डेस्क : दरभंगा जिलान्तर्गत विस्फी गॉव निवासी चण्डेश्वर ठाकुर विद्यापति के पितामह के बड़े भाई थे। विद्यापति ठाकुर जो विसईवार वंश के थे, उनके पूर्वजों क्रमशः देवादित्य ठाकुर, बीरेश्वर ठाकुर व चण्डेश्वर ठाकुर कर्णाट वंशीय राजाओं के मंत्री हुआ करते थे। ये सभी संस्कृत व धर्म शास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान थे। इस तथ्य का उल्लेख चण्डेश्वर ठाकुर कृत ‘‘कृत्य रत्नाकर’’ पुस्तक में की गई है। चण्डेश्वर ठाकुर कर्णाट वंशीय शासक हरि सिंह देव के दरबार में मंत्री के पद को सुशोभित किया था। हरिसिंह देव जब किशोरावस्था में थे तभी उनपर राजकाज का भार आ गया, वे राजा बनाए गए। राजा हरिसिंह देव के बाल्यावस्था व किशोरावस्था में परम अनुभवी मंत्रीगण क्रमशः देवादित्य ठाकुर, उसके बाद उनका पुत्र बीरेश्वर ठाकुर, तदोपरांत चण्डेश्वर ठाकुर राज्य संचालन का कार्य सम्पादित किए। इसका प्रमाण चण्डेश्वर ठाकुर कृत ‘‘कृत्य रत्नाकर’’ नामक ग्रंथ में मिलता है। चण्डेश्वर ठाकुर के मंत्रित्व में हरिसिंह ने नेपाल पर चढ़ाई की थी, तथा वहाँ के किरात राजा को हरा कर सम्पूर्ण नेपाल को अपने अधिकार में लेकर मिथिला क्षेत्र का विस्तार किया। हरिसिंह देव व नेपाल के किरातों के मध्य भारी लड़ाई हुई थी। चण्डेश्वर ठाकुर चतुर योद्धा, व संग्राम कौशल से पूर्ण सेना नायक थे। उन्होंने अपनी विशिष्ट रण कौशल के बदौलत किरातों के रणनीतियों को तहस-नहस कर डाला, तथा अपने राजा हरिसिंह देव को महान जीत का तोहफा दिया। चण्डेष्वर ठाकुर के मंत्रित्व में राजा हरिसिंह देव का सामा्रज्य क्षेत्र काफी विस्तारित हुआ व सैनिक संगठन मजबूत होकर बुलंदी को छुआ ।
कर्णाट वंशीय शासन काल जो लगभग 228 वर्षों का रहा, यह मिथिला के सांस्कृतिक व बौद्धिक विकास हेतु अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। इससे पूर्व जनक वंशीय शासन काल भी मिथिला के सांस्कृतिक व बौद्धिक विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था। कर्णाटवंशीय शासन काल में कई कुशल शासक हुए तो कई योग्य, प्रबुद्ध व योद्धा मंत्री भी हुए। इन योग्य, दक्ष व रणनीतिकार मंत्रियों के बदौलत कर्णाट शासन सुचारू रूप से अनवरत चला, शासन काल में जन उपयोगी प्रशासनिक नीति बनी व उसपर अक्षरशः अमल हुआ।
कर्णाट वंशीय शासन के दो महान शासक के रूप में नान्यदेव (संस्थापक शासक) व हरि सिंहदेव (अंतिम शासक) का नाम अति गौरव से लिया जाता है। इनके समय में इनके दरबार के विभिन्न विभागों में आसीन मंत्रियो की योग्यता कौशल व नीति निर्धारण क्षमता अतुलनीय थे। सभी मंत्रीगण अपने राजा को अपनी विशिष्ट क्षमता के आधार पर प्रशासनिक, आर्थिक व बौद्धिक सलाह देते थे जिसे तत्कालीन राजा स्वीकार कर, दैनदिनी का कार्य सम्पादित करवाते थे।
तत्कालीन मिथिला समाज के दो वर्ग क्रमशः ब्राह्मण व कायस्थ कर्णाटवंशीय शासक के महत्वपूर्ण मंत्री व परामर्शदाता थे। ये दोनों वर्ग अपनी मेधा व दूर दृष्टि के कारण राजाओं हेतु अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गए थे। अतः कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था के निर्देशन व संचालन में इन दोनों वर्गों के मंत्रियों व अधिकारियों का महत्वपूर्ण भूमिका लगातार बनी रही। वे कर्णाट वंशीय राजाओं की निकटता प्राप्त कर लिए तथा उनके संतान तीन-चार पीढ़ीयों तक शासन व्यवस्था में संलग्न रहे।
