिक दर्शनाचार्यों के तर्कों को खण्डन कर उन्हें निरूत्तर कर देते थे। इस प्रकार के बौद्धिक बल व ब्रह्मज्ञान से सशक्त उद्यनाचार्य प्रज्ञा-जगत में शार्दूल की तरह गर्जना करने लगे। वे घोषणा करते है कि :- मैं व्याकरण, मीमांसा, न्याय (नव्य न्याय) आदि शास्त्रों के विषयों में जो सिद्धान्त प्रतिपादित करता हूँ, वही सिद्धान्त उस शास्त्र का सिद्धान्त है क्योंकि सूर्य जिस दिशा में उगती है, वही दिशा पूरब (पूर्व) दिशा होती हैं। यह कहना गलत है कि पूरब दिशा में सूर्य को उगना है। सूर्य दिशा के गुलाम नहीं है। अपितु दिशा ही सूर्य के गुलाम है अर्थात् सूर्योदय से ही दिशा का ज्ञान होता है।
आत्म विश्वास से लबरेज (लबालब ) व्यक्ति ही ऐसी दर्पयुक्त घोषणा कर सकता है। इस तरह की घोषणा करने वाला उद्भट मैथिल विद्वान का उदाहरण विश्व में कहीं नहीं न | भूतो न भविष्यति । सर्व तंत्र-स्वतंत्र, षड्दर्शन टीकाकार वाचस्पति मिश्र के बाद आस्तिक धर्मावलंबियों के उदयानाचार्य उद्भट विद्वान हुए। इन्होंने माँ भारती की वरदपुत्र के रूप में कई अप्रतिम ग्रंथों का सृजन कर आस्तिक मतावलंबियों को हजारों वर्ष का सारस्वत पाथेय ( रास्ता का भोजन) प्रदान किया है।
वाचस्पति मिश्र की रचना ” न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका ” की व्याख्या करते हुए उदयन ने तात्पर्य टीका की व्याख्या परिशुद्धि की रचना की। इसको लिखने का मुख्य कारण था ” कि दसवीं सदी में (वाचस्पति का समयकाल) बौद्धों के दो विश्वविद्यालयों क्रमशः नालन्दा विश्वविद्यालय तथा विक्रमशिला जो नालन्दा व भागलपुर में थे तथा मिथिला से निकट थे, उन विश्वविद्यालयों के प्रकाण्ड बौद्ध विद्वानों द्वारा राजा के सामने वैदिक विद्वानों से ईर्ष्यावश सारस्वत युद्ध का दिखावा करते थे। ताकि बौद्ध विद्वानों को राजा सम्मान कर सकें। बौद्ध विद्वान मिथिला के दर्शनों को खण्डन कर कमतर दिखाने के प्रयास में लगे रहते थे। इसके लिए बौद्ध विद्वान नए-नए सिद्धान्तों व तर्कों की रचना कर मिथिला के दर्शन शास्त्रों में प्रतिपादित सिद्धान्तों व तर्कों के खण्डन कर यश कमाने के फिराक में लगे रहते थे। अर्थात मिथिला वे दर्शन शास्त्रज्ञों व बौद्ध दर्शन (अनीश्वरवादी / चार्वाक दर्शन ) के विद्वानों में शाह-मात का शीत युद्ध चल रहा था। इसी दौरान नालन्दा (बौद्ध) विश्वविद्यालय के अध्यक्ष शान्तिरक्षित ने बौद्ध दर्शन के तहत एक ग्रंथ की रचना की जिसका नाम था तत्व संग्रह इस ग्रंथ में उसने कुछ सिद्धान्तों तर्कों के सहारे वाचस्पति मिश्र की “न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका” का खण्डन किया। परन्तु इसकी भनक मिलते ही उदयनाचार्य जैसे उभट चुप कैसे रहते। उन्होंने तात्पर्यटीका की व्याख्या परिशुद्धि की रचना कर शांतिरक्षित (बौद्ध दार्शनिक) के सिद्धान्तों व तर्कों का खण्डन अपने तर्क से कर दिया तथा वाचरिपति के मतों का भावार्थ ठीक से समझाते हुए स्पष्ट कर दिया कि बाचस्पति का मत सही व युक्ति युक्त है। यहीं कारण है कि उदयनाचार्य ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए बौद्धों को निरूत्तर करना आवश्यक समझा।