डेस्क : वेदों की उद्भव स्थली मिथिला जिसके पावन धरा पर वेदों, दर्शन शास्त्रों व धर्म-शास्त्रों की रचना से संस्कृत वाड्मय की श्रीवृद्धि की गई, उसका एक महत्वपूर्ण केन्द्र है अंधराठाढ़ी । दर्शन शास्त्र के नभोमण्डल पर उद्भासित सबसे चमकदार नक्षत्रों में से एक सर्व तंत्र स्वतंत्र षडदर्शन टीकाकार वाचस्पति मिश्र के जन्म व कर्मभूमि होने के कारण इस ग्राम स्थिति रेवले स्टेशन का नाम वाचस्पति नगर है। मधुबनी जिलान्तर्गत अंधराठाढ़ी विद्या, विद्वानों और दर्शनशास्त्रज्ञों का धवल धाम रहा है। इस विशाल ग्राम में अनेक देदीप्यमान सारस्वत मनीषियों ने जन्म लेकर इस गुलशन के प्रसून की सुरभि को विश्व के साहित्यिक मंच पर सुरभित किया है, जो आज पर्यन्त निर्मल रूप में अवाध गति से महमहाती चली आ रही है। उपलब्ध ऐतिहासिक स्त्रोतों के आधार पर हम निःसंदेह दावा कर सकते हैं कि दसवीं सदी के प्रारम्भ से लेकर इक्कीसवीं सदी (आज पर्यन्त) के मध्य मिथिला के इस पावन गुलशन में एक से बढ़कर एक विलक्षण सुरभि सुसज्ज प्रसूनों ने अपनी अपनी सुगंधों को चारों तरफ बिखेरा है। इनकी विभिन्न विधाओं (यथा दर्शन, न्याय, मीमांसा, व्याकरण, धर्म शास्त्र, तंत्र-मंत्र विद्या, ज्योतिश षास्त्र, कर्म काण्ड, मैथिली पदावली, मैथिली गीत, मैथिली राग-रागिनी आदि) में अमर रचनाएँ इनके यशस कीर्ति हैं। इनमें से कुछ मनीषियों के कीर्ति चाँदनी की स्निग्ध ज्योत्सना को आप सबके समक्ष प्रस्तुत करने का भगीरथी प्रयास कर रहा हूं। प्रारम्भ करते हैं अंधराठाढ़ी के विद्या वैदुष्य परम्परा के महानतम् हस्ताक्षर षडदर्शन टीकाकार वाचस्पति मिश्र से।
वाचस्पति मिश्र
ऽ वाचस्पति मिश्र 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में (920 से 976-77 के आसपास) हुए।
ऽ पं. मिश्र नृगनामक मिथिला के राजा के यहाँ पण्डित थे।
ऽ गोवर्द्धन मठ पुरी के जगतगुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती द्वारा 13.03.1994 में ग्राम ठाढ़ी के वाचस्पति मिश्र के डीह पर आकर पं. मिश्र की स्मृति में श्रद्धा सुमन अर्पित करना तथा भारत सरकार के तत्कालीन रेल मंत्री श्री ललित ना. मिश्र द्वारा अंधराठाढ़ी ग्राम के रेलवे स्टेशन का नाम वाचस्पति नगर के रूप में नामकरण करने की मंजूरी, सारे शंकाओं-कुशंकाओं का दूर करते हुए वैधानिक मुहर लगाता है कि मिथिला के इसी भूभाग पर षड्दर्शन टीकाकार पं. वाचस्पति मिश्र अवतरित हुए थे।
ऽ अनश्रुति है कि वृहस्पति के पुत्र ‘‘कच’’ मनुष्य रूप धारण करके वाचस्पति से पढ़ने के लिए आया करते थे।
ऽ पं. वाचस्पति मिश्र द्वारा रचित आठ टीकाएँ है, जो इस प्रकार हैं :-
(1) न्याय दर्शन :- (क) न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका (ख) न्याय सूत्री निबंध
(2) वेदान्त :- (क) मण्डन मिश्र के अद्वैत वेदान्त ‘‘ब्रह्मसिद्धि’’ पर टीका- ब्रह्म तत्व समीक्षा
(ख) जगत् गुरू शंकराचार्य के द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र – शांकर भाष्यम् पर टीका- ‘‘भामती’’ (भामती – पं. मिश्र की अंतिम रचना थी जो सर्वाधिक मान्य व आदरणीय है।)
(3) मीमांसा दर्शन :- (क) न्याय कर्णिका
(ख) तत्व विन्दुः
(4) सांख्य दर्शन :- (क) सांख्य तत्व कौमुदी
(5) योग दर्शन :- (क) योग वैशारदी
वे अपनी अंतिम पुस्तक ‘‘भामती टीका’’ जो कि ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्यम् (अर्थात् ब्रह्मसूत्र पर जगत्गुरू शंकराचार्य द्वारा व्याख्या जिसे भाष्य कहते हैं) है, उस पर टीका लिखकर अपनी पत्नी भामती मिश्र के नाम ‘‘भामती’’ के रूप में समर्पित कर दिए।
‘भामती टीका’ का महत्व :-
यदि पं. वाचस्पति मिश्र ब्रह्मसूत्र पर शंकराचार्य के भाष्यम (व्याख्या) पर भामती टीका नहीं लिखते तो शंकराचार्य का यह ग्रंथ समय के प्रवाह में विलुप्त हो जाता। और सच्चिदानन्द (सत्$चित्$आनन्द) का वह दिव्य स्वरूप एक रहस्य ही रह जाता। भामती गं्रथ मिथिला, मैथिल के अद्वैत वेदान्त रूपी सनातन विचार रूपी दस्तावेज को अक्षुण्ण रखेगा, जिसकी अमिट छाप हजारों वर्षों से चलता आ रहा है।
पं. विश्वनाथ झा (नैयायिक शिरोमणि)
