आचार्य शंकर की कलम से….
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के छात्रों ने लिख दिया है ब्राह्मणों भारत छोड़ो। कोई राजनीति से प्रेरित व्यक्ति कहता है कि ब्राह्मण बाहर से भारत आए हैं। यहाँ आकर ब्राह्मण हमारे बीच दरार पैदा करके हम पर राज करना चाहते हैं। हमें उन्हें यहाँ से बाहर भगा देना चाहिए।
– हरेक स्वाभिमानी व राष्ट्रवादी लोगों को इसका खुल कर विरोध करने की आवश्यकता है। सनातनी हिन्दू होना, ब्राह्मण होना हमारा स्वाभिमान है जैसे कि भारतीय होना। चूँकि ब्राह्मण के स्वाभिमान को चुनौती दी गई है।
अतः विनम्रता के साथ ब्राह्मणों को अपना पक्ष रखने की आवश्यकता है :- ब्राह्मण कौन हैं, सुनिए ब्राह्मणों के शौर्य, बुद्धिमता, त्याग व बलिदान की अनगिनत कहानियों संक्षेप में। परन्तु उन्हें झुठलाने के लिए विदेशी आक्रांताओं, ब्रिटिश साम्राज्य, भारतीय- वामपंथियों व छदम-धर्म निरपेक्ष वादियों ने ब्राह्मणों के बारे में दुष्प्रचार दशकों से करते आए हैं। उनका आरोप क्या हैं, तथा इनकी सच्चाई क्या हैं।
आइए देखिए इन आरोपों व तथ्यों को :-
1. ब्राह्मण लालची होते हैं वे कहते हैं कि ब्राह्मण फटे-पुरानें कपड़े पहन पण्डित का चोला पहन, गाँव-गाँव में कर्म काण्ड के दक्षिणा के नाम पर लोगों से पैसे ऐंठते हैं।
इस प्रकार की सोच का कारण यह हो सकता है कि अगर आप वामपंथ समर्थित “छद्म धर्मनिरपेक्ष” व “वाह्यपूँजी-जीवी फिल्म निर्देशकों द्वारा 1960- 70-80-90 के दशकों के हिन्दी फिल्मों की पटकथाएँ व चरित्र चित्रण देखें तो एक दो बात बहुत सारी फिल्मों में एक जैसे नजर आएँगे कि फिल्म के खलनायक (विलेन) या तो भगवाधारी-कण्ठीधारी, या त्रिपुण्ड तिलकधारी, पुजारी होगा और वह एक अपराधी प्रवृत्ति का होगा। उदाहरणार्थ मदर इण्डिया फिल्म का सुखी लाल को देखिए जो बलात्कार के पूर्व माता रानी की पूजा करते दिखाया गया। या फिर राम तेरी गंगा मैली फिल्म में गंगा किनारे के पण्डित जी के चरित्र हनन का चित्रण देखिए। ऐसे अनगिनत चित्रण फिल्मों में ब्राह्मण के पाण्डित्य को झुठलाने के लिए षड्यंत्रपूर्वक किए गए हैं। ऐसे चित्रण हकीकत से परे, मनगढ़ंत चित्रित किए गए हैं। किसी फिल्म का एक विशेष नम्बर का बिल्ला, नायक की जान को खतरे से बचा लेता है, परन्तु दूसरे नम्बर के बिल्लों में वो ताकत नहीं। भोले-भाले ब्राह्मण लोग, अपने अस्मिता पर प्रहार को मनोरंजन के नाम पर उन्हें देखकर ताली पीटते रहे। अति सहनशीलता के कारण कभी विरोध नहीं किए, हँस कर उड़ा दिए, क्योकि वे इसे मात्र मनगढ़ंत चित्रण मानते रहे, सच्चाई से कोसों दूर। यह बार-बार चित्रित कर दिखाने का प्रयास किया गया कि ब्राह्मण का इतिहास लोभ लालच और अपराध से भरा रहा है।
तो चलिए पहले इतिहास की बात करते हैं और जानते हैं सच्चाई क्या है :-
द्वापर काल को देखिए ब्राह्मण का पहला चरित्र आता है सुदामा का। पिछले 5000 वर्षों में सुदामा गरीबी का चेहरा बने हुए हैं। वे भी तब जब उनके सबसे करीबी मित्र भगवान श्रीकृष्ण, द्वारिका जैसे वैभव शाली राज्य के राजा थे। सुदामा मुंह खोलते तो श्री कृष्ण उनपर मणियों व मोतियों की वर्षा कर देते। लेकिन ब्राह्मण :-
(क) सदैव से स्वाभिमानी रहा है सुदामा ने अपने सखा कृष्ण से कुछ भी मांगा ही नहीं। उनको मोती और मणि नहीं, उन्हें सिर्फ भगवान के चरण चाहिए थे, दर्शन चाहिए थे।
(ख) ब्राह्मण को सिर्फ उतना धन चाहिए जितना उसे शिक्षा या आशीर्वाद देने के बाद भिक्षा में मिला हो : ब्राम्हण भिक्षा भी यूँही नहीं स्वीकार करता। पहले ब्राह्मण परम पिता परमेश्वर से आपके सुख, समृद्धि और कल्याण की कामना कर आशीर्वाद देता था फिर आपके मुट्ठी भर भिक्षा स्वीकार करता था।
2. ब्राह्मणों का इतिहास में कोई योगदान नहीं :-