प्रशासन के संचालन में इन मंत्रियों के सलाहनुसार राजा पथ निर्देशन के कार्य करते थे, पूर्ण विश्वास व दृढ़ता के साथ इन मंत्रियों के न्याय संगत नीति आधारित सलाह के आधार पर राजाओं द्वारा अमल के कारण राज्य का प्रशासन उत्तरोत्तर अधिक विकसित हो गया।
कर्णाट शासन काल में प्रायः सभी राजा मंत्री अथवा प्रधान मंत्री रखते थे जो राजा को प्रशासनिक कार्यों व राजनीतिक समस्याओं को हल करने परामर्श/सलाह देते थे। जैसेः नान्यदेव अपने शासन काल में श्रीधर दास को अपना प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया था। नान्यदेव के पुत्र गंगदेव के शासन काल में भी श्रीधर दास इस जिम्मेदारी का निर्वहन किया था। श्रीधर दास का पूर्वज कर्णाट वंश के पूर्व सेन वंश के शासन काल में सेना के कई पदों पर रहे थे।
कर्णाट वंश के अंतिम महान शासक हरिसिंह देव काल में राजदरबार में एक ‘‘परामर्शदात्री परिषद’’ था; जिसमें विभिन्न विभागों के मूर्धन्य सलाह कार ‘‘मंत्री/ प्रधानमंत्री/महमत्तक’’ पदों पर आसीन थे। इन मंत्रियों/प्रधानमंत्रियों/महमत्तकों को बहुत अधिक अधिकार प्रत्यायोजित थे।
इन मंत्रियों में से एक थे – चण्डेश्वर ठाकुर। ये तत्कालीन युग के उदभट्ट राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री व युद्ध कौशल के पुरोधा थे। इनके पास विशाल ज्ञान भण्डार व अनुभव था। अपने बौद्धिक कौशल, चतुर राजनीति के बदौलत वर्षों वर्ष विभिन्न विभागों के प्रधानमंत्री पदों को सुशोभित किया।
ऐसा किंवदंती है कि शक्ति सिंह देव, कर्णाट वंशीय शासन काल में सबसे निरंकुश और स्वच्छन्द प्रवृत्ति के शासक थे। उन्हें भोग व विलासिता पूर्ण जीवन व फिजूल खर्च करना पसंद था। इससे मिथिला की प्रजा व खासकर प्रबुद्ध जन असंतुष्ट थे। परामर्शदात्री परिषद के कई मंत्री व महमत्तक इनकी निरंकुशता पर नियंत्रण चाहते थे, परन्तु वे सफल नहीं हो पा रहे थे। इससे मंत्रियो व महामत्तको के बीच समर्थक व विरोध गुटों का गठन हो गया था। शक्ति सिंह देव के विलासिता पूर्ण जीवन व फिजूल खर्ची पर विरोधीगुट नियंत्रण करना चाह रहे थे, जबकि समर्थक गुट राजा के साथ मजे लेना चाह रहे थे। गुटबाजी राज भवन में विद्रोह का रूप धारण कर लिया। चण्डेश्वर ठाकुर के मंत्रित्व में विरोधी गुट राजा के निरंकुशता पर नियंत्रण पाने में सफल भी हुए। राजभवन विद्रोह के बाद चण्डेश्वर ठाकुर चातुर्य प्रभाव से प्रभावित परामर्शदात्री परिषद और मजबूत हो गया। हरिसिंह देव जब तक वयस्क नहीं हुए तब तक चण्डेश्वर ठाकुर के मंत्रित्व का प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण रहा, राज-काज की व्यवस्था पर इनके सलाह व परामर्श का प्रभाव सबसे ज्यादा रहा। साथ ही हरिसिंह देव एक योग्य व कुशल शासक बने, इस हेतु शिक्षा-दीक्षा का प्रारूप चण्डेश्वर ठाकुर द्वारा ही बनाया गया। बाद में चण्डेश्वर ठाकुर के निर्णायक परामर्श पर