डॉ.एस.बी.एस.चौहान
चकरनगर,इटावा। तानसेन और बैजू बाबरा भारतीय संगीत के चमकते हुए सितारे हैं। समकालीन होते हुए भी दोनों में एक गुमनामी अंधेरे में मानो खो गया हो जबकि दूसरे यानी तानसेन का नाम आज भी रौशन है। भले ही इसमें सरकार की खास भूमिका रही हो। तानसेन और बैजू बावरा मुगल बादशाह अकबर के समय के महान संगीतकारों में से थे। दोनों ही बेजोड़ और लाजवाब लेकिन अबुल फजल लेखक ने अपनी किताब “आईने अकबरी” में बैजू को पूरी तरह से उपेक्षित किया जबकि तानसेन का बढ़ चढ़कर बखान किया गया है। निसंदेह पुरानी भारतीय क्लासिकल हिट फिल्म बैजू बावरा और पिछले वर्षों बने टीवी सीरियल मृगनयनी के कारण बैजू जिसका वास्तविक नाम बैजनाथ था जो आज भी देश-विदेशों के जनमानस में विद्यमान है। खासकर संगीत संगम से जुड़े लोग तो इस नाम से परिचित हैं ही लेकिन किसी तरह का व्यक्तिगत, संस्थागत या सरकारी समारोह जैसा कोई भी आयोजन इस बेजोड़ गायक की याद में नहीं होता है। हमारे संवाददाता को यहां के पत्रकार चंद्रबेश पांडेय व केदार जैन ने चंदेरी में बेजू बावरा की स्थित समाधि स्थल को कुछ समय पहले दिखाते हुए सुविधा व सुविधाओं पर प्रकाश डालते हुए बताया की तानसेन को आज भी सरकारी संरक्षण प्राप्त है और उनकी याद में यहां प्रतिवर्ष एक बड़ा संगीत समारोह होता है जिसमें देश भर के मूर्धन्य गायक संगीतकार आपने अपनी कला का 3 दिन तक प्रदर्शन करते हैं। उधर बैजू की उपेक्षा आज भी जारी है इस महान गायक की समाधि तो है लेकिन वह लावारिसों की तरह है यहां यह एक सच्चाई है बैजू की यह टूटी-फूटी समाधि मध्यप्रदेश के कथित कलाधर्मी दिग्विजय सिंह के गृह जनपद गुना के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल चंदेरी में स्थित है। यह समाधि स्थल एक चबूतरे नुमा है इस पर लिखा भी है बैजू बावरा की समाधि। बरिष्ठ पत्रकार चंद्र वेश के अनुसार बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक अबुल फजल ने अपने ग्रंथ आईने अकबरी में महान संगीतज्ञ बैजू का नाम कहीं शामिल नहीं किया है उसने बैजू की उपेक्षा आखिर क्यों की इसका जवाब एक अंग्रेज विद्वान क्लोडविन ने अपनी पुस्तक “दी हिस्टोरिकल नोट्स आप इंडिया म्यूजिक” में लिखा है क्लोडबिन लिखता है कि बैजू भारतीय संगीत के क्षेत्र में किसी भी दृष्टि में कम नहीं था बैजू के जन्म और जीवन के बारे में भले ही ऐतिहासिक तथ्य ना मिलते हों लेकिन उसके बारे में बनी जनश्रुतियां और किवदंतियां उसके संगीत जीवन की ऊंचाइयों को विस्तार पूर्वक स्पष्ट करती हैं क्लोडमिन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अबुल फजल ने बैजू भैया के साथ घोर अन्याय किया और उसकी मानो हत्या कर दी हो न जाने किस जन्म का बैर निभाया। लेखक अबुल फजल ने बैजू को किसी भी स्थान पर नहीं गिना। जबकि बैजू बावरा ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के समकक्ष का संगीतज्ञ था। पत्रकार केदार जैन ने समाधि स्थल को दिखाते हुए हमारे संवाददाता डॉ एस बी एस चौहान इटावा को बताया कि दरअसल बैजू बावरा एक स्वाभिमानी कलाकार था उसके तानसेन से अच्छे संबंध भी नहीं थे। इसलिए लेखक अबुल फजल ने तानसेन को प्रसन्न रखने के लिए अपनी लिखित पुस्तक आईने अकबरी से भेजू का नाम तक उड़ा दिया। वैसे भी उस वक्त का माहौल ईर्ष्या और स्पर्धा से भरा हुआ था। ऐसे में बैजू भी ईर्ष्या का शिकार हुआ। तब से लेकर आज तक उपेक्षित बेजू ही है। यहां प्रतिवर्ष दिसंबर के इर्द-गिर्द मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संस्कृति विभाग के जरिए तानसेन की याद में एक कार्यक्रम संपन्न होता है। तानसेन की समाधि पर रौशनी की जाएगी वहीं दूसरी