वाम पंथियों व छद्म-धर्म-निरपेक्षी अपनी राजनीतिक रोटी सेकने हेतु कहते हैं कि ब्राह्मण तो बाहर से आए हैं, उनका भारतीय इतिहास में काई योगदान नहीं है।
हम जानते है कि भारत जैसे गौरवशाली संस्कृति, दुनिया में कहीं और नहीं।तभी तो विदेशी अक्रांता हमें लूटने आए, वे हमारे सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात को लूटने से पहले हमारी संस्कृति को लूटना चाहा। हमारे कई ग्रंथ जला दिए तथा हमारे स्वर्णिम अतीत के चिन्ह मिटा देने की भरपूर कोशिश किए। फिर भी हमने अपने पर गर्व करने के लिए बहुत कुछ बचा गए। सवाल है कि जो कुछ बच गया, वो बचाया किसने ? उत्तर है – ब्राह्मणों ने।
वेद पुराण, उपनिषद, महाभारत, भागवतगीता रामायण आदि अनमोल सनातन ग्रंथों के पांडुलिपियों को इस्लामिक हमलावरों व अंग्रेजो से बचाने के लिए ब्राह्मण अपने प्राणों पर खेल गए। सनातन धर्म और अपनी संस्कृति को बचा लिए।
ब्राह्मणों के इतिहास में और योगदान देखिए :-
प्रश्न है, भारत की स्वतंत्रता के लिए पहला बलिदान किसने दिया था ? वीर मंगल पाण्डेय ने- जो एक ब्राह्मण थे।
अखण्ड भारत का पहला सपना किसने देखा था ?
उत्तर है- एक ब्राह्मण ने।
वे थे चाणक्य। जो तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। आराम से जीवन गुजारते। क्या पड़ी थी सैकड़ों टुकड़ो में बंटे भारत को एक व अखण्ड करने की ? घनानन्द ने कहा भी था चाणक्य से कोई अच्छा सा पद ले लो मेरे दरबार में, और आराम से रहो। लेकिन चाणक्य ने उस ऑफर को ठुकरा दिया। फिर प्रारम्भ किया टुकड़ों में बंटे भारत को अखण्ड करने की। जब सम्राट बनने की बारी आयी तो सम्राट नहीं बने। बल्कि सम्राट बनाए एक निर्धन वंचित चन्द्रगुप्त को।
चाणक्य ने नंद वंश को समाप्त करने का प्रण लेकर चन्द्रगुप्त को शिक्षा-दीक्षा देकर शासक के योग्य बनाया, फिर दोनों ने मिलकर नंदवंश के शासक घनानंद को हराया। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य के मार्गदर्शन में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की, तथा गुरू चाणक्य को प्रधानमंत्री बनाया। जो खण्ड-खण्ड में कई जनपदों में बंटे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल हुए।
3. ब्राह्मण – विरोधियों का आरोप है कि ब्राह्मण सत्ता के लोभी होते हैं- उपर्युक्त
कथानक से स्पष्ट है कि चाणक्य मौका मिलने के बावजूद सम्राट बने नहीं, बल्कि बनाए। अर्थात ब्राम्हण सता लोभी नहीं होते। एक और महान घटना देखिए। त्रेता युग में राजा दशरथ की मृत्यु के बाद श्री राम व लक्ष्मण वन में थे तथा भरत व शत्रुधन नौनिहाल में। अयोध्या का सारा कंट्रोल, उसकी सेना, राजकोष सब कुछ कुल गुरु वशिष्ठ के हाथों में था। अर्थात पॉवर ऑफ एटोर्नी कुल गुरू वशिष्ठ के हाथों में था। एक झटके में आयोध्या का राज्य हड़प सकते थे, यह ब्राह्मण गुरू वशिष्ठ ।
लेकिन दशरथ के मृत्यु व भरत व शत्रुघ्न के नैनिहाल से वापसी व उसके बाद के घटनाक्रमों के तथ्यों को उठाकर देखिए, कहीं नहीं मिलेगा कि गुरू वशिष्ठ ने सत्ता हथियाने का कभी कोई प्रयास तो छोड़िए, इसके बारे में सोचा तक हो। सच यह है कि ब्राह्मणों ने कभी सत्ता का लालच किया ही नहीं। चाणक्य चाहते तो खुद सम्राट बन जाते, परन्तु उन्होंने खुद सम्राट न बनते हुए एक निर्धन व वंचित चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाया। हमारी प्राथमिकता सदैव महान सम्राट बनाने की रही है, स्वयं सम्राट बनने की नहीं। अतः किंगमेकर का तगमा ब्राह्मणों हेतु ही बना है।
लेकिन फिर भी अगर मातृभूमि ने जब कभी ब्राह्मणों को राजत्व प्रदान किया तो ब्राह्मणों ने कभी भी मातृभूमि के माथे पर कलंक नहीं लगने दिया। शुंग वंश, कण्व वंश, वाकाटक वंश, पल्लव वंश, कदम्ब वंश, आंध्र सातवाहन वंश ओइनवार वंश, खण्डवला वंश (दरभंगा महाराज) के इतिहास उठाकर देख लीजिए, उनकी जीवनी पढ़ लीजिए, राजगद्दी पर बैठे तो देश के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
