प्रसिद्ध लेखक शंकर झा की कलम से : मिथिला के कुछ ऋषियों के द्वारा वेदों के कई ऋचाओं की रचना की गई तथा अनेक विद्वानों विदुषियों के द्वारा कई वेदांत, उपनिषद व अन्य धर्म शास्त्रों की रचना की गई। मिथिला में वेदों तथा वेदो पर कई भाष्य के कारण अनेक वैदिक शास्त्रों की रचना की गई। जिसके कारण इस क्षेत्र में वैदिक परंपरा तथा उसके आधार पर सनातन हिन्दु धर्म को पूरे देश में पल्लवित व पुष्पित होने की उत्प्रेरणा मिली।
मिथिला के वैदिक परंपरा में गृहस्थ जीवन का महत्व, संन्यास जीवन का निषेध है शक्ति के उपासक के रूप में दुर्गा सप्तसती के मूल मंत्रों यथा “सर्वे भवन्तु सुखिनः”, “सर्व धर्म समभाव”, “सादा जीवन उच्च विचार” तथा “अतिथि देवो भवः” की शास्वत भावना जन-जन में व्याप्त रहा है। साथ ही प्राच्य सामाजिक व्यवस्था समाज शास्त्र के विषय वस्तु “जजमानी प्रथा पर आधारित परस्पर जातीय सौहार्द का अनूठा मिसाल भी मिथिला ने पेश किया है।
आइए संक्षिप्त में जानते हैं मिथिला की इन मिसालों को :
“मिथिला वेद भूमि है” :
आर्य सभ्यता व सनातन धर्म में वेदों का सर्वोच्च स्थान रहता आया है। चार वेदों क्रमशः ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, और यजुर्वेद में संकलित ऋचाओं ( श्लोंको) से स्पष्ट होता है कि इन वेदों में कई विषयों पर कई ऋषियों के मंत्रों के संकलन हैं। प्रत्येक वेद में ऋषियों की संख्या एक से अधिक है परंन्तु प्रत्येक वेद में किसी एक ऋषि की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण रही है जिन्हें “मंत्र द्रष्टा ऋषि के रूप में नामित करते हुए उन्हें सम्मान दिया गया है।
इन ऋषियों में से कुछ ऋषि जो मिथिला के हैं तथा जिनकी भूमिका वेदों के संकलन में महत्वपूर्ण हैं, उनका विवरण इस प्रकार है :
(क) ॠग्वेद :- ऋग्वेद के मंत्र दृष्टा थे कौथुम ऋषि। साथ ही गौतम ऋषि (जनक वंशके आदि गुरू) ने ऋग्वेद के 15 सूक्त की रचना की जिन्हें ” मारूत सूक्त ” कहा जाता है।
(ख) यजुर्वेद :- शुक्ल यजुर्वेद ” के मंत्र द्रष्टा ऋषि थे याज्ञवल्क्य, (जो महर्षि सीरध्वज जनक के आध्यात्मिक गुरु थे ।)
(ग) सामवेद :- के मंत्र द्रष्टा ऋषि थे गौतम ऋषि (जनक वंश के आदिगुरू)। देवी भागवत में चार वेदों के ऋचाओं को ऋषियों मुनियों द्वारा सूत्रबद्ध करने तथा चार वेदों को संकलित करने का विवरण दिया गया है। उसके अध्ययन से स्पष्ट है कि चार वेदों की रचना में मिथिला क्षेत्र, विशेष रूप से गौतम ऋषि का आश्रम “ब्रम्हपुर जिला दरभंगा, तथा गौतम ऋषि व याज्ञवल्क्य ऋषि के महत्वपूर्ण योगदान रहे हैं।
वेदों के गूढ़ ऋचाओं में ऋषि मुनियों द्वारा सूत्रबद्ध किए गए विषयवस्तु सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक हैं। पुरातन काल में सनातन धर्म के अंतर्गत ऋषिमुनि ही हमारी संस्कृति, सभ्यता, आचार, विचार, रीति-रिवाज के जनक रहे हैं। अतः इनके द्वारा इन सभी को वेदों की ऋचाओं में सूत्रबद्ध कर दिए गए ताकि भविष्य में ये समाज के पथ-प्रदर्शक का काम कर सके।वेदों में सूत्रबद्ध ऋच्चए संस्कृत में है तथा काफी गूढ रूप में है। जनसामान्य को इन्हें समझना कठिन है। अतः वेदों के मूल आचाओं को समझाने हेतु कई ऋषियों विद्वानों के द्वारा अपने-अपने तरीके से कई टीका/पिणी /अभिमत लिखे गए जिन्हें वेदांत / उपनिषद कहे जाते हैं।