चलकर हरिसिंह देव राज-काज का संचालन कर कर्णाटवंशीय शासकों में सबसे महत्वपूर्ण शासक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। हरिसिंह देव के समय मिथिला को ‘पंजी-प्रथा’ जैसी वैवाहिक-संबंध नीति का प्रचार मिला तो मिथिला का सांस्कृतिक धरोहर पल्लवित व पुष्पित हुआ। बौद्धिक स्तर पर कई विशिष्ट ग्रंथों व पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ रची गई। मिथिला का साहित्यिक विकास द्रुत गति से हुआ; क्योंकि हरिसिंह देव ने इन कार्यों हेतु चण्डेष्वर ठाकुर के मार्गदर्षन में न केवल उदारनीति अपनाया था बल्कि रचनाकारों को धन व मान-सम्मान देकर प्रोत्साहित भी किया। यह काल मिथिला के साहित्यिक व बौद्धिक विकास का स्वर्णिम काल सावित हुआ। इसे स्वर्णिम काल बनाने में हरिसिंह देव की उदारता व प्रोत्साहन अति महत्वपूर्ण था तो इस प्रकार का वातावरण व नीति निर्माता के रूप में प्रधानमंत्री चण्डेश्वर ठाकुर की भूमिका थोड़ा भी कमतर नहीं। अतः इतिहासकार ने चाणक्य व चन्द्रगुप्त मौर्य के संबंध को विशिष्ट गुरू शिष्य परम्परा का उदाहरण देते हुए चन्द्रगुप्त मौर्य के कुशल नेतृत्व के पीछे चाण्क्य की भूमिका को अति महत्वपूर्ण माना, उसी प्रकार मिथिला में कर्णाटवंशीय महान शासक हरिसिंह देव की महानता के पीछे चण्डेश्वर ठाकुर को ‘‘मिथिला का चाणक्य’’ का दर्जा दिया।
चण्डेश्वर ठाकुर पर प्रधानमंत्री होने के कारण युद्ध के समय व शांति के समय महती जिम्मेदारी हुआ करता था। युद्ध के समय युद्ध का संचालन व युद्ध क्षेत्र की रण नीति बनाने में वे कुशल सावित हुए तथा शांति के समय विकास व प्रजा की कल्याणकारी योजना बनाते व उसे अमल कराने में प्रवीण थे। चण्डेश्वर ठाकुर कुशल प्रशासक के साथ-साथ मूर्धन्य विद्वान, व कुशल सामाजिक प्रबंधक थे। चाण्डेश्वर ठाकुर कई मौलिक ग्रंथों की रचना किए साथ ही कई धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक कृतियों के संकलन भी किए। इनके कृतियों से मिथिला राज्य अत्यधिक लाभान्वित हुआ व मिथिला साहित्य में श्रीवृद्धि दर्ज हुई। इन कृतियों के माध्यम से प्रशासन कला, नीति न्याय, राजा का कर्तव्य, विधि व्यवस्था का निर्देशन हुआ। राजा हरिसिंहदेव का प्रोत्साहन व सहयोग सदैव इन्हें मिलता रहा, जिससे अनेक अनुपम ग्रंथों का निर्माण चण्डेश्वर ठाकुर कर सके तथा इन कृतियों के कारण हरि सिंह देव व उनका शासन व्यवस्था मिथिला के इतिहास में अमर हो गया।
चण्डेश्वर ठाकुर की रचनाएँ :-
चण्डेश्वर ठाकुर मूर्धन्य विद्वान थे। उन्होंने सात महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचनाएँ की, सभी में रत्नाकर जुड़ा था अतः चण्डेश्वर ठाकुर को ‘‘सप्त रत्नाकरकार’’ कहकर संबोधित किया जाने लगा। गं्रथ इस प्रकार हैंः-
(1) कृत्य रत्नाकर (2) व्यवहार रत्नाकर (3) शुद्धि रत्नाकर
(4) दान रत्नाकर (5) पूजा रत्नाकर (6) गृहस्थ रत्नाकर
(7) विवाद रत्नाकर
चण्डेश्वर ठाकुर ने आठवाँ रत्नाकर-‘‘राजनीति रत्नाकर’’ लिखा था। यह ग्रंथ चण्डेश्वर ठाकुर के अनुभव का चर्मोत्कर्ष रचना के रूप में विख्यात हुआ। इस ग्रंथ के निर्मित होने पर कई राजघरानों के राजा लोग इस ग्रंथ के सिद्धांत के आधार पर अपना राज्य प्रबंधन किया करते थे।इसके अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र में नौंवी रचना-कृत्य चिंतामणि थी।