ब्राह्मणों की शौर्य गाथा :-
4. उनका आरोप है कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से हमेशा द्वेष रखा :-
यह सत्य नहीं है। यह फूट डालने वालों द्वारा फैलाया गया षडयंत्र है। परन्तु पेशवा ब्राह्मण राजा बाजी राव को याद कीजिए। राजपूत राजा क्षत्रशाल का एक पत्र उन्हें भोजन करने वक्त प्राप्त हुआ था। पत्र में लिखा था जो गति ग्राह गजेन्द्र की सो गति भई है आज बाजी जात बुन्देल की बाजी राखो लाज। मुगल सुबेदार फंगस खान ने घेर लिया है बुंदेल को मेरे प्रिय बाजी राव। बुंदेल की वही स्थिति है जैसी स्थिति उस सशक्त हाथी की हो गई थी जिसके पॉव को मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। अब बुंदेल खण्ड की बाजी तुम्हारे हाथों में है। पत्र पढ़ते ही बाजीराव आधा भोजन छोड़कर उठ गए। किसी ने कहा भोजन तो करते जाओ पेशवा। महान् पेशवा शासक बाजी राव ने पलट कर जवाब दिया आज अगर मैं बुंदेल के शासक क्षत्रशाल की मदद करने समय पर नहीं पहुँचा तो इतिहारा कहेगा एक क्षत्रिय शासक ने मदद मांगी और बेपरवाह ब्राहाण शासक भोजन करता रहा। वह तुरंत क्षत्रशाल की मदद करने पूरे फौज के साथ कूच कर गए।
उन दिनों महाराष्ट्र से बुंदेलखण्ड पहुँचने में 10 दिन लगते थे। लेकिन प्राण जाग पर वचन न जाय जिराका आदर्श हो, वह इतना दिन यात्रा में नहीं लगा सकता था। समय की पाबंदी थी। पाँच सौ घोड़ों के साथ बाजी राव यह यात्रा महज 48 घंटो में पूरी की। वो भी बिना रूके व बिना थके। परिणाम यह हुआ कि महाराजा वाजीराव ने तुर्क फंगस खान के सिर को गर्दन से उतार दिया। क्षत्रसाल का राज्य बन गया। तब राजा क्षत्रशाल ब्राह्मण पेशवा वाजीराव की शौर्य का वर्णन करते हुए शौर्य गाथा इन पंक्तियों में कहा था।
जग उपजे दो ब्राह्मण
परशु और बाजीराव
एक डाहि राजपूतिया
एक डाहि तुरकाव।
संसार में आज तक दो अभूतपूर्व ब्राहाण जन्में हैं। एक हुए परशुराम और दूसरे राजा बाजीराव। परशुराम ने सूर्यवंशीय क्षत्रिय राजकुमार श्री राम को अपने अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनाया तो बाजी राव पेशवा ने बुंदेलखण्ड के क्षत्रिय राजा क्षत्रशाल की जान बचाकर क्षत्रिय राज्य सुरक्षित कर दिया। बाजी राव ने 40 साल की उम्र में 42 युद्ध लड़े और सभी युद्ध जीते। उन्हें उनके जीवन में कभी कोई पराजित नहीं कर पाया। यह है ब्राह्वाणों का शौर्य गाथा। लेकिन आजकल कुछ लोग ब्राहाणों के विद्वता, स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान, शौर्य गाथा से पूर्ण इतिहारा से द्वेष व इर्ष्या करते हुए ब्राहाणों को सम्मान नहीं देना चाहते।
5. वे आरोप लगाते हैं कि ब्राह्मण समाज को जाति-पात व ऊँच-नीच में बॉट दिया यह आरोप भी पूरी तरह से गलत है और निराधार है। वर्ण-व्यवस्था का दोष मनु-स्मृति को दिया जाता है। कहते हैं मनु महाराज ने ही समाज को वर्ण व्यवस्था में बॉट दिया और ब्राहाणों ने जाति-पात में बांटा। यह जानकर आप चौंक जाएंगे कि मनु स्मृति के रचनाकार मनु महाराज स्वयं ब्राह्मण नहीं थे। वे क्षत्रिय थे, राजा थे। वे वैदिक सनातन धर्म के अनुयायी थे। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है। अतः मनु महाराज भी वर्ण व्यवस्था के समर्थक व पोषक रहे। इस व्यवस्था की कर्म के आधार पर शासन व्यवस्था के संचालन का उल्लेख मनु महाराज ने मनु स्मृति में किए। यह व्यवस्था सनातन हिन्दू समाज में सर्वमान्य थी। वर्ण चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, शूद्र हो सभी को सर्वमान्य थी। सभी वर्ण के लोग उसे उत्तम व्यवस्था मान कर सहर्ष अपनाए हुए थे। भागवत् गीता में श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है
