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ऐतिहासिक फैसला :: राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकार – सुप्रीम कोर्ट

डेस्क : सुप्रीम कोर्ट ने गुरूवार को अपना फैसला सुनाते हुए निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) को भारत के संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया।
निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आ गया है. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि निजता का अधिकार मौलिक आधिकार है. इसलिए इससे छेड़छाड़ की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है. कोर्ट ने कहा कि यह संविधान की धारा 21 का हिस्सा है. यह धारा भारत के नागरिकों के लिए जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है.

चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकारों के अंतर्गत प्राकृतिक रूप से निजता का अधिकार संरक्षित है। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस आर के अग्रवाल, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम सप्रे, जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल हैं और उन्होंने भी समान विचार व्यक्त किए।

इससे पहले, चीफ जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने इस सवाल पर तीन सप्ताह के दौरान करीब छह दिन तक सुनवाई की थी कि क्या निजता के अधिकार को संविधान में प्रदत्त एक मौलिक अधिकार माना जा सकता है। यह सुनवाई दो अगस्त को पूरी हुई थी। सुनवाई के दौरान निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने के पक्ष और विरोध में दलीलें दी गईं।

इस मुद्दे पर सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल, अतिरक्त सालिसीटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता सर्वश्री अरविन्द दातार, कपिल सिब्बल, गोपाल सुब्रमणियम , श्याम दीवान, आनंद ग्रोवर, सी ए सुन्दरम और राकेश द्विवेदी ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने या नहीं किए जाने के बारे में दलीलें दीं और अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं का हवाला दिया था। 

क्या है पूरा मामला

पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 18 जुलाई को कहा कि इस मुद्दे पर फैसला करने के लिये नौ सदस्यीय संविधान पीठ विचार करेगी। संविधान पीठ के समक्ष विचारणीय सवाल था कि क्या निजता के अधिकार को संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार घोषित किया जा सकता है। कोर्ट ने शीर्ष अदालत की छह और आठ सदस्यीय पीठ द्वारा क्रमश: खडक सिंह और एम पी शर्मा प्रकरण में दी गई व्यवस्थाओं के सही होने की विवेचना के लिये नौ सदस्यीय संविधान पीठ गठित करने का निर्णय किया था। इन फैसलों में कहा गया था कि यह मौलिक अधिकार नहीं है। खडक सिंह प्रकरण में कोर्ट ने 1960 में और एम पी शर्मा प्रकरण में 1950 में फैसला सुनाया था।

चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने दो अगस्त को फैसला सुरक्षित रखते हुए सार्वजनिक दायरे में आयी निजी सूचना के संभावित दुरूपयोग को लेकर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि मौजूदा प्रौद्योगिकी के दौर में निजता के संरक्षण की अवधारणा ‘एक हारी हुई लड़ाई’ है। इससे पहले, 19 जुलाई को सुनवाई के दौरान पीठ ने टिप्पणी की थी कि निजता का अधिकार मुक्म्मल नहीं हो  सकता और सरकार के पास इस पर उचित प्रतिबंध लगाने के कुछ अधिकार हो सकते हैं।

अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने दलील दी थी कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकारों के दायरे में नहीं आ सकता क्योंकि वृहद पीठ के फैसले हैं कि यह सिर्फ न्यायिक व्यवस्थाओं के माध्यम से विकसित एक सामान्य कानूनी अधिकार है। केंद्र ने भी निजता को एक अनिश्चित और अविकसित अधिकार बताया था, गरीब लोगों को जिसे जीवन, भोजन और आवास के उनके अधिकार से वंचित करने के लिये प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है।

इस दौरान कोर्ट ने भी सभी सरकारी और निजी प्रतिष्ठानों से निजी सूचनाओं को साझा करने के डिजिटल युग के दौर में निजता के अधिकार से जुडे अनेक सवाल पूछे। इस बीच, याचिकाकतार्ओं ने दलील दी थी कि निजता का अधिकार सबसे अधिक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार जीने की स्वतंत्रता में ही समाहित है। उनका यह भी कहना था कि स्वतंत्रता के अधिकार में ही निजता का अधिकार शामिल है।

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