प्रधानमंत्री चण्डेश्वर ठाकुर कवि कोकिल विद्यापति के पितामह के अग्रज भाई थे। उन्होंने राजा भव सिंह (ओइनवार वंशीय) की राजधानी भवग्राम के बगल हरही में एक महादेव का मंदिर निर्मित करवाया जो ‘‘चण्डेश्वर नाथ’’ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ शिवरात्री के अवसर पर भारी भीड़ होती है। दरभंगा महाराज के वंशजों का मुण्डन संस्कार यहाँ कराने की परम्परा रही थी।
चण्डेश्वर ठाकुर के ‘‘राजनीति रत्नाकर’’ से कर्णाटवंशीय शासन काल का प्रशासनिक नीति, उसका विभिन्न अवयव व राज्याधिकारियों की जानकारी प्राप्त होती है। राजनीति रत्नाकर 16 अध्यायों में विभक्त है जिसमें राजस्व मंत्री, धर्म मंत्री, मुख्यन्यायाधीश, परामर्शदाता, दुर्ग, राजकोष, सेना, सेनापति, राजदूत, प्रशासन नीति, कार्यकारी अधिकारी, दण्ड राजा द्वारा नियुक्त राज्याधिकारी, और राज्याभिषेक का बृहद वर्णन किया गया है। इसका अध्ययन से कर्णाटवंशीय शासन व्यवस्था की महत्वपूर्ण जानकारी बृहदरूप से प्राप्त होता है। अतः यह कर्णाट शासकों के प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी हेतु अमूल्य धरोहर है। इसमें विभिन्न प्रशासनिक अधिकारियों के पदनामों की तालिका प्रस्तुत की गई है जिनमें-भूपाल, समिति, सेनापति, मंत्री, पुरोहित, महामत्तक, राजगुरू, दुर्गपाल व अन्य अधिकारियों का उल्लेख है। राजनीति रत्नाकर राजनीति और प्रशासन के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर भी प्रमाण के साथ तथ्य प्रस्तुत करता है।
राज तंत्रीय व्यवस्था :-
कर्णाट वंशीय शासन काल में राजा न केवल प्रशासन के मुखिया हुआ करते बल्कि राजा अपने को ईश्वर के प्रतिनिधि मानते थे । प्रजा की भलाई पर पूर्ण ध्यान देते थे। ईश्वर के दैविक शक्ति में पूर्ण विश्वास रखते थे। चण्डेश्वर ठाकुर कृत ‘‘राजनीति रत्नाकर‘‘ में उल्लेख है कि राजा अपने को ईश्वर का अवतार मानते थे। अतः राजा के आज्ञा का आदर करना प्रजा हेतु अनिवार्य था, अन्यथा आज्ञा का अनादर राजा का अपमान करना माना जाता था।
मौर्य और गुप्त कालीन राजकीय व्यवस्था अनुरुप कर्णाटवंशीय राजाओं का भी राज्याभिषेक हुआ करता था। राज्याभिषेक धार्मिक परम्परानुसार हुआ करता था अतः पूरी प्रक्रिया में धार्मिक विभाग के मंत्री की भूमिका महत्वपूर्ण हुआ करती थी। वैदिक नियमावली अनुरुप राज्याभिषेक किया जाता था।
शासन नीतिः-
चण्डेश्वर ठाकुर की रचना में प्रतिपादित शासन नीति के अनुरुप राज-काज का चलन हो गया था। इस नीति के अनुसार अशक्त व वृद्ध राजा को राजगद्ी का परित्याग कर देना चाहिए व मोक्ष हेतु उन्हें तपस्या में तल्लीन हो जाना चाहिए। राजा जब अषक्त हो जाते तो अपने राजदरबार के मंत्रियों व प्रबुद्धजनों को बुलाकर उनके परामर्ष में अपने ज्येश्ठ पुत्र के पक्ष में राजगद्दी का परित्याग करते थें। चण्डेष्वर ठाकुर की षासन नीति में उल्लेख था कि नया राजा राज्याभिषेक के समय षपथ लें कि राजा के लिए उनका राज्य ईश्वर सदृश है । अतः राज्य की रक्षा करना राजा के लिये सबसे महत्वपूर्ण है तथा प्रजा की भलाई के लिए हर आवश्यक कदम उठाना अनिवार्य है।