चातुर्वण्यं मया सृष्टम् गुण कर्म विभाग शः
यानि प्रकृति के तीनों गुणों (सत/रज/तम) और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग (वर्ण) रचे गए हैं। वर्ण का आधार व्यक्ति का गुण, कर्म, योग्यता है। श्री कृष्ण के वंश के बारे में समाजशास्त्री का मत है कि वे युदुवंशीय क्षत्रिय थे। वेद मे वर्ण-व्यवस्था का प्रावधान स्वयं ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना उपरांत मानव सभ्यता व मानव समाज को व्यवस्थित करने हेतु की गई। वर्ण व्यवस्था मानव समाज के कल्याण हेतु देव-वाणी वेद में की गई।
मधुसूदन श्रीकृष्ण के अनुसार उन्होंने वर्ण व्यवस्था बहुत तर्कपूर्ण व वैज्ञानिक तरीके से बनाया, जो गुण कर्म और योग्यता के आधार पर था। सनातन हिन्दू धर्म के वैदिक काल में कर्म के अनुसार ही वर्ण का निर्धारण होता रहा। जन्म के आधार पर नहीं। मनु-स्मृति जो आज उपलब्ध है वह ब्रिटिश समय का है। मनु महाराज द्वारा लिखित मनु-स्मृति अब उपलब्ध नहीं है। 1780 से पहले की मनु-स्मृति उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध मनु-स्मृति अंग्रेज शासन काल में छपा है। जिसमें षडयंत्र व छल पूर्वक तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। ताकि समाज को बांटा जा सके। श्री राम चरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि कर्म से ही वर्ण होते हैं। परन्तु अपने देश में ब्रिटिश मैकाले के मानस पुत्रों की कोई कमी नहीं है।
इन छद्म धर्म निरपेक्ष वादियों को तो विदेशी प्रमाण चाहिए। कोई बात नहीं विदेशी प्रमाण भी हैं, देखिए इस विदेशी प्रमाण को :-
मेगास्थनीज ने इण्डिका में साफ-साफ लिखा है कि भारतीय समाज में कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण हो सकता है। ब्राह्मण होना किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं है। यदि आप ब्राह्मण जैसे जीवनचर्या रखते हैं, तपचर्या रखते हैं, ब्राह्मण जैसे ज्ञान-अर्जन करते हैं, तो आप ब्राह्मण हो सकते हैं। इस हेतु ब्राह्मण कुल में जन्म लेना आवश्यक नहीं है। ऐसा मेगस्थनीज ने लिखा है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि ब्राह्मण होने का निहितार्थ क्या है?
ब्राह्मण :- सबसे पहले ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के मंत्र-पाठ करने वाले ऋषियों के लिए किया गया था। वेदों की उत्पत्ति ब्रह्मा की प्रेरणा से हुई है। वेद ईश्वर की वाणी “देव वाणी” है, क्योंकि ईश्वर द्वारा रचित मंत्रों को ऋषियों द्वारा दिव्य दृष्टि व श्रवण से देख व सुन लिया जाता है। चूँकि ईश्वर वाणी से उत्पन्न मंत्रों को ऋषियों द्वारा सुनकर ग्रहण किया जाता है इसलिए वेद को श्रुत कहा जाता है तथा देव-मंत्रों को वेद के रूप में संकलित करने का कार्य ऋषि द्वारा किया जाता अतः उन ऋषियों को मंत्र द्रष्टा ऋषि कहा जाता है। ऋषियों ने अपने तप के बल पर, भीतर के कानों को जागृत कर वेद मंत्रों को सुने। सृष्टि की रचना के दौरान ईश्वर ने वेद को ब्रह्मा जी को प्रदान किए। ब्रह्मा जी ने अग्नि, वायु और सूर्य देव को वेद मंत्र सुनाया। आगे चलकर ब्रह्मा ने ऋषियों को वेद मंत्र दिए। मंत्रोच्चारण (मंत्र+ उसका उच्चारण) ही वेदों के आधार हैं। ये देव भाषा संस्कृत में मंत्र है। मन की आँखों से ही मंत्र को देखा जा सकता है। वाणी से उच्चारण कर मंत्र को अभिव्यक्त किया जाता है। मन से ही मंत्र का मनन होता है। मंत्र दृष्टा ऋषि बनने के लिए ना उम्र की कोई सीमा थी, ना जन्म का कोई बंधन। क्या ब्राह्मण, क्या शुद्र, क्या स्त्री, क्या पुरूष, वेदों के संकलन हेतु हर कुल, हर वर्ण के ऋषियों ने अपना योगदान दिया। इसमें गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, भारद्वाज, विश्वामित्र और अगस्त्य जैसे तपस्वी थे, घोषा, लोपामुद्रा, मैत्रेयी, गार्गी जैसी स्त्रियों थीं। वेदों के ज्ञान सभी (देश, वर्ण, स्त्री, पुरूष) के लिए हैं, जो भी ज्ञान का प्यासा है। वेद का अर्थ है ज्ञान। वेद पुरातन ज्ञान-विज्ञान का अथाह भण्डार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। ब्रह्मणत्व गुण प्राप्त कर किसी भी वर्ण के व्यक्ति ऋषि हो जाते थे। ऋषि का अर्थ है द्रष्टा। भारतीय वैदिक परम्परा में श्रुति ग्रंथों (चारों वेद) को ब्रह्मा से यथावत समझकर, उनके गूढ़ अर्थों को जानने वाला व मानव मात्र के कल्याण के लिए उन गूढ़ तत्वों के सरलीकरण कर लिखकर प्रकट करने वाला ऋषि कहलाए। महाकाव्यों रामायण व महाभारत की रचना ऋषि वाल्मिकी व वेद व्यास द्वारा की गई। ब्राह्मण की परिभाषा इस प्रकार है ” ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः। अर्थात् ब्राह्मण वह है जो ब्रह्मा (ईश्वर/ परम ज्ञान) को जानता है। अतः ब्राह्मण मतलब ईश्वर का ज्ञाता।
वैदिक काल में ब्राह्मण का अर्थ किसी जाति या समाज या जन्म से नहीं था, ब्राह्मणत्व गुण से था।
ब्राह्मणत्व गुण:- ईश्वरवादी, वेद वेदांत पाठी, ब्रह्म-उपासक, सरल, सत्यवादी, दृढ़-प्रतिज्ञ को ब्राह्मणत्व गुण कहते हैं। इन गुणों को ब्रह्मणोचित षट् कर्म कहते हैं। ब्राह्मण होने का अधिकार वैदिक काल में ब्राह्मण होने के अधिकार सभी वर्णों को थे, अगर वे ब्राह्मणत्व गुण अपना लेते थे।
आज के परिवेश में ब्राह्मण बनने का अधिकार ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को आज भी है। चाहे वह किसी जाति, प्रांत व सम्प्रदाय से हों। वह गायत्री दीक्षा लेकर ब्राह्मण बन सकता है। जैसे :- एक मुस्लिम मो. वसीम रिजवी ने कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में त्यागी ब्राह्मण बन गए।
ब्राह्मण को विप्र, भट व द्विज भी कहा जाता है। परन्तु कालांतर में (परवर्ती काल में) जब वर्ण-व्यवस्था के स्थान पर जाति व्यवस्था ने ले ली खासकर बाह्य आक्रांताओं के शासन काल व ब्रिटिश काल में, तब से जातियों का निर्धारण माता-पिता की जाति के आधार पर होने लगा है।
जाति (कास्ट) एक पुर्तगीज भाषा से उत्पन्न हुई है। ब्रिटिश राज, जो “बाँटो व राज करो” सोच पर आधारित था, उसके द्वारा भारत की 1931 ई. की जनगणना में 4147 जाति व उनकी सामाजिक स्थिति (ऊँची या नीची) बतायी गई है, हिन्दू समाज में। अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मणों द्वारा जाति व्यवस्था नहीं लायी गई है। बल्कि ब्रिटिश सेन्सस कमीश्नर जे.एच. हट्टन द्वारा सोची समझी रणनीति कि “फूट डालो व राज्य करो” के तहत थोपी गई है। इन बाह्य आक्रांताओं द्वारा फूट डालो व राज्य करो नीति के तहत थोपी गई व्यवस्था को दृष्टांत रखकर अब भी हम आपस में मनमुटाव रखें तथा हम अपनी साझी सनातन धर्म व्यवस्था को नजर अंदाज कर दें, तो यह अज्ञानता के सिवा कुछ नहीं। स्पष्ट है कि वैदिक काल में भारतीय समाज में वर्ण, जन्म-आधारित नहीं थे बल्कि कर्म आधारित थे। उनमें ऊँच-नीच के वर्ण-भेद नहीं थे। जाति व्यवस्था तथा जातियों के बीच ऊँच-नीच का स्तरीकरण बाह्य आक्रांताओं व ब्रिटिश के शासन काल में षडयंत्र पूर्वक स्थापित किए गए। अतः ब्राह्मण को वर्ण-व्यवस्था या जाति की ऊँच-नीच व्यवस्था बनाने वाला कहना गुमराह करने के सिवाय कुछ नहीं है।