{मिथिला के ‘‘दूसरे गौतम’’ दरभंगा महाराज को इनके षर्तों को मानने विवष होना पड़ा इन्हें अपने दरबार में पंडित के रूप में हासिल करने}
ऽ मिथिला में नैयायिकों की एक सुदृढ़ श्रृखला़ मण्डन मिश्र-वाचस्पति मिश्र-विश्वनाथ झा के रूप में चलती आयी।
ऽ पं. विष्वनाथ झा का जन्म 1836 में यमसम ग्राम में हुआ था। परन्तु ये जब 10 वर्ष के थे, इनके पिता का निधन हो गया, अतः इनके मामा ग्राम ठाढ़ी वासी श्री गिरिधारी झा इन्हें ठाढ़ी लेकर आ गए।
ऽ इनकी विद्वता से प्रसन्न होकर दरभंगा महाराज म. लक्ष्मीश्वर सिंह इन्हें अपने दरबार में पण्डित के रूप में रखना चाहते थे । दरभंगा महाराज जब इन्हें दरबार में आकर पण्डित के पद सुशोभित करने आग्रह किया था तो उन्होंने दो शर्ते रखी –
(1) राजभवन में कभी भोजन नहीं करेंगे ।
(2) अगर कहीं जाना होगा तो आवेदन पत्र देकर चले जाएंगे ।
ऽ परतंत्रता में जीना इन्हें स्वीकार नहीं था, ये उन्मुक्त विचार के परिपोषक पण्डित थे। महराज ने इनकी विशिष्ट विद्वता को ध्यान में रखकर दोनों शर्तें मंजूर कर इन्हें विद्वान के रूप में दरबार में रखा, उन्हें सम्माननीय वेतन दिया ।
ऽ विद्वता के बदौलत शास्त्रार्थ में कहीं भी इनका पराभव नहीं हुआ। अतएव काशी के महापण्डित म. म. शिवकुमार शास्त्री ने इन्हें ‘‘अश्रुत पराजयी’’ कहकर संबोधित किया था।
ऽ विद्वानों ने इन्हें मिथिला के ‘‘दूसरे गौतम’’ की उपाधि से विभूषित किया। तथा इनके शिष्यों ने इन्हें गौतम व याज्ञवल्क्य के समान आज के युग के आचार्य रूप में श्रद्धा निवेदित किया है।
म. म. रविनाथ झा
{सर गंगानाथ झा को व्याकरण पढ़ाए}
ऽ इनका जन्म ठाढ़ी ग्राम में 1875 ई. में हुआ था।
ऽ इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके विद्वान पिता महावैयाकरण मनरक्खन झा से प्राप्त हुई। इसके पश्चात् मिथिलांचल के अन्य विद्वानों से अन्य धर्मशास्त्रों की शिक्षा मिली।
ऽ श्री झा काशी जाकर भी अध्ययन किए। 1900ई. में व्याकरण धौत परीक्षा उत्तीर्ण हुए। इनकी व्याकरण में प्रखरता की कीर्ति प्रयाग (काशी) तक फैली। ये सर गंगानाथ झा को प्रयाग में व्याकरण पढ़ाए।
ऽ वर्ष 1905 में मीमांसा तीर्थ परीक्षा कलकत्ता से उत्तीर्ण हुए।
ऽ इसके उपरांत इनकी नियुक्ति रमेश्वर लता विद्यालय दरभंगा में मीमांसा का अध्यापक के रूप में हुई। परन्तु इनकी अध्ययनशीलता रूकी नहीं।
ऽ क्वीन्स कॉलेज बनारस (काशी) से 1923 ई. में व्याकरणाचार्य परीक्षा उत्तीण हुए। वर्ष 1924 ई. में बड़ौदा से पुराण भूषण परीक्षा उत्तीण हुए।
ऽ वर्ष 1928 में धर्म समाज संस्कृत महाविद्यालय में व्याकरण प्राध्यापक पद पर पदस्थ हुए एवम् इसी महाविद्यालय में वर्ष 1932 ई. में प्रधानाध्यापक पद पर पदस्थ हुए।
ऽ वर्ष 1948 में वे इस संसार को अलविदा कर गये ।
पंण्डित जनार्दन झा
{धौत परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता-नेपाल नरेष द्वारा सोने की गाय की प्रतिकीर्ति की उपहार को राजा के दर्प पूर्ण व्यवहार के कारण जिसने ठुकरा दिया, जिसके मस्तक पर माँ सरस्वती विराजमान हो}
ऽ बचपन में श्री जनार्दन झा पठन-पाठन से दूर भगते थे, परन्तु कुछ अधिक वयस होने पर पढ़ाई प्रारम्भ किए। फिर तो इनकी कुशाग्र बुद्धि का कोई सानी नहीं था। ये जिन विषयों को छुए, उनपर इनका आधिपत्य हो गया। इनकी प्रतिभा की झलक लोगों को तब लगी, जब काशी (बनारस) में धौत परीक्षा में इन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।
ऽ अब इनकी मेधाशक्ति की चर्चा सम्पूर्ण वाराणसी में विद्वानों की सभा में होने लगी। इनकी शास्त्रार्थ की विलक्षण क्षमता देखकर लोग दांतों तले ऊँगली दबा लेते थे। एक बार तो काशी में ये 17 दिनों तक कई विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किए, जिनमें कई नामी-गिरामी विद्वानों को परास्त किए। परास्त विद्वानों ने इनकी सारस्वत प्रतिभा को देखकर मुक्तकंठ से प्रशंसा की। इससे सम्पूर्ण काशी में इनकी तीक्ष्ण मेधा का सिक्का जम गया।