• मिथिला समाज की रीति रिवाज इन चार वेदाच सैकड़ों वेदान्ता / उपनिषदो में प्रतिपादित सिद्धान्तों पर आधारित है इन्हें ही मिथिला का वैदिक परंपरा कहते हैं। चार वेदों में से शुक्ल यजुर्वेद का महत्व सर्वाधिक है।
शुक्ल यजुर्वेद के दो उपनिषद् जिन्हें मिथिला के सामाजिक / पारिवारिक परिवेश में सबसे ज्यादा स्वीकार्य है, व इस प्रकार हैं-
(क) ईशावास्योपनिषद इनमें केवल 18 मंत्र है। इसका दूसरा मंत्र में कहा गया है कि काम करते हुए सौ वर्षो तक मनुष्य को जीने की इच्छा करनी चाहिए” यह आश्रम व्यवस्था की बात करती है अर्थात् सन्यास लेने की बात को खंडित करती है।
(ख) बृहदारण्यकोपनिषद इस उननिषद के अंत में कहा गया है कि यज्ञादि प्रयत्न से भी पुत्र प्राप्त करना चाहिए। यह भी सन्यास लेने की बात को खंडित करता है। साथ ही सनातन धर्म को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाने (अर्थात् शाश्वत् रखने की बात कहता है।ये दोनों उपनिषद प्रवृत्ति मार्ग (गृहस्थ जीवन) सिद्धान्त के पोषक है तथा अद्वैत वेदान्त के प्रवृत्ति मार्ग मूलक है। लगभग 75 प्रतिशत मैथिल शुक्ल यजुर्वेद के समर्थक हैं।
याज्ञवल्क्य द्वारा तैयार किया गया शुक्ल यजुर्वेद को उन्होंने अपने पिता “वाजसनेय मुनि” के नाम पर समर्पित किया इसलिए इसे “वाजसनेयी संहिता” भी कहते हैं तथा इसके समर्थक मैथिलों को “वाजसनेयी” कहा जाता है। इसके बाद दूसरा वेद जो मिथिला में महत्व रखते है वो सामवेद है। सामवेद पर संकलित टीका को छन्दोग्योपनिषद कहते हैं। इस उपनिषद के मथिल समर्थकों को “छन्दोग” कहा जाता है। इस उपनिषद के अंत में यह बात कही गयी है कि, “परिवार में रहते हुए पवित्र स्थान में वेद और वेदांत के अध्ययन करते हुए पुत्र. पात्र शिष्य एवं प्रशिष्य को धर्मात्मा बनाते हुए सभी इंन्द्रियों पर यथोचित नियंत्रण से जो समग्र जीवन जीता है उसे स्वर्ग के साथ-साथ मोक्ष की अवश्य प्राप्ति होती है। लगभग 25 प्रतिशत मैथिल छन्दोग हैं। मिथिला के लोगों की रीति-रिवाज, सामाजिक व धार्मिक क्रियाकलाप यथा मुंडन, जनेउ शादी, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि भी इन्हीं वेदान्तों के सिद्धान्तों एक अनुरूप मिथिला के जीवन में घुलकर परंपरागत रूप में मान्यता लिए हुए सदियों से चला आ रही हैं।
मिथिला के वैदिक परंपरा में सनातन धर्म को शाश्वत रखने का संकल्प” (गृहस्थ जीवन) –
मिथिला के वैदिक परंपरा ने गृहस्थ जीवन के महत्व को बढ़ाया है तथा संन्यास जीवन का निषेध किया है। मैथिल महर्षि द्वय गौतम व याज्ञवल्क्य का प्रभाव संपूर्ण मिथिला पर रहा हैं।
इनके द्वारा प्रतिपादित वेद, वेदान्तों का सार है कि :-
वेद वेदान्तों का अध्ययन, अध्यापन करते हुए पुत्र पौत्रादि को धर्मात्मा बनाते हुए संपूर्ण जीवन परिवार में रहते हुए (अर्थात् गृहस्थ जीवन जीते हुए) जो व्यतीत करते हैं, उसे स्वर्ग प्राप्ति के साथ-साथ मोक्ष ( पुर्नजन्म से मुक्ति ) प्राप्त हो जाती है। अतः मिथिला के लोग वैदिक परंपरा के कारण गृहस्थ जीवन के अवधारणा को अपनाए तथा संन्यास जीवन से दूर रहे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह रहा है कि, मिथिला को शासित करने वाले किसी भी राजवंश (इक्ष्वाकु वंश. जनक वंश पाल वंश, सेन वंश, कर्णाट वंश ओईन वार वंश व खण्डवला वंश) के राजा सन्यासी नहीं हुए। साथ ही मिथिला के सभी ऋषि मुनि भी पारिवारिक जीवन व्यतीत किए। मिथिला के प्रवृत्ति मार्ग के अद्वैत वेदान्त का समर्थन तुलसीदास ने अपनी रचना रामचरित मानस में तथा वेद व्यास ने अपनी रचना महाभारत के गीता संदेश में की है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने प्रतिपादित किया है कि “हाथों से कर्म करते हुए भी मानसिक स्तर पर ब्रम्ह (ईश्वर) से संपर्क बनाए रखा जा सकता है. तो आज के युग में जटिल समस्याओं के निदान में यह रामबाण का काम कर सकता है” गीता उपदेश में यह प्रतिपादित किया गया है कि “धर्मयुद्ध (महाभारत) से विमुख नहीं होने के लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि जनक आदि कृषि कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त किए थे।
‘मिथिला का वैदिक परंपरा आधारित रीति-रिवाज देश में सर्वोत्तम व शाश्वत”
-राजा जनक, ऋषि याज्ञवल्क्य ऋषि गौतम कुमारिल भट्ट (मीमांसा के मर्मज्ञ, मीमांसा – वार्तिकाकार कहलाए ) मण्डन मिश्र (आठवीं सदी में हुए आदि शंकराचार्य के समकालीन थे), वाचस्पति मिश्र (दसवीं सदी में अधराठाढ़ी में हुए षटदर्शन शास्त्रों की रचना किए जिनमें भामती टीका विश्व प्रसिद्ध हुआ).
उदयानाचार्य (दसवीं सदी में ग्राम कडियन जिला समस्तीपुर में हुए मण्डन वाचस्पति द्वारा स्थापित मिथिला के अद्वैत वेदांत को मजबूती से आगे बढ़ाए तथा नास्तिक विचार धाराओं क्रमशः बौद्ध, जैन, चार्वाक के सिद्धान्त को तर्क से निषेध करने का कार्य किया), अयाची मिश्र / भवनाथ मिश्र (पंद्रहवीं सदी में सरिसवपाही गांव) महाकवि विद्यापति (चौदहवीं व पंद्रहवीं शताब्दि के मध्य), कविश्वर चंदा झा / चंद्रनाथ झा (उन्नीसवीं सदी व बीसवीं सदी में) मिथिला के विदूषियों क्रमशः अहिल्या (गौतम ऋषि की पत्नी), गार्गी (ऋषि याज्ञवल्क्य के ब्रम्ह ज्ञानी विदूषी पत्नि), मैत्रेयी ब्रम्ह ज्ञानी विदुषी (जो याज्ञवल्क्य की द्वितीय पत्नी थी), सुनयना ( राजा सीरध्वज जनक की विदुषी पत्नी तथा सीता की माता). सीता (राजा सीरध्वज जनक की प्रथम पुत्री, जो श्रीराम की पत्नी थी), उर्मिला ( राजा सीरध्वज जनक की दूसरी पूत्री जिनकी शादी लक्ष्मण से हुई), माण्डवी (राजा सीरध्वज जनक के छोटे भाई कुषध्वज जनक की बड़ी पुत्री जो भरत की पत्नी हुई)।