एक उदाहरण से यह बात और स्पष्ट होगी कि आप भारत के संविधान को बनाने व लागू कराने की प्रक्रिया को याद कीजिए। जनवरी 1950 से लागू भारतीय संविधान में अब तक देश व समय की आवश्यकतानुसार अनेक संशोधन किए जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल भी हैं। क्या इन परवर्ती संशोधनों का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभावों हेतु संविधान के ड्राफ्टिंग कमिटी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? कदापि नहीं। फिर सैकड़ों वर्षों के बाद परवर्ती विकृत व्यवस्था (जाति-व्यवस्था) हेतु पूर्व वर्ती व्यवस्था को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यही है न्याय सम्मत ।
निष्कर्ष :-
इस संसार में ब्राह्मण ही एक ऐसा जीव रहा है जिसके पेट में रोटी भले ही न हो परन्तु होठों पर विश्व-कल्याण की प्रार्थना हमेशा बनी रहती है।
विश्व में अनेक पंथ व मजहब हैं, जिनके अनुयायी हमेशा अपने पंथ के अनुयायियों के कल्याण की बात सोचते व करते हैं। सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म है जो पूरी पृथ्वी के वासियों की कल्याण की बात करता है। यह आवाज “विश्व का कल्याण हो” सिर्फ मंदिरों से आती है। और मंदिर में ब्राह्मण अपने कंठ से ऐसे स्वर उच्चारित करते हैं। और कौन है विश्व में, जो मुक्त कंठ से ये गाता हो
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत।
यानि सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ निरोग होवें, सभी का जीवन मंगलमय हो, कोई दुःख का भागी न हो। सभी का मतलब सभी व्यक्ति चाहे वे धनी हो या गरीब, ब्राह्मण हों या गैर ब्राह्मण, अर्थात् अणु से ब्राह्माण्ड के सभी जन्तु चींटी से हाथी, गोरैया से गिद्ध पेड़-पौधों तक के कल्याण की कामना की जाती है। ये है हमारी परम्परा। ब्राह्मण के आदर्श एक-दूजे का हाथ थामकर आगे चलने की, आगे बढ़ने की भावना है। हिन्दू सनातन धर्म में ब्राह्मण को उनके ब्रह्मणत्व गुण के लिए देवता का रूप माना जाता है। धर्म शास्त्र का श्लोक देखिए :-
(ख) देवाधीनं जगत सर्वे मन्त्राधीना च देवता।
ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीना, तस्मात ब्राह्मण देवता ।।
अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, तथा देवता मंत्रों के अधीन हैं, और मंत्र ब्राह्मण के अधीन हैं, ब्राह्मण को देवता माने जाने का एक प्रमुख कारण यह है।
यह ठीक उसी के समानान्तर है जैसा कि एक डॉक्टर। जब वह मानव को बीमारी से बचाता है तो हमारा समाज उस डॉक्टर को ईश्वर का रूप मानता है। उसी तरह ब्राह्मण भी लोक कल्याण (लोगों के स्वस्थ व धन धान्य से पूर्ण जीवन) की प्रार्थना ईश्वर से अपने विशिष्ट जप-तप व वैदिक ज्ञान के द्वारा करते हैं, इसलिए ब्राह्मण भी देवता के रूप में जाने जाते रहे हैं।
अतः ब्राह्मण पर निगेटिव टिप्पणी करने के पूर्व एक बार जरूर सोचिए कि जब भी सनातन व भारत वर्ष को तोड़ने की कोशिश की गई, तब ब्राह्मणों ने अपनी शिखा खोलकर (संकल्पित होकर) राष्ट्र व उसकी संस्कृति को बचाया तथा एक सूत्र में बांधने का काम किया। ब्राह्मण वह दर्धीचि है जो विश्व कल्याण के लिए अपनी हड्डियों दान कने के लिए सहर्ष तैयार हो जाता है। ब्राह्मण वह परशुराम है जो क्षत्रिय श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने अपने सारी अस्त्र शस्त्र सौंप देता है। ब्राह्मण वह चाणक्य है जो एक वंचित/निर्धन / वनवासी चन्द्रगुप्त को उठाकर भारत के राज सिंहासन पर बैठा देता है।
ब्राह्मण वो आदि शंकराचार्य है जो अपनी असीम ज्ञान के भण्डार से समूचे भारतवर्ष को एक भगवा ध्वज के तले ला खड़ा करता है। ब्राहाण वह श्री रामकृष्ण परमहंस है, जिसके शरण में आने वाला शिष्य विवेकानन्द हो जाता है।
ब्राह्मण स्वामी समर्थ रामदास है जो क्षत्रपति शिवाजी महाराज जैसा शिष्य देकर इस धरा को धन्य कर देता है। ब्राह्मण शासक बाजी राव है जो एक राजपूत राजा (छत्रशाल, बुंदेलखण्ड) के स्वाभिमान की रक्षा के लिए थाली में सजा भोजन छोड़कर रण-भूमि की ओर चल पडता है। ब्राह्मण मंगल पाण्डेय है, जो भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के सिपाही विद्रोह के जनक थे, इस कारण 1857 में ब्रिटिश शासन ने फांसी पर चढ़ा दिया जो भारत की स्वाधीनता के माथे पर तिलक बनकर जगमगाता है।