ऽ पं. जनार्दन झा एक बार नेपाल राजा के आमंत्रण पर उनके दरबार पहुँचे। नेपाल के कई विद्वानों के समक्ष इन्होंने कई धर्मशास्त्रीय रीति-रिवाजों पर व्याख्यान दिए। सारे विद्वान इनकी मेधा शक्ति से अभिभूत हुए। नेपाल राजा प्रसन्न होकर इन्हें गाय की प्रतिकीर्ति सोने में गढ़ा कर दी। जिसे ग्रहण करने से पं. झा इनकार कर दिए। राजा ने थोड़ा दर्प में कहा कि – ‘‘ऐसा उपहार देने वाला आपको नहीं मिलेगा’’। इन्होंने उत्तर दिया -‘‘उपहार देने वाले तो कई मिल जायेंगे (जैसे आप), परन्तु छोड़ने वाला मेरे जैसा नहीं मिलेगा’’। इन्होंने उस उपहार को स्वीकार नहीं किया। बाद में नेपाल के विद्वानों ने कहा कि राजा आपसे दुःखी है; आप नेपाल छोड़ दें।
ऽ भय व चिंता के कारण इन्होंने नेपाल छोड़ दिया और अपने ग्राम ठाढ़ी में संस्कृत पाठशाला स्थापित कर यहीं स्थायी रूप से पठन-पाठन प्रारम्भ किया।
ऽ इस तरह पं. जनार्दन झा ठाढ़ी संस्कृत पाठशाला के संस्थापक तथा प्रधानाध्यापक रहे।
ऽ एक बार नवद्वीप का विद्वान ठाढ़ी शास्त्रार्थ के लिए आया था। ठाढ़ी दुर्गा स्थान में प्रायः ठाढ़ी के विद्वानों को उन्होंने निरूत्तर कर रखा था। तब किसी ने पं. जनार्दन झा को सूचना दी कि ठाढ़ी की मेधा नवद्वीप से पिछड़ रही है। जब ये दुर्गा स्थान आए तो इन्हें आते देखकर ही नवद्वीप के विद्वान उठ खड़े हुए और सभी के बीच बोला- मैं इनसे शास्त्रार्थ नहीं करूँगा। लोगों ने पूछा-क्यों? इन्होंने कहा- मैं इनके माथे पर सरस्वती को बैठी देख रहा हूँ। इन्होंने इनका पैर छूकर प्रणाम किया और अपनी हार मान ली।
कवीश्वर चन्द्रा झा
{मूल नामः-चन्द्रनाथ झा}
(ठाढ़ी ससुराल) (मैथिली भाशा के आधुनिक युग का प्रवर्तक)
ऽ पं. कवीश्वर चंद्रा झा का जन्म 19वीं शताब्दी में 20 जनवरी 1831 ई. को हुआ था तथा निधन 1907 ई. में हुआ।
ऽ वे अपने गांव (पिण्डारूक्ष) को अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण छोड़ दिए ।
ऽ वे अपने ससुराल ‘‘ठाढ़ी’’ आकर बस गए, जहाँ हरिअम्बे रखवारी मूल के द्वारिकी मिश्र ने इन्हें संरक्षण दिया।
ऽ मिथिला सभ्यता-संस्कृति, साहित्य एवम् संगीत के सम्पूर्ण ज्ञान की सुरक्षा व संवर्द्धन के लिए इन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के प्रदीप को जीवन भर प्रकाशित कर मैथिली साहित्यकाश को प्रकाशमान रखा था।
ऽ तुलसीदास और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दोनों ने हिन्दी साहित्यकाश को सम्मिलित प्रयास से जितना समृद्ध किया कवीश्वर चंदा झा ने अकेले दम पर उससे कहीं अधिक उत्थान मैथिली साहित्य को किया था। संस्कृत साहित्य के उद्भट विद्वान होते हुए भी कवीश्वर अपनी मैथिली भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए ही मैथिली भाषा में ‘‘मिथिला भाषा रामायण’’ लिखी थी।
ऽ कवीश्वर ने ‘‘मैथिलीभाषा रामायण’’ की रचना के बारे में लिखा है कि – मिथिला में मैथिली के 97 राग व्यवहृत हैं। ये 97 राग सिर्फ और सिर्फ मिथिला में ही व्यवहृत हैं। ये राग मिथिला में कैसे सुरक्षित व संरक्षित रहे, यह विचार चंदा झा को उद्वेलित करने लगा। अतः अपनी रचना ‘‘मैथिलीभाषा रामायण’’ में इस 97 रागों को सन्निहित कर सुरक्षित कर दिए। वे जानते थे इन रागों को देवी-देवता के गीत के रूप में यदि समावेश कर देंगे तो इनकी अक्षुण्णता सालों-साल बनी रह सकेंगी। क्योकि मिथिला धर्म-प्राण देष है। राम का चरित्र को कई रामायणकारों ने अपने ग्रंथ का आधार बिंदु बनाया। लेकिन कवीष्वर चंदा झा ने रामायण के माध्यम से मैथिली रागों को तथा इन्हें गाने की कला को छन्दबध्द कर सदा-सर्वदा के किए अक्षुण्ण रखने का महान् कार्य किया है।
ऽ कुछ प्रमुख मैथिली राग इस प्रकार हैं, जिनका उपयोग मैथिली भाशा रामायण में किया गया हैः- लगनी, मलार, वटगवनी, महेषवाणी, समदाओन, भगवतीगीत, ब्राह्मणगीत, नचारी, पराती, छठगीत, कीर्त्तन, विशहारा गीत, छमासा, बारहमासा, चौमासा, कजरी, डहकन, सामागीत, फाग, बसंत, चैतावर, कोबर, जट-जटीन, झरनी, खिलौना, महराय, मुण्डन, उपनयन, विवाह, द्विरागमन, परिछन, गौरीगीत, दनौही, मधश्र्रावणी कोजागरा, उदासी, सांझ, झुम्मरि, झिझिया, उवटन आदि।
ऽ कविष्वर चन्दा झा विद्वान, लेखक, कवि, गीतकार एवम् वीतरागी थे।