- बौद्ध दर्शन के विद्वानों के तर्कों / सिद्धान्तों को खण्डन कर निरूत्तर करने, उदयनाचार्य को महसूस हुआ कि वेदान्त दर्शन का सिद्धान्त व तर्क उतने सक्षम नहीं है, उनकी सक्षमता को बढ़ाने न्याय दर्शन की आवश्यकता है क्योंकि बौद्ध दार्शनिक वेदान्त दर्शन 1 के अंतर्गत आने वाले अवयव “वेदादि-शब्द- प्रमाण ७ ( मंत्रों / श्लोकों का प्रभाव ) को स्वीकार नहीं करते थे। वे अनुमान को ही श्रेष्ठ प्रमाण मानते थे। जबकि वेदान्त दर्शन का सिद्धान्त है कि सर्वोच्च तत्व “ब्रम्ह” को अनुमान प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता, श्रुति वचन (वेदादि-वेद पाठ शब्द प्रमाण) से ही ब्रम्हतत्व की सिद्धि हो सकती है। इसमें अनुमान प्रमाण सहायक हो सकता है।
वेदान्त दर्शन की उपर्युक्त सिद्धान्त से हटकर न्याय दर्शन का सिद्धान्त यह है कि अनुमान प्रमाण से सर्वोच्च तत्व ईश्वर की सिद्धि हो सकती है। अनुमान प्रमाण की सहायता श्रुतिवचन भी करती है। इसलिए समय की मांग तथा इस नए तर्क की यथार्थता को देखते हुए उदयन ने अनुमान -प्रमाण प्रतिपाद्य के आधार पर एक ग्रंथ की रचना की, जिसे न्याय दर्शन का अनमोल ग्रंथ माना गया जिसका नाम था “आत्मतत्व विवेक” । साथ ही न्याय दर्शन पर एक और पुस्तक की रचना की “कुष्मांजलि”। कुष्मांजलि ग्रंथ में अनुमान से ईश्वर तत्व का समर्थन किया। अर्थात् आस्तिकता का समर्थन। जबकि बौद्ध दार्शनिक नास्तिकता के समर्थक थे। उदयन ने न्याय दर्शन के अंतर्गत लिखित दोनों ग्रंथों से वैदिक धर्म के आधार स्तंभ को बौद्धों से स्वीकृत अनुमान प्रमाण से ही सिद्ध कर दिया। इसके बाद बौद्ध दार्शनिकों में तहलका मचा दिया। कोई भी बौद्ध दार्शनिक उदयन के मतों व सिद्धान्तों का खण्डन नहीं कर सका। सभी निरूत्तर हो गए।इस प्रकार बौद्ध दार्शनिक, जिनके कर्म भूमि मगध साम्राज्य खासकर नालंदा विश्वविद्यालय तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय थे तथा वैदिक दार्शनिकों, जिनके कर्मभूमि मिथिला था, के बीच बौद्धिक सारस्वत युद्ध हुए। बौद्ध दार्शनिक मगध सम्राटों का समर्थन पाकर वैदिक-दर्शन- शास्त्रों के सिद्धान्तों में तर्कों पर हमला करके, उनको खण्डन कर अनुपयोगी साबित करने की भागीरथी प्रयास किए। वैदिक वास्मय की घरा पर घनघोर काले बादल मंडराने लगे। वैदिक-दर्शन- शास्त्रों के ऊपर राष्ट्रशक्त हमलों से यह क्षीण पड़न लगा। इस विकट स्थिति का सामना करने मिथिला के सारस्वत पुत्रों ने कमर कसी तथा बौद्ध दर्शन के आख्यानों व तर्कों के खण्डन व कमतर सिद्ध करने नए दर्शन का सहारा लिया जिसका नाम था- न्याय शास्त्र (न्याय दर्शन ) ( नव-न्याय – शास्त्र) |न्याय दर्शन के सूत्रों के रचयिता मैथिल महर्षि गौतम है। उस पर वात्स्यायन (कौटिल्य) ने न्याय सूत्रों पर भाष्य लिखा। तत्पश्चात् उद्योतकर (मैथिल) ने न्याय भाष्य पर वार्तिक लिखा। उस वार्तिक पर वाचस्पति ने न्यायवार्तिक- तात्पर्य-टीका ” नाम की टीका लिखी। वाचस्पति की ” न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका” की व्याख्या उदयनाचार्य ने तात्पर्य टीका की व्याख्या परिशुद्धि” लिख कर की।