चण्डेश्वर ठाकुर का शासन नीति इस सिध्दांत का प्रतिपादक था कि वह राजा श्रेष्ठ माने जाएंगे जो शासन संगठन में प्रवीण हों, इमानदार हों तथा उन्हें सभी प्रशासनिक विभागों का ययोचित ज्ञान हो। राजा को हर समस्या का निदान करने की क्षमता होनी चाहिए तथा वे आंतरिक व बाह्म समस्याओं का निर्भीकता पूर्वक सामना व समाधान करना चाहिए। इसी नीति पर चलकर कर्णाटवंशीय शासक अपनी सत्ता संगठन मजबूत कर सभी समस्याओं का निराकरण करने में सक्षम सावित हुए।
राज-धर्म नीति :-
चण्डेश्वर ठाकुर कृत रचनाओं में ‘‘राज-धर्म‘‘ को भी परिभाषित किया गया। जिसके अनुसार राज धर्म का अर्थ है प्रजा की रक्षा व उनके कल्याण हेतु सत्कार्य करना। पापी या गलत कार्य करने वाला षासक कभी प्रतिश्ठा प्राप्त नहीं कर सकता। षासक को कल्पवृक्ष जैसे होना चाहिये जो प्रजा की आवष्यकता को पूरी कर सके। सात्विक गुणों से परिपूर्ण राजा ही लोकप्रिय हो सकता है। चण्डेश्वर ठाकुर का मानना था कि राजकार्य हेतु केंद्रीकृत नेतृत्व हो, न कि अनेक नायकों को भार देना चाहिए। अनेक नेतृत्व होने से राज्य का विनाश होना अवश्यंभावी है। स्पष्ट है कि चण्डेश्वर ठाकुर राजा के नेतृत्व व राज तंत्र में विश्वास करते थे।
आर्थिक नीति :-
नीति विशारद चण्डेश्वर ठाकुर ने ‘‘आर्थिक सिद्धांत‘‘ दिया कि राजकीय वित पर राजा का अधिकार नहीं होना चाहिए। राजकीय वित्त (राजस्व) का व्यय प्रजा की कल्याण व प्रजा की सुरक्षा हेतु होना चाहिए। इन्ही नीति का अनुसरण करते हुए कर्णाटवंशीय अधिकांश शासक कभी निरंकुश नहीं हुए, तथा कर्णाटवंशीय शासन काल में अनेक तालाब (पोखर) कुऑ (इनार) व बगीचा का निर्माण राजकीय कोष से कराया गया। इस वंश के शासन काल में शासक विलासित में धन का अपव्यय नहीं किए, राज्य व्यवस्था प्रजा कल्याणकाणी रहा, राजा उदार, साहिष्णु व प्रजा वत्सल थे। राजा प्रजा को अपने संतान जैसे प्रेम करते थे।
दैनंदिनी कार्य नीति :-
‘‘राजनीति रत्नाकर‘‘ रचना में उल्लेखित सिद्धांत के अनुरुप राजा ‘‘दैनंदिनी‘‘ (रोजमर्रा का कार्य) का कार्य निपटाते थे। राजा अपने प्रारम्भिक दैनिक कार्य से निवृत्त होकर दोपहर में राजभवन जाते, परीक्षण उपरांत भोजन सामग्रियों का सेवन करते थे। भोजन पश्चात् कुछ देर विश्राम करते थे। फिर अपने प्रशासकीय कार्यो को संचारित करते थे। वे वास्तव में जितेन्द्रिय थे । अपने को भोग विलासिता से दूर रखते थे । वे नशा का सेवन नहीं करते थे। क्रोध को वश में रखते थे, वासना से दूर रहते थे।
चण्डेश्वर ठाकुर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतानुसार, कूटनीति का पालन करते हुए, राजा सिंह सदृश अपने शक्तिओं का संचय करते थे तथा चतुर रवढि़या के सदृश अपने शत्रु के साथ व्यवहार करते थे। इन गुणों के बीच समन्वय स्थापित कर पूर्ण कूटनीतिक तरीको से राजा सफलतापूर्वक प्रशासनिक कार्यो को निष्पादित करते थे।
