डेस्क : विद्यापति संस्कृत विद्वान के परिवार में जन्म लिए थे तथा खुद भी संस्कृत के बड़े विद्वान थे। संस्कृत पर अच्छी पकड़ के कारण संस्कृत में कई ग्रंथों तथा नाटकों की रचनाएँ किए। विद्यापति काल (1350 ई. से 1450 ई.) जो भारतीय इतिहास का “मध्ययुगीन काल” खण्ड था, वह भाषायी संक्रमण काल था। देश में मुस्लिम सल्तनत के कारण फारसी व अरबी भाषाओं का प्रचलन शासकीय प्रोत्साहन व संरक्षण के कारण बढ़ रहे थे। मिथिला (बंग प्रदेश के भाग होने के कारण ) में भी इस सल्तनत का असर काफी बढ़ रहा था। जिस कारण मिथिला में संस्कृत भाषा की चलन घट रही थी संस्कृत भाषा व साहित्य के चलन कुछ बुद्धिजन वर्गों के मध्य रह गया था।
जनभाषा अपभ्रंश से निकलकर अवहट्ट व मैथिली अर्थात देसिल बयना की तरफ अग्रसर थी ओइनवार वंशीय शासन काल (1325-1552 ई.) खासकर शिव सिंह व रानी लखिमा (मैथिल करद राज वंश) के तहत विद्यापति जो पूर्ण युवावस्था में थे, विद्वान थे, राज पंडित थे, अच्छे राजकीय कार्यों के प्रबंधक साबित हुए थे, उन्हें सामाजिक संगठन को मजबूत करने सेनापति जैसा कार्य भी सौंपा गया था। बाहरी आक्रांताओं का मिथिला पर बारंबार आक्रमण हो रहा था । मिथिला के सामाजिक व सैन्य संगठन को मजबूत करने विद्यापति को सामाजिक युग-बोध के तहत जन भाषा को मजबूत करने की जिम्मेदारी आ गई थी। मुट्ठीभर संस्कृत भाषी लोगों के बजाय जन साधारण की भाषा अवहट्ट व मैथिली की ग्राह्यता / स्वीकार्यता बढ़ चुकी थी। इस हालात को देखते हुए जन-जन से जुड़ने के लिए विद्यापति को संस्कृत की जगह अवहट्ट में कुछ रचनाए करनी पड़ी। इसके लिए नई भाषा में भाषायी पकड़ बनाने विद्यापति को अन्य भाषायी विद्वानों की तरह अतिरिक्त प्रयास करने पड़े।
अवहट्ट भाषा में दो महत्वपूर्ण रचनाएँ क्रमशः कीर्तिलता व कीर्ति पताका की गई। कीर्तिलता में विद्यापति द्वारा उल्लेख किया गया है कि :
सक्कअ वाणी बहुअ न भावई। पाउस रस को मम्म न पावई ।।
देसिल बयना सब जन मिट्ठा । तें तैसन जम्पओ अवहट्टा ।।
“देसिल बयना” शब्दों का प्रयोग विद्यापति जी द्वारा अवहट्ट भाषा में रचित कीर्तिलता में पहली बार किया गया। देसिल बयना में रचना करने का कारण उन्होनें उपर्युक्त पद्यांश में करते हुए इस प्रकार स्पष्ट किया संस्कृत भाषा केवल बुद्धजन / पंडितजन को अच्छा लगता है, प्राकृत भाषा का रस व नर्म कोई नहीं पा रहा है। देसी भाषा सब को अच्छा लग रहा है, इसलिए मैं अवहट्ट में रचना कर रहा हूँ।
कीर्तिपताका में मिथिला के ब्राम्हण शासकों तथा मैथिल योद्धाओं के विशिष्ट रण-कौशल का उल्लेख कीर्तिपताका में विद्यापति तिरहुत के शासक शिव सिंह व तिरहुत के योद्धागण के रण कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा किए हैं। प्रशंसा का कारण स्पष्ट करते हुए उल्लेख किए है कि शिव सिंह अपने मैथिल योद्धाओं के बल पर अनेक बार अक्रांता सुल्तानों की सेनाओं को रण कौशल में परास्त किए थे। अर्थात् अवहट्ट की इस रचना के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि मिथिला भूमि मैथिल योद्धाओं के शौर्य की गाथाओं से पूर्ण रही है।परन्तु विद्यापति इतने शालीन और शिष्ट थे कि वे अवहट्ट में रचित ग्रंथों व काव्यों को “जेहनो तेहनो” मतलब कोई खास नहीं, बल्कि साधारण रचना कहते हैं। इतना ही नहीं वे इस नई भाषा देसिल बयना (अवहट्ट व मैथिली) में काव्य रचना को अपने पूर्वज के मैथिल रचनाओं से तुलना करते हुए इसे “बालचन्द (द्वितीयाक चांद)” कहकर संबोधित करते हैं।
मैथिली भाषा के इस प्रारम्भिक / प्राचीन युग में मैथिली वांगमय के गगन में नक्षत्रों की संख्या नितांत कम हैं, किन्तु जो हैं, सूर्य के समान जाज्ज्वल्यमान और चन्द्र के समान देदीव्यमान हैं ज्योतिरीश्वर ठाकुर (जो विद्यापति के पूर्वज उनके पितामह के भाई थे ) जिन्होनें “वर्णरत्नाकार” लिखकर मैथिली गद्य की पहली रचनाकार की प्रतिष्ठा अर्जित किए थे कर्णाटवंशीय शासक शक्ति सिंह (1276 ई से 1296 ई के बीच ) के दरबार में सप्त सदस्यी परिषद् के सदस्य थे। साथ ही ज्योतिरीश्वर ठाकुर कर्णाट वंशीय अंतिम शासक हरि सिंह ( 1303-1324 ई.) के दरबार में शक्तिशाली मंत्री थे। प्रथम मैथिली गद्य की रचनाकार ज्योतिरीश्वर ठाकुर इस गगन के सूर्य हैं, और विद्यापति ने स्वयं अपने को बालचंद कहा है, अपने प्रारम्भिक रचनाओं को वर्ण रत्नाकर से तुलना करने पर परन्तु विद्यापति आगे चलकर मैथिली में सैकड़ों मधुर पदावलियों की रचना कर निश्चित रूप से “पूर्ण चंद्र” हो गए हैं। वैसे अवहट्ट में कीर्तिलता हो या कीर्तिपताका या फिर हो मैथिली की सुमधुर पदावलियाँ, कोई भी रचना, किसी अन्य रचना से कमतर किसी भाषा विद् द्वारा नहीं आंकी गई। वैदिक शास्त्रों की जननी मिथिला का वैदुष्य परम्परा महर्षि गौतम, जनक, याज्ञवल्य, मण्डन व वाचस्पति जैसे सारस्वत वरद पूत्रों से एसे भरे-पूरे हैं कि विद्यापति जैसे साहित्यिक मार्तण्ड भी विद्या से प्राप्त विनम्रता (विद्या ददाति विनियम् ) से झुक कर अपने पूर्वजों के प्रति आभार दर्शित करते हैं। उपर्युक्त दो उदाहरणों से स्पष्ट हैं कि वे अपने से वरिष्ठ मैथिल रचनाकारों को पूर्ण सम्मान देते थे।
Author – Shankar Jha