श्रुतिकिर्ति (कुषध्वज जनक की दुसरी पूत्री जिनकी शादी शत्रुघ्न से हुई), भारती ( मण्डन मिश्र की पत्नी तथा कुमारिल भट्ट की बहन ) भामती (प्रख्यात दर्शनशास्त्री पंडित वाचस्पति मिश्र की पत्नी) आदि के उज्जवल कीर्ति कौमुदी ने मिथिला के वैदिक परंम्पराओं तथा • संम्पूर्ण भारतीय वाडगमय को चमत्कृत किया है, जिसकी तुलना “न भूतो न भविष्यति” ।
मिथिला के वैदिक परंपरा के अंतर्गत देव भाषा संस्कृत के श्लोकों की लय काफी कर्णप्रिय है। साथ ही सकरात्मक ऊर्जा शक्ति से परिपूर्ण मनोहारी व आध्यात्मिक शांति देने वाले हैं।
यज्ञकुण्ड से निकलने वाले सुगंधित धुएँ वायुमण्डल को शुद्ध करने वाले होते हैं। इस वैदिक परंपरा आधारित रीति- रीवाज एक ओर धार्मिक भावना को जगाते है, सत्कर्म की ओर प्रेरित करते हैं तो दूसरी ओर “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामया” का सर्वोत्तम व शाश्वत अलख जगाते है।
“मिथिला का वैदिक परंपरा आधारित धर्माचरण सर्व धर्म समभाव के सिद्धान्त का परिपोषक :
मिथिला धर्म प्राण देश है। मुस्लिम शासको के साथ मिथिला में मुस्लिम समुदाय की संख्या अच्छी खासी रही है तथा बाद में सिख व ईसाई समुदाय के लोग भी यहाँ आकर वास करने लगे। सभी धर्मावलंबी साथ साथ रहते हुए अपने अपने धार्मिक अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों का निर्वाहन बिना विघ्न वाधा के करते रहे हैं। मिथिला में जो धार्मिक सहिष्णुता थी वह शायद ही कहीं अन्य जगह देखने को मिलता है। इसका मुख्य कारण बहुसंख्यक मैथिलों के आचार-व्यवहार में सर्व धर्म समभाव के सिद्धान्त का होना है। यहाँ एक समुदाय के लोग दूसरे समुदायों के त्यौहारों में शामिल होते रहे हैं। उदाहरणार्थ मुसलमान लोग हिन्दु के महत्वपूर्ण त्यौहारों यथा दुर्गा पूजा के मेलो में भागीदार बनते हैं, दुर्गा पण्डाल में आकर दर्शन करते हैं, दीपावली व होली की बधाईयाँ हिन्दु भाइयों को देते हैं। वहीं हिन्दु लोग मुस्लिम के दरगाहों व मजारों पर जाकर मन्नतें मांगते है, चादर चढ़ाते है। कुछ लोग मुस्लिम वैगाओं से झाड़ फूक भी करवाते है और मुहर्रम के दाहा (तजिया) को सम्मान देते हैं।
मिथिला वैदिक आधारित आचार व्यवहार के चलते जातीय सौहार्द की अनूठी मिसाल पेश करता है :
मिथिला की जातीय व्यवस्था में वैदिक काल से ही ऐसी समन्वय दिखलाई देता है जो देश के किसी अन्य भाग में देखना मुश्किल है। ब्राम्हण यादव, मल्लाह, कमार, डोम, कुम्भकार, नाई आदि एक दूसरे के धार्मिक अनुष्ठान में सहयोग कर यज्ञ को पूर्णता देते हैं। ब्राम्हण पूजा-पाठ, कुम्भकार वर्तन, कमार वेदी श्रुवा, डोम सूप डाली, यादव दूध गोघृत, मल्लाह मत्स्य व्यवस्था तो नाई केश आदि काटकर सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान की पूर्णता में सहायक होते हैं। अर्थात् सभी जाति एक दूसरे पर सौहार्दपूर्ण आश्रित होते हैं।