ब्राह्मण वह राजगुरू, तात्या टोपे, श्री चन्द्रशेखर तिवारी आजाद, वीर सावरकर हैं जो भारत की स्वाधीनता हेतु सर्वस्व न्यौछावर करते हैं। ब्राह्मण बाल गंगाधर तिलक है जो भारत को अपनी संस्कृति पर पुनः गर्व करना सिखाता है।
ब्राह्मण दयानन्द सरस्वती है जो भारत वर्ष को वेदों की राह पर पर चलने का मार्गदर्शक बनता है। ब्राह्मण कुल की यशस्वी बेटी रानी लक्ष्मी बाई है जो वतन की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लड़ मरती है।
ब्राह्मण, जन्मजात तपस्वी व जन्मजात साधक होते हैं। जब ब्राह्मण :-
(1) संगीत की साधना करते हैं तानसेन बन जाते हैं
(2) स्वर की साधना करते हैं लता मंगेशकर बन जाते हैं।
(3) शब्द की साधना करते हैं तो महाकवि कालिदास और गोस्वामी तुलसीदास के नाम से अमर हो जाते हैं।
(4) क्रिकेट खेलते हैं तो क्रिकेट का भगवान तेंदुलकर बन जाते हैं या दी ग्रेट वॉल राहुल द्रविड़ बन जाते हैं।
(5) विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय खोलने भिक्षाटन करते हैं तो महामना मदन मोहन मालवीय बन जाते हैं और विश्व प्रसिद्ध बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का स्थापक बन जाते हैं।
(6) शिव की भक्ति करते हैं तो शिव उगना बन चाकरी करते है विद्यापति बन जाते हैं।
(7) गुरू बनते हैं गोपाल कृष्ण गोखले (8) दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हैं (महात्मा गांधी के गुरू) बन जाते हैं।
भारत रत्न सर्व पल्ली राधाकृष्णन बन जाते हैं। जिनका जन्मदिन 5 सितम्बर को भारत शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है।
(9) विज्ञान में रिसर्च करते हैं सी.वी. रमन (चन्द्रशेखर वेंकट रमन) बन जाते हैं। जो विश्व प्रसिद्ध “रमण-प्रभाव” की खोज कर 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत को गौरवान्चित करते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार जीतने वाले वे प्रथम एशियाई हैं। 28 फरवरी को रमण प्रभाव खोज करने के कारण भारत सरकार द्वारा 28 फरवरी को विज्ञान दिवस मनाया जाता है।
(10) स्वाधीनता की लड़ाई ब्रिटिश विरूद्ध छेड़ते हैं तो बाल गंगाधर तिलक बन जाते हैं और घोषणा करते हैं कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
(11) स्वतंत्रता प्राप्त करने सेनानी बनते हैं तो चन्द्रशेखर आजाद बन जाते हैं और दिल्ली में असेंबली बमकांड करते हैं, फिर स्वतंत्रता की शौर्य गाथा के लिए अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं।
(12) बाल्यावस्था में प्राच्य शिक्षा के अंतर्गत वेद वेदांत का अध्ययन अपने उद्भट विद्वान पिता अयाची मिश्र से प्राप्त कर बौद्धिक रूप से सक्षमता ग्रहण करते हैं तो शंकर मिश्र बन जाते हैं और अपने राज्य के राजा द्वारा परिचय पूछने पर अपना परिचय संस्कृत के श्लोक के रूप में देते हुए उद्घोष करते हैं
बालोऽहम जगदानन्द नमे बाला सरस्वती, अपूर्ण पञ्चमे वर्षे, वर्णयामि जगत्त्रयम।
अर्थात् प्राच्य विद्या में ऐसी प्रतिभा मिलना असंभव । आर्यभट्ट (महान गणितज्ञ व ज्योतिषविद), वराहमिहिर (गणितज्ञ व खगोलज्ञ), श्रीनिवास रामानुजन (गणितज्ञ), वेंकटरमण, राधाकृष्णन, हजारों लाखों यशस्वी ब्राह्मणों के नाम हमारे ब्रा-पटल पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं।
कर्मवीर, राष्ट्रभक्त उद्भट विद्वान व वीर सपूतों की इतनी लम्बी फेहरिस्त है कि कितनी भी कोशिश कर लूँ फिर भी यह नामों की सूची रह जाएगी आधी ही “।