कर्णाट शासक काफी शक्तिशाली थे और उनका प्रशासनिक अधिकार बहुत ज्यादा था। षासकों द्वारा अलग अलग समय में धारित उपाधियां, उनके षक्तियों व अधिकारों को स्पष्ट करता है, ये उपाधियॉ शासकों के असीमित शक्तियों व अपरिमित अधिकारों का परिचायक था।
प्रशासन व्यवस्था :-
इस प्रकार कर्णाट शासक एक विशाल प्रशासन की व्यवस्था किए जिसके संचालन हेतु अनेक विभाग व मंत्रियों व अधिकारियों को पदास्थापित किया। राजा के हाथ में सर्वोच्च सत्ता केंद्रित था, अर्थात् मिथिला की यह व्यवस्था पूर्ण रुपेण राजतंत्रीय था। परन्तु कर्णाट राजा निरंकुश राजतंत्र के स्थान पर ‘‘उदार राजतंत्र‘‘ की स्थापना किए। वे वंशानुगत शासन को स्थापित किए तथा मल्लदेव को छोड़ सभी राजाओं के ज्येष्ठ पुत्र ही पिता के अशक्त/मरणोपरान्त राज्य सिंहासन पर आरुढ़ हुए। राजा बाहृय आक्रमणों व गृह समस्याओं का निदान निर्भीकता पूर्वक किए, राज्य व प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने में सफल हुए तथा उत्साहपूर्वक सार्वजनिक कल्याणकारी योजनाओं पर सफलतापूर्वक कार्य किए जिससे प्रजा की आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन सुखी था।
निष्कर्ष :-
कर्णाट वंशीय शासन व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने अन्य योग्य व प्रबुध्द मंत्रियों के साथ-साथ चण्डेश्वर ठाकुर जैसे मूर्धन्य विशारद की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा । षक्ति सिंह देव मिथिला में कर्णाट वंषीय षासन काल जो लगभग 228 वर्श रहा, का एक मात्र निरंकुष और स्वछंद प्रवृति के षासक हुए । इनके भोग विलासितापूर्ण जीवन का लाभ कई दरबारी लेना प्रारंभ कर दिया, परन्तु दूसरा गुट इसका विरोधी हो गया । दरबार में गुटबाजी से राजद्रोह की स्थिति निर्मित हुई तथा राजमहल की छबि धुमिल होने लगी । षक्तिसिंह देव का उत्तराधिकारी हरिसिंह देव अभी किषोरावस्था में थे । इस बुरे वक्त में राजमहल को चण्डेष्वर ठाकुर जैसा कर्मठ, ईमानदार व रणनीतिकार कुषल मंत्री का साथ मिला । जिससे राजदरबार के विद्रोह को समाप्त कर अवयस्क राजा हरिसिंह देव को राजगद्दी पर बिठाया जा सका । अवयस्क राजा हरिसिंहदेव के उचित षिक्षा व दीक्षा की व्यवस्था की गई । चण्डेष्वर ठाकुर अपनी रचनाओं में प्रतिपादित राजधर्म, धर्मनीति, आर्थिक नीति, कुटनीति, सांस्कृतिक नीति आदि से हरिसिंह देव को वाकिफ कराये । इन्हीं नीतियों का अनुसरण कर हरिसिंह देव मिथिला के कर्णाटवंषीय षासन काल के महानतम षासक बने । इनका राज काज क्षेत्र सबसे बड़ा रहा । मिथिला का सामाजिक व सांस्कृतिक विकास अपनी चरम उंचाई पर पहुंचा जिसके अंतर्गत मिथिला में कई महत्वपूर्ण तालाब, मंदिर व बाग बगीचों के निर्माण हुए । संस्कृत व मैथिली भाशा के विकास हेतु यह कालखंड अतिमहत्वपूर्ण सावित हुआ ।
अतः इतिहासकार ने चाणक्य व चंद्रगुप्त मौर्य के संबंध को विषिश्ट गुरू-षिश्य परंपरा का उदाहरण देते हुए चंद्रगुप्त मौर्य के कुषल नेतृत्व के पीछे चाणक्य की भूमिका को अतिमहत्वपूर्ण माना उसी प्रकार मिथिला में कर्णाटवंषीय महान षासक हरिसिंह देव की महानता के पीछे चण्डेष्वर ठाकुर को मिथिला का चाणक्य का दर्जा दिया, यह सर्वथा उचित है।
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)