वैदिक- न्यायशास्त्र को ” वैदिक तर्क शास्त्र भी कहते हैं, की उत्पत्ति-भूमि मिथिला है। राहुत सांकृत्यायन महापंडित ने कहा है कि बौद्ध-न्याय शास्त्र के जन्म एवम् विकास – की भूमि यदि मगध को कहा जाता है तो वैदिक न्याय – शास्त्रों के बारे में वही श्रेय तिरहुत (मिथिला) को प्राप्त है। नव्य-न्याय-शास्त्र जिसे ब्राम्हण – न्याय – शास्त्र भी कहा जाता है. का निर्माण वेद तथा उसकी मान्यताओं (सिद्धान्तों व तर्कों) की रक्षा के लिए मुख्य रूप से हुआ है। वेद तथा उसकी मान्यताओं पर प्रचण्ड प्रहार करने में मगध प्रधान केंद्र बन रहा था। राहुल ने आगे लिखा है कि प्राचीन न्याय (प्रणेता महर्षि गौतम, वात्स्यायन उद्योतकर, वाचस्पति और उदयन) और नव्य-न्याय (प्रणेता उदयन, गंगेश उपाध्याय आदि) की उत्पत्ति भूमि मिथिला है। वाचस्पति मिश्र के बाद तो ब्राम्हण न्याय शास्त्र (वैदिक न्याय शास्त्र) पर तिरहुत का एकक्षत्र राज स्थापित हो जाता है। मिथिला ” न्यायशास्त्र” का केंद्र बन जाती है और हर एक काल में भारत के श्रेष्ठ नैयायिक बनने का सौभाग्य किसी मैथिल को ही प्राप्त है।राहुत सांकृत्यायन के उपर्युक्त गर्वोक्ति से स्पष्ट है कि वैदिक धर्म को बौद्ध धर्म से संरक्षित करने के लिए मिथिला की प्रतिभा न्याय – शास्त्र के विकास में केंद्रित हो गई। जिससे मिथिला में बौद्ध धर्म निष्प्रभ हो गया।
उदयनाचार्य की कर्म भूमि
उदयनाचार्य पूर्ण शिक्षित व दीक्षित होकर गौड़ प्रदेश के सेन वंशीय मिथिला के अंतिम शासक लक्ष्मण सेन (जो बंगाल के सेन वंशीय शासक बल्लाल सेन का पुत्र था ) उदयनाचार्य ( 10वी व 11वी सदी) के दरबार में राजपण्डित हुए (1050 ई. के आसपास) ।
ऐतिहासिक कारण से वाचस्पति (दसवी सदी) के बाद उदयनाचार्य एवम् गंगेश उपाध्याय आदि ने मिथिला के वेदान्त दर्शन पर पुस्तक नहीं लिखकर “नव्य-न्याय” नाम के एक नवीन न्याय – शास्त्र की रचना की जिससे बौद्धों के सांस्कृतिक आक्रमण से वैदिक-संस्कृति जीवित रह सकी।उदयनाचार्य और जगन्नाथपुरी मंदिर :एक कथानक है कि एक बार मिथिला न्याय – शास्त्री उदयवाचार्य जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ की पूजा के जिए जब पहुँचे तो मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश से पहले स्वतः मंदिर का कपाट बंद हो गया। इस बात पर उदयन को आश्चर्य हुआ कि यह अपने आप क्यों हुआ। मन ही मन सशंकित व क्रुद्ध हो गए। निराशापूर्वक मंदिर से लौटते वक्त उनके मुँह से निकला
ऐश्वर्य मत मत्रेडसि मामवज्ञाय दुर्मते
पुनर्वोद्धे समायाते ममधीना तब स्थितः
उदयनाचार्य भगवान जगन्नाथ से मौन वार्तालाप करते कहते है कि ऐश्वर्य मद में मेरा अपमान आपने किया है, तो मुझे आपकी कोई आवश्यकता नहीं। परन्तु एक दिन आपको मेरा ही प्रयोजन पड़ेगा जब आपके अस्तित्व पर बौद्धादि ( चार्वाक अनीश्वर दार्शनिक) द्वारा प्रश्न खड़ा किया जावेगा और सनातनी को आपसे विमुख करा कर नास्तिक बना दिया जायेगा। उस समय उसके कुचक्रों का तोड़ मैं ही निकालूँगा तथा आपके अस्तित्व को पुनः स्थापित करूँगायह कहकर उदयनाचार्य ज्योंहि लौटने लगे कि उक्त गर्वोक्ति की गूंज सुनजगन्नाथ मंदिर का कपाट अपने आप खुल गया।
ऐसी थी उद्भट विद्वता इस विचक्षण शार्दुल पुरुष उदयनाचार्य की । इस विद्वता पर मिथिला गर्व करती रहेगी ” यावदचन्द्र दिवाकरौ ।
शंकर झा
वित्त नियंत्रक (छ.ग. वित्त सेवा)