मध्य प्रदेश के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री नियाज खान जो आधा दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण पुस्तकें व उपन्यास लिख चुके हैं, उन्होंने अपनी एक पुस्तक” ब्राह्मण द-ग्रेट” पुस्तक में रिसर्च के आधार पर ब्राह्राणों के शौर्य व कर्मठता का यशोगान करते हुए स्पष्ट उल्लेख किया है कि :-
क) भारत में ब्राह्मणों का आई-क्यू सर्वश्रेष्ठ है अतः ब्राह्मणों को हर क्षेत्र में उचित स्थान मिलना चाहिए। उन्होंने ब्राह्मणों को देश का बहुमूल्य सम्पत्ति करार दिया।
(ख) बॉलीवुड ब्राह्मणों के लिए नर्क की दुनिया है, जो ब्राह्मण समाज व धर्म-संस्कृति को बर्बाद कर रहा है।
(ग) चोटी-जेनउधारी ब्राह्मण भगवान का रूप होता है। ब्राह्मण बहादूरी का नाम है, ब्राह्मण दयालुता और इमानदारी का नाम है, ब्राह्मण एक प्रतिभा का नाम है, ब्राह्मण बलिदान का नाम है। ब्राह्मण देशभक्ति का नाम है, ब्राहाण सहनशीलता का नाम है, ब्राह्मण संस्कृति व धर्म का रक्षक है।
(घ) देश का बहुमूल्य सम्पत्ति है ब्राह्मण। भारत में ब्राह्मणों के दिमाग का उपयोग उन्हें उच्च पदों पर बिठा कर किया जाय तो भारत सुपर पावर बन सकता है।
उपर्युक्त सकारात्मक अन्वेषणात्मक तथ्यों के उपरांत भी इस भा.प्र.सेवा के अधिकारी को कई गैर ब्राह्मणों से ब्राह्मण के बारे में अपमानजनक टिप्पणी प्राप्त हुए तो वे आश्चर्यचकित रह गए। लेकिन इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। आप अपने अन्वेषणात्मक तथ्यों से ही इसे समझने की कोशिष किजिए। आपने लोमड़ी और खट्टे अंगूर की कहानी सुनी होगी! अथक प्रयास करके भी बेल पर लटके अंगूर प्राप्त नहीं हो सका तो चालाक लोमड़ी अपने मन में कहने लगी- अंगूर तो खट्टे होंगे। ये तो बेकार हैं। इन्हे कोई नहीं खाएगा। मैं तो चालाक लोमड़ी हूँ, और मुझे इन्हें खाना शोभा भी नहीं देता है। इन्हें खाना तो मेरी शान के खिलाफ है।
यह कथानक सटीक उदाहरण है ब्राह्मण (अंगूर) व कुछ अनभिज्ञ पद लोलुप्त राजनीतिक गैर- ब्राह्मणों (चालाक लोमड़ी) के। जबकि अंगूर व चालाक लोमड़ी की कहानी से शिक्षा यह निकलती है कि जब हम कोई कार्य करने में असमर्थ रहते हैं (अंगूर पाने में असमर्थ), तो हमें उस कार्य को और दक्षता से करना चाहिए, न कि उस कार्य को व्यर्थ समझकर उसका त्याग करना चाहिए। अतः इन कुछ अनभिज्ञ गैर-ब्राह्मणों को सही जानकारी प्राप्त कर ब्राह्मणों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर, बंधुत्व भावना के साथ व्यवहार व कार्य करना चाहिए, ताकि देश विकसित हो सके।
ब्राह्मण वर्ग के दर्शनशास्त्री, धर्मशास्त्री, पराक्रमी, प्रशासक, स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रभक्त, वैज्ञानिक, महाकवि, स्वर साधक, शिक्षाविदों ने अपनी-अपनी अद्वितीय कार्य-कौशल, अदम्य पराक्रम, अकल्पनीय शौर्य और अद्भुत कर्मठता से भारत वर्ष का मस्तक सदियों से गौरव से ऊँचा करते आए हैं, और आज भी कर रहे हैं। भारत के स्वर्णिम ऐतिहासिक अध्यायों से भारतीय ब्राम्हणों की कार्य कौशल, पराकम, कर्मठता व शौर्य को विलोपित कर दिया जाय तो कई ऐतिहासिक अध्याय विलुप्त हो जाएँगें। स्तरहीन व तथ्यविहीन चर्चाओं से झुठलाना भारत की प्राच्य व अर्वाचीन विद्वत परम्परा व गौरवपूर्ण शौर्य गाथा को इन्हें झुठलाने के समान है। अगर इस कुत्सित प्रयास को भारतीय प्रबुद्ध जनमानस रोकेगा नहीं तो भारतीय स्वर्णिम इतिहास ग्रंथ का गुरूत्व काफी कम व अधूरे हो जाएगें, जो हमारी अस्मिता व विरासत को कमजोर कर देगा।
आचार्य शंकर
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र, बी.एच.यू. वाराणसी)
एम.ए. समाजशास्त्र (अधूरा रहा) (जे.एन.यू, नई दिल्ली)
एल.एल.बी. (पं.रवि शंकर शुक्ला वि.वि. रायपुर)
ग्राम – अन्धरा ठाढ़ी जिला – मधुबनी (बिहार)