ऽ चन्दा झा ने विद्यापति के परम्परा से हॅटकर मैथिली काव्य धारा को एक नई दिषा दिया, इसलिए मैथिली के आधुनिक युग का प्रवर्त्तक भी इन्हें माना जाता है। इनकी कुछ प्रमुख रचनाएॅ हैः- (1) मिथिला भाशा रामायण (2) षिव राग (3) राधा-विरह (4) महेष बाणी (5) समय केन्हन भेल घोर हे षिव।
पं. मुरली धर झा (उर्फ चुनचुन झा)
ऽ इनका जन्म ग्राम ठाढ़ी में हुआ था।
ऽ पं. श्री मुरली धर झा व्याकरण, वेदान्त, न्याय एवम् कर्मकाण्ड के जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। व्याकरण मार्तण्ड (सूर्य) होने के कारण व्याकरणीय गणना के आधार पर ज्योतिश की गणना करने में अद्भुत क्षमता थी। इसका एक व्यावहारिक उदाहरण इस प्रकार है। धान का एक षीष लेकर उसके धान की संख्या को गिनकर खेत में होने वाले धान का वजन नार के बोझ की संख्या, भूसा आदि का सही जानकारी कह देते थे।
ऽ इन्होंने समाज में एक परम्परा का प्रचलन प्रारम्भ करबाये, जो अद्यपि (आज भी) चल रही है। श्राध्द कर्म करने से पहले कर्त्ता परिजनों के साथ दसवें रोज तक (नह-केष दिन तक) गुरुड़-पुराण सुनें। अब यह परम्परा ठाढ़ी ग्राम के बाहर अन्य गॉवों में प्रचलित है।
पं. पुण्यधर झा (बोल बम)
‘‘मॉ परमेष्वरी के समर्पित साधक तथा पर्यावरण रक्षार्थ समर्पित सैनिक‘‘
ऽ इनका जन्म ठाढ़ी ग्राम मे वर्श 1914 ई. में हुआ था।
ऽ वे पण्डित के साथ-साथ एक सिद्धि प्राप्त साधक थे। इनके पास हमेषा मंत्रसिध्द त्रिषुल, कॉख में चाकलेट से भरा झोला होता था। जिधर से निकलते बच्चों को चाकलेट देते, जिससे बच्चे ‘‘बोल बम‘‘ चिल्लाते। ठाढ़ी परमेष्वरी स्थान की महत्ता व इसकी श्री वृध्दि इनके द्वारा की गई । ठाढ़ी परमेष्वरी स्थान में निषा पूजा करते थे।
ऽ वे साधक, तांत्रिक, आयुर्वेद के ज्ञाता थे। उनके आषीर्वाद से बहुतों का कल्याण हुआ। उनकी जड़ी-बूटी से कइयों को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हुए।
ऽ वे प्रकृति व पर्यावरण प्रेमी थे। वे कहा करते थे वृक्ष लगाओ, एक वृक्ष दस पुत्र के समान हैं। उनके द्वारा हजारों वृक्ष मिथिला के देवी-देवता स्थान में लगाए गए, जो आज विषाल आकार में पर्यावरण को संरक्षित कर रहा है ।
पं. मुरली धर झा (गुरु जी) (1902-1985)
‘‘मिथिला के दानवीर सारस्वत पुत्र‘‘
ऽ नैयायिक षिरोमणि स्व. विष्व नाथ झा के सबसे छोटे पुत्र पं. मुरली धर झा जी का जन्म ठाढ़ी ग्राम में मई 1902 को हुआ था ।
ऽ गनौली ग्राम में संस्कृत पाठषाला के प्रधानाध्यापक के रुप में काफी यष अर्जित किये।
ऽ वे विद्वान एवम् दानी प्रवृत्त के व्यक्ति थे। किसी के दुःख से दुःखी हो जाते थे। पैसे के अभाव में किसी छात्र का ‘फार्म‘ नहीं जमा होता तो वे उसे आर्थिक मदद करते अथवा किसी धनवान व्यक्ति से उसकी सहायता के लिए निवेदन करते।
ऽ इनको इनके षिश्य ‘गुरु जी‘ के नाम से संबोधित करते थे । वे अपना भी धन दान में कई बार दे देते, स्पश्ट है कि वे दानवीर थे। एकबार इनकी पत्नी ने कहा- कल चौठ चन्द्र पर्व है, कुछ पैसे की आवष्यकता होगी। इनकी जेब में दो रुपया था। एक स्त्री रास्ते में रोते हुए बोली-एक ही पुत्र है, बीमार है, दवा के लिए पैसे नहीं है। उन्होंने जेब से दो रुपये निकालकर दे दिए। परन्तु आगे बढ़े तो पत्नी की बात याद आयी। कुछ चिंतित हुए। परन्तु उनका मानना था कि – भगवान इस संसार का संचालन करते हैं, उनपर विष्वास है वे पूर्ति करेंगे। कुछ आगे बढ़े थे और पहुॅचे थे एक दूसरे गॉव जहॉ पर एक सम्पन्न घर की महिला बच्चे को साथ में रखकर रास्ते पर खड़ी थी। निकट आते ही गुरु जी को प्रणाम कर घूॅघट की ओट से वह बोली- आपकी जड़ी से यह बच्चा पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसने उनके पैर पर दस रुपये का नोट रखते हुए कहा कि आप यह रुपये स्वीकार कर लेंगे तो मुझे बहुत खुषी होगी । आप हमारा तथा बच्चा को दीर्घजीवी होने का आषीर्वाद दें। आषीर्वाद देकर चल दिए तथा मन ही मन सोचे-उपकार कभी व्यर्थ नहीं जाता।
दिगम्बर झा
(सितम्बर 1915-जुलाई 2007)
‘‘आंग्ल भाशा व विज्ञान आधारित शैक्षणिक संस्था के संस्थापक सितारा‘‘