तरफ चंदेरी में बनी बैजू की टूटी फूटी समाधि हमेशा की तरह अंधेरे में डूबी रहेगी। अब तो वैसे भी झाड़-झंखाड़ों ने उसे ढक लिया है। समाधि के पत्थर भी वर्षों से आंधी पानी बारिश की मार सहते-सहते टूट चुके हैं। यहां पर आगे बताया गया कि प्रसिद्ध उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास “मृगनयनी” में बैजू के बारे में किए गए उल्लेख के मुताबिक जहां आज बैजू की टूटी फूटी समाधि है उसके पास किसी जमाने में बेजू का छोटा सा घर था। चंदेरी किले के भवन में सूबेदार राज सिंह रहते थे। उनकी बैजनाथ से अच्छी मित्रता थी बैजनाथ उर्फ बैजू सूबेदार को संगीत सुनाया करता था इसके बदले सूबेदार उसकी मदद कर दिया करता था। सूवेदार भवन के अवशेष/खंडहर आज भी चंदेरी में विद्यमान है। बताते हैं कि बैजू अपने गायन-वादन को निखारने के लिए दिन-रात संगीत की साधना किया करता था भूख-प्यास, अवसर-कुअवसर कि उसे कतई परवाह नहीं थी। संगीत की साधना में हुए पागल सा हो जाता था ऐसे में नगर के लोग उसे बाबरा कहने लगे थे। कालांतर में यही बैजू का नाम बैजू बावरा के नाम से पहचान बना गया था। बैजू का विवाह एक कला नाम की लड़की से हुआ था जो चित्रकार थी वह गाने में बेजू का साथ देती थी। विवाह के बाद बैजू और कला राजा मानसिंह के दरबार में पहुंचे क्योंकि राजा मानसिंह खुद संगीत के जानकार और परखी सो वे बैजू का गाना सुनकर प्रसन्न हो गए और उसे अपने दरबार में रख लिया। बैजू राजा मानसिंह की पत्नी मृगनयनी को संगीत की शिक्षा देने लगे कुछ ही दिनों में बैजू ने मृगनयनी को गायन में प्रवीण कर दिया। बताते हैं कि बैजू के सहयोग से ही राजा मानसिंह ने गायन की ध्रुपद शैली परिष्कृत और विकसित की थी। फ्रांसीसी इतिहासकार के बारे में चंद्रबेश पांडे बताते हैं की फ्राईनोजीम ने अपनी पुस्तक इंडियन म्यूजिक एंड इट्स हिस्टोरिकल डेवलपमेंट में लिखा है कि भारतीय संगीत में बैजू का कार्य स्तुत्य है वह मान सिंह के समय का कीमती रत्न था बैजू के स्वभाव के बारे में फ्राईनो ने लिखा है कि बैजू बाह्यआडम्बरी ढोंग और ख्यात की चमक से दूर रहता था। उसकी प्रकृति बड़ी सादा और सरल थी। वह तानसेन की तरह से यश चाहने वाला कलाकार नहीं था। संगीत की किताबों में बैजू द्वारा रचित ध्रुपद आज भी उसके अस्तित्व को बनाए हुए हैं तत्कालीन समय में बेजू की उपेक्षा हुई है इसके बाद यदि गहराई से मनन किया जाए तो आत्मा साफ कहती है कि बैजू जैसा संगीतज्ञ आज तक समझ में ही नहीं आ रहा है लेकिन वर्तमान में बैजू जैसे महान संगीतज्ञ की उपेक्षा का कारण समझ से परेय है। देश के बड़े-बड़े संगीतज्ञ बेजू के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं लेकिन उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उन सब ने किया कुछ भी नहीं। राज्य और केंद्र की सरकार ने तो इस महान संगीतज्ञ को उपेक्षित कर ही दिया है। इस संदर्भ में चकरनगर क्षेत्र के पूर्व सितारा वादक प्रख्यात कमल दास महाराज कहते हैं कि “तानसेन की तान बैजू की पहचान” किसी से कम नहीं है बस कमी सिर्फ इतनी कि बैजू अपनी संगीत साधना को आगे बढ़ाने व उसका मज्जन करने में अध्ययनरत रहा जबकि तानसेन प्रचार प्रसार का बड़ा माध्यम खोजता था। बस यही अंतराल आज के कालांतर में छा गया और तानसेन की समाधि स्थल एक देव पूजन में शामिल कर दी गई। बैजू बावरा की समाधि एक खंडहर में तब्दील हो रही है और चारों ओर से झांकर व मकड़जाल फैल रहा है यहां कोई भी सुध लेने वाला तक बारिश नहीं दिखाई दे रहा है जो एक विडंबना ही है इसके लिए राज्य व केंद्र दोनों सरकारों को मिलकर बैजू की तरफ ध्यान देना चाहिए जो एक न्याय संगत व सराहनीय कार्य होगा।