ऽ बिहार राज्य के सुदूर मधुबनी जिलान्तर्गत ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े गुदरी के लाल दिगम्बर झा आंग्ल भाषाई शिक्षा में एम.ए. तथा शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त थे। इन्हें महाविद्यालयीन पढ़ाई पूरा करने ट्यूशन पढ़ाकर धन अर्जन करना पड़ा। शिक्षण योग्यता हेतु प्रशिक्षण (टी.सी.) प्राप्त कर लेने से एक शिक्षक के रूप में मुजफ्फरपुर व पटना के विद्यालयों में शिक्षकत्व की भूमिका अदा किए। यूँ कहें कि एक योग्य शिक्षक बनने वे आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष किए।
ऽ बाद में बाबूबरही (जिला मधुबनी) में उच्च विद्यालय की स्थापना होने उपरांत पटना के विद्यालय से पद त्याग दिए, तथा अपने पैतृक गांव अंधराठाढ़ी के नजदीक स्थित बाबूबरही उच्च विद्यालय में सहायक शिक्षक के रूप में अपना योगदान देना प्रारम्भ किए। उन दिनों अच्छी सड़क व रेल मार्ग के अभाव में पटना जाना भी दुरूह था। उच्च विद्यालय बाबूबरही में श्री झा का प्रभावशील शिक्षकत्व गुण के कारण कुछ ही बरस में यश कीर्ति स्थापित हो गया, वे एक लोकप्रिय छात्र वत्सल शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
ऽ गा्रम अंधरा के शिक्षा प्रेमी कर्मठ व्यक्तित्व के धनी श्रीकान्त चौधरी जो अंधरा में मध्य विद्यालय की स्थापना करवा चुके थे, उनके मन में एक उच्च विद्यालय अंधराठाढ़ी में भी स्थापना करने का विचार आया। श्री चौधरी का बाबूबरही उच्च विद्यालय आना-जाना लगा रहता था, अतः बगल गांव ठाढ़ी वासी शिक्षक श्री दिगम्बर झा से भी उनकी मुलाकात अक्सर हुआ करती थी। श्रीकान्त चौधरी जी ने एक दिन श्री झा के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर आपके जैसे योग्य शिक्षक प्रधानाध्यापक की महती जिम्मेदारी को स्वीकार करे तो वे अंधराठाढ़ी में उच्च विद्यालय प्रारम्भ करने की पहल करेंगे। इसपर श्री झा का सकारात्मक जवाब पाकर, श्रीकान्त चौधरी उच्च विद्यालय खोलने सैद्धान्तिक माहौल अंधराठाढ़ी में बनाना प्रारम्भ कर दिए। आर्थिक रूप से अत्यन्त पिछड़ा (बाढ़ की विभीत्सिका, सुदृढ सड़क मार्ग का अभाव, रेल मार्ग का अभाव, बाजार का अभाव) अंधराठाढ़ी का उस ग्रामीण परिवेश में प्राच्य विद्या आधारित संस्कृत का पाठशाला तो था, परन्तु आंग्लभाषा आधारित व आधुनिक विज्ञान आधारित शिक्षा व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं था, डिबिया युग का धुप्प अंधेरा पसरा था। ऐसी काली अंधेरे युग में जब कुछ लोगों ने उच्च विद्यालय खोलने की बात किए तो पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ । आम लोगों की प्रतिक्रिया थी कि आंग्लभाषा व विज्ञान आधारित उच्च विद्यालय का खुलना यहां असंभव है। परन्तु शाश्वत सत्य है कि अंधेरे के शितिज से ही सुदूर देदीप्यमान सूरज के उगने की प्रथम ललिमा दिखाई देती है। अंधराठाढ़ी के शिक्षण जगत के नभोमण्डल पर उच्च विद्यालयीन सूरज को प्रगट करने के पूर्व लालिमा बिखेरने का काम किया, कुछ शिक्षण योगियों ने जिनमें से कुछ प्रमुख थे – श्री दिगम्बर झा, श्री रामफल चौधरी, महात्मानन्दीश्वर झा, पण्डित सहदेव झा और श्री काली कान्त झा।
ऽ परन्तु उच्च विद्यालय के लिए जमीन (कम से कम 8-10 एकड़) कक्षाओं व प्रशासकीय कार्यों हेतु कमरों की व्यवस्था, छात्रावास की व्यवस्था, लेबोरेटरी की व्यवस्था में अत्यधिक रूपये की आवश्यकता थी, जिन्हें चंदा के बदौलत इकट्ठा करना बड़ी समस्या थी तथा काफी समय लगना लाजिमी था। अतः अर्थाभाव को देखते हुए निर्णय लिया गया कि अंधरा मध्य विद्यालय प्रांगण स्थित रिक्त जमीन पर दो कच्चा कमरा बनाकर उच्च विद्यालय प्रारम्भ कर दी जाए। धीरे-धीरे जमीन, कक्षाओं आदि की व्यवस्था चन्दा मांगकर पूरी की जावेगी। उपर्युक्त शिक्षण योगियों ने आपस में परामर्श कर वर्ष 1950 ई. के जनवरी माह के प्रथम सप्ताह में उच्च विद्यालय प्रारम्भ करने का मन बना लिया। परन्तु लक्ष्य बड़ा था तथा अर्थ व माहौल का अभाव था, अतः यह नेतृत्व टीम अपने उद्देश्य से पीछे न हटने की शपथ लेने एक मानसिक व धार्मिक निर्णय लिया जो उच्च विद्यालय की स्थापना में मील का पत्थर साबित हुआ। वर्ष 1950 ई. के जनवरी माह के प्रथम सप्ताह के शुभ लग्न में पाँच शिक्षण योगियों क्रमशः श्री दिगम्बर झा, महात्मा नन्दीश्वर झा, श्रीकान्त चौधरी, श्री कालीकान्त झा और पं. श्री सहदेव झा, अंधराठाढ़ी के कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर पहुँच गए अंधरा मध्य विद्यालय के प्रांगण स्थित उस वेल पेंड़ के पास जहाँ ठाढ़ी दुर्गा पूजा का विल्वाभि निमंत्रण का धार्मिक अनुष्ठान हुआ करता था; अर्थात पेंड़ के रूप में साक्षात माँ दुर्गा का स्वरूप । पाँचों कर्म योगियों ने उस वेल पेंड़ को संकल्प बैठक का सभापति मानते हुए अन्य ग्रामीणों के सामने संकल्प प्रस्ताव पारित कर, मंगलाचरण गायिकी किए तथा कृत संकल्पित हो गए उच्च विद्यालय खोलने हेतु। मिथिला जहाँ शक्ति के उपासक सबसे ज्यादा पाये जाते हैं, माँ दुर्गा जहाँ घट-घट में बसी हुई हैं, वहाँ साक्षात दुर्गा की शक्ति स्वरूपा विल्व वृक्ष की अध्यक्षता में संकल्प वास्तविकता के धरातल पर अवतरित होना सुनिश्चित हो गया। माता रानी की प्रेरणा से देखते ही देखते भू-दाता (क्रमशः मथुरा प्रसाद महथा व महन्त राजेश्वर गिरि) आर्थिक सहयोग कर्ताओं (क्रमशः महन्त राजेश्वर गिरि, श्री मथुरा प्रसाद महथा, श्री भोला महथा, श्री चुनचुन मिश्र, श्री परमेश्वर नारायण महथा, श्री मोसाहेब कामत, श्री फतनेश्वर मिश्र, श्री बिरेन्द्र मिश्र, श्री मधुलाल मिश्र, श्री बद्री ठाकुर, श्री लक्ष्मी नारायण साहु, पंडित नन्दीश्वर झा, श्री मधुसूदन चौधरी आदि) अपने आप हाई स्कूल की स्थापना की शुभ यात्रा में जुड़ते गए, महफिले कारवाँ सजता गया। अंधराठाढ़ी व पास के गॉवों से भी सहयोग दाताओं की झड़ी लग गयी ।
ऽ अंधराठाढ़ी में स्थापित विद्याप्रभा विकीर्ण करने वाली संस्था म.रा.गिरि उच्च विद्यालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक श्री दिगम्बर झा जो इस विद्यालय में अद्भूत शैक्षणिक योग्यता के बल पर जुड़े, परन्तु संस्थापना काल से पूर्ण स्थापना काल तक के झंझाबातों को व्यवस्थित करते करते, इस संस्था को प्रदेश स्तर पर आंग्ल भाषा व विज्ञान आधारित शिक्षा व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्तम्भ बनाने तक, अपनी प्रशासनिक क्षमता को सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा दिया, जिसकी आभा से चमत्कृत होकर अंधराठाढत्री उच्च विद्यालय के परिधि में स्थित सैकड़ों गांव के बच्चे अपनी-अपनी उच्च शिक्षा की तालीम प्राप्त करने लगे, तथा देश के विभिन्न प्रतिष्ठित महाविद्यालयों तक पहुँचकर प्रतिष्ठित पदों यथा अभियंता, डॉक्टर, विख्याता व प्रशासनिक अधिकारी बनने लगे; परन्तु ये सभी अपने गुरू प्रवर दिगम्बर झा के सानिध्य पाते ही चरणास्पर्श कर आशीष लेना नहीं भूलते। श्री दिगम्बर झा के शैक्षणिक क्षमता व प्रशासनिक योग्यता की डंका जिला व प्रदेश स्तर पर बजने लगी। जिसकी चर्चा कई दषक बीतने के बाद भी होती है । म.रा.गि. उच्च विद्यालय अपने 27 वर्षों की यात्रा में शिक्षा जगत में कई कीर्तिमान स्थापित कर दिया तथा श्री दिगम्बर झा अपनी सेवावधि पूरी कर शासकीय नियमानुसार अवकाश प्राप्त किए।
ऽ परन्तु अवकाश प्राप्ति करने अपरांत भी परमादरणीय झिंगुर कुंवर (तत्कालीन प्रधानाचार्य दरभंगा पब्लिक स्कूल, दरभंगा) के अनुरोध पर दरभंगा पब्लिक स्कूल में शिक्षण का कार्य किया, तथा पुनः अंधराठाढ़ी पब्लिक स्कूल के प्रबंध कमिटी के आग्रह पर अंधराठाढ़ी पब्लिक स्कूल में निर्देशक के पद को सुशोभित करते अवकाष प्राप्त करने उपरांत लगभग ढाई दशक तक शिक्षण का कार्य किया। षैक्षणिक कार्य वे लगभग साढ़े पॉंच दषक तक संपादित किये । श्री झा माँ ठाढ़ी परमेश्वरी के आशीष से सिंचित धवल ग्राम के शैक्षिक कायनात का मूर्धन्य सितारा थे, जिनके जिव्हा पर माँ सरस्वती का वास था । इंग्लिश ग्रामर के पार्ट्स ऑफ स्पिच हो, आर्टिकल्स हो या टेन्स हो, इंग्लिश डिक्शनरी के वोकेबलरी हो सारा का सारा धारा प्रवाह । उच्च विद्यालय में किसी भी विषय का शिक्षक के अनुपस्थिति पर खुद कक्षा लेने हाजिर, विषय चाहे कोई हो । विरले मिलेंगे ऐसे विद्या वारिधि षिक्षक तथा अब तो मुमकिन नहीं कि प्रधानाध्यापक उच्च विद्यालय में खुद पढ़ायें । अर्थात मिथिला के शैक्षिक नभोमण्डल का जाज्ज्वलयमान मूर्धन्य सितारा एक बार शिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया तो जीवन पर्यन्त कर्तव्य पथ पर अथक गमन करता रहा, अस्त हुआ तभी जब कैवल्य धाम में बुला लिया गया। श्री झा विद्यानुरागी थे तथा मैथिली वांड्मय के परिपोशक थे, तभी तो अपने व्यस्ततम जीवन चर्या से समय निकालकर मैथिली साहित्य की श्री वृद्धि हेतु दो अमरकृतियां क्रमषः संजय ऊवाच – मैथिली महाभारत, तथा परित्राणाय्-साधुनाम् की रचना समर्पित कर दिये ।
ऽ अतः श्री झा के जीवन वृतांत से स्पष्ट है कि विद्या, विद्वानों और दर्शनशास्त्रों के धवल धाम मिथिला जो आध्यात्म, संस्कृति, और कला की पीठ स्थली रही है, तथा जो महाश्वेता भगवती भारती का ललित ललाम का लीला क्षेत्र है, के षैक्षणिक कायनात पर श्री झा एक देदीप्यमान नक्षत्र थे, भले ही वे अब हमारे बीच नहीं है, परन्तु उनके द्वारा मिथिला के शिक्षा जगत् में खींची गई चमकीली रेखा की आभा कभी म्लान नहीं होगी, आने वाली पीढि़यों के शिक्षाविद् उनकी जीवनी से प्रेरणा लेते रहेंगे, तथा मिथिला के शैक्षिक श्वेत पटल पर रंग विरंगी लकीरें खींच, सतरंगी इन्द्रधनुष उकेरते रहेंगे। भगवती भारती के वरद्पुत्र श्री झा पर षैक्षिक जगत यावच्चन्द्रदिवाकरौ गर्व करती रहेगी ।
महात्मा नन्दीष्वर झा
‘‘गायत्री मंत्र के षीर्शस्थ साधक व धार्मिक यज्ञों के प्रणेता‘‘
ऽ पं. नन्दीष्वर झा का जन्म ठाढ़ी में 1913 ई. में गोसाई उमाकान्त झा के घर हुआ था। ये बचपन से ही पूजा-पाठ-व्रत में अधिक रुचि लेते थे।
ऽ 1934 ई. में बिहार में बड़ा ही भयंकर भूकम्प आया था। लोगों ने डर के मारे बचाव हेतु मात्र ईष्वर को एक सषक्त माध्यम जाना-माना। फलतः लोगों में एक धार्मिक वयार का जागरण हुआ। उसी सिलसिला में कीर्त्तन-भजन-पूजा-पाठ का आयोजन ग्राम-ग्राम में होने लगा, जिसमें ये भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे ।
ऽ धीरे-धीरे पूजा-पाठ गहन होती गई, पार्थिव षिव पूजा प्रतिवर्श ब्रह्मस्थान में होने लगा।
ऽ इनकी ईष्वराधना गहन होकर समाज में होने वाले कई अनुश्ठानों का सम्पादन करने-कराने में ही जैसे समर्पित सा हो गया। आध्यात्म में इनके कदम बढ़ते गए, पारिवारिक ममत्व छूटता गया, इनकी तपस्या गहनतम् हो गई। धार्मिक क्रिया-कलाप बढ़ने लगा।
ऽ इसी क्रम में नवाह संकीर्त्तन, हवन, कुमारि भोजन, कवि सम्मेलन, कीर्त्तन सम्मेलन, संत सम्मेलन तथा विद्वत सम्मेलन का वार्शिक आयोजन प्रारम्भ हो गया। जहॉ भारत विख्यात संत, विद्वान महात्मा, कविगण, आकर अपने अनुभव से लोगों में भक्ति भावना को और पुख्ता करने लगे। दिनकर जी, आर सी प्रसाद, सुमनजी, किरणजी, मधुप जी, कविषेखर बदरीनाथ जैसे मूर्धन्य कवि, चन्द्रधारी बाबू जैसे दिग्गज विद्वान, महेन्द्र षास्त्री, झुनझुनिया बाबा जैसे संत-महात्मा भी महात्मा जी के यज्ञअनुश्ठान में आकर अपने को धन्य मानने लगे।
ऽ जब महात्मा जी की साधना षिखर पर पहुॅची तो वे सिर्फ फलाहार और दुग्धाहार कर अहर्निष (लगातार) अपनी साधना करने लगे। वे तपकर कुन्दन बन गए । प्रतिदिन तीन हजार गायत्री मंत्र ब्रम्ह मुहुर्त में जाप कर अपनी साधना में विषिश्टता प्राप्त किए।
ऽ याज्ञिक अनुश्ठान से सामाजिक विशमता में समरसता की चमक विखेरने का भी यषस प्रयास किए। 1962 ई. में म.रा.गि.उच्च वि. प्रांगण में नवकुंज यज्ञ, 1963 ई. में परमेष्वरी स्थान में सहस्त्रचण्डी यज्ञ, तथा ठाढ़ी दुर्गा स्थान में महारुद्र यज्ञ का आयोजन इनके नेतृत्व में सफलता पूर्वक सम्पादित हुए, जिसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई।
पण्डित प्रवर दामोदर झा
‘‘मिथिला के विषिश्ट नाटक गंधर्व विवाह के प्रख्यात रचनाकार‘‘
ऽ पं. दामोदर झा का जन्म ठाढ़ी ग्राम में 29 जुलाई 1915 को हुआ था, इनके पिता का नाम स्व. रघुनन्दन झा (सोदरपुरिये मूल) था।
ऽ बचपन की षिक्षा दीक्षा ग्रामीण पाठषाला ठाढ़ी में हुई। ये पं. मुरली धर झा (गुरु जी) से आगे की षिक्षा प्राप्त किए। वाटसन स्कूल मधुबनी में अंग्रेजी एवम् गणित की षिक्षा प्राप्त की।
ऽ इसके बाद संस्कृत में उच्च षिक्षा हेतु प्राच्य विद्या केंद्र काषी (वाराणसी) चले गए।
ऽ साहित्य एवम् दर्षन में उच्च षिक्षित होने के बाद 1943 से 1948 तक काषी राज पाठषाला चकिया में अध्यापन का कार्य किए।
ऽ वर्श 1970 से 1978 तक राजकीय इण्टर कॉलेज इलाहाबाद में साहित्य षिक्षक के पद से अवकाष प्राप्त किए।
ऽ गन्धर्व विवाह नाटक (मैथिली में), तथा अलंकार कमलाकर, राघव पाण्डवीयम, कादम्बरी पद्यानुवाद, षिव स्तुति माला आदि की रचना किए।
पण्डित सहदेव झा
‘‘मिथिला की स्वर्णिम धरोहर के ऐतिहासिक तथ्यों को विष्व मानस पटल पर उद्भाशित करने वाला मूर्धन्य अन्वेशक‘‘
ऽ इनका जन्म बीसवीं सदी के दूसरे दषक में ठाढ़ी ग्राम के सोदर पुरिये मूल में हुआ था।
ऽ पं. सहदेव झा ठाढ़ी गॉव के संस्कृत पाठषाला में मूर्धन्य पं. जनार्दन झा (प्रधानाध्यापक) से षिक्षा प्राप्त किए। वे व्याकरण एवम् सिद्धांत कौमदी की षिक्षा पं. भगीरथ झा से प्राप्त किए ।
ऽ पुनः अपने ग्रामीण सर्वषास्त्र निश्णात् पं. मुरली धर झा (गुरु जी) से अपनी साहित्यिक, धर्मषास्त्रीय, वेदान्तिक ज्ञान का विस्तार किया।
ऽ वे व्याकरण से आचार्य एवम् साहित्य में षास्त्री किए।
इनके द्वारा प्रकाषित ग्रंथ व आलेख :-
(1) वाचस्पति मिश्र-1984
(2) अन्धराठाढ़ी प्रख्ण्ड की ऐतिहासिक महत्ता-1984
(3) मिथिला की धरोहर-1985
(4) एक आदर्ष नगर अंधराठाढ़ी -1987
(5) वाचस्पति संग्रहालय-एक झलक-1989
(6) वाचस्पति मिश्र एक संस्मरण -1995
(7) मण्डन मिश्र एवम् उनका अद्वैत वेदान्त-1999
(8) मिथिला के वेद वेधंत-2004
ऽ इन्होंने अर्थेपार्जन के लिए साहित्य सृजन नहीं किया बल्कि मिथिला के आचार-विचार और संस्कृति को विष्व मानस पटल पर लाने के लिए किया। उन ग्रंथो का प्रकाषन राश्ट्रभाशा एवम् मातृभाशा में हुआ है।
ऽ अपने गांव के रेल्वे स्टेषन का नाम ‘‘वाचस्पति नगर‘‘ इन्होंने रखवाया।
ऽ 17 अप्रैल 2009 को वे ब्रम्हलीन हो गये ।
पण्डित वासुदेव झा
‘‘सामाजिक रीति रिवाज से संबंधित धर्म षास्त्रों के संस्कृत गूढ़ सूत्रों को सर्वजन हिताय् मैथिली भाशा में अनुवाद कर उपास्थित कर देने वाला विचक्षण‘‘
ऽ पं. झा का जन्म 13 मार्च 1929 को ठाढ़ी में सोदर पुरिये मूल में हुआ था।
ऽ वे एम. ए. तथा व्याकरण साहित्याचार्य थे तथा धर्मशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे।
ऽ वे ‘मिथिला-कृत्य-मिमांसा’ के लेखक हैं । पुस्तक का मुख्य उद्ेष्य सनातन परम्परा को अक्षुण्ण रखना, तथा वैदिक रीति-रिवाजों को संरक्षित करना है। इनका मानना था कि साधु-संत, ऋषि-मुनियों के वचनों व सिद्धान्तों में मत भिन्नता, मनीषियों में पुर्वाग्रह, जिद्द, और अपनी अज्ञानता के कारण पौराणिक सनातन परम्परा समाप्त होने के कगार पर खड़ी है। इसके दुष्परिणाम के रूप में धार्मिक रीति रिवाज क्षरित होता जा रहा है। जन साधारण के बीच ऊहापोह की स्थिती बनकर खड़ी हो रही है। लोगों की आस्था, विश्वास पण्डितों में मत-भिन्नता, कुतर्क, वितर्क के कारण घट रही है। भौतिक वाद के इस चकाचौंध में पौराणिक मान्यता एवम् संस्कृत भाषा से अधिकसंख्यक लोगों का रूझान हट रहा है। संस्कृत भाषा का गूढ़ अर्थात् रहस्य जनसाधारण के लिए और कठिन हो गया है। इन्हें यह चिंता होने लगी कि लोग इन धर्म शास्त्रों से विमुख होकर मनमाने ढंग से अपनी-अपनी रीति रिवाज प्रारम्भ करने लगेंगे, फिर धर्म का लोप हो जाएगा। फलतः समाज में कुव्यवस्था फैलेगी, तथा सामाजिक प्रलय की स्थिति बन जाएगी। अतएव इन्होंने संस्कृत के दुरूह एवम् जटिल सिद्धांत को सरलकर आमजनों की समझ के लिए मैथिली भाषा में एक व्यवहार (रीति रिवाज से संबंधित) गं्रथ के रूप में ‘‘मिथिलाकृत्य मीमांसा’’ रचित किए। श्री झा ने धर्म शास्त्रों के देवभाषा को मातृ भाषा में लिखकर धार्मिक आचार विचार को सर्वजन सुगम्य कर दिए हैं ।
पं. सुशील झा
ऽ स्व. भीष्म झा (भीखम बाबू) के ज्येष्ठ पुत्र पं. श्री सुशील झा का जन्म ठाढ़ी में 1934 ई. में हुआ।
ऽ प्रतिवर्ष 1976 से ब्रह्ममुहुर्त में प्रभात फेरी जो एक माह चलती है, बाद में यह नगर कीर्तन नवाह कीर्तन में तब्दील होकर नौ दिन ब्रह्मस्थान में चलती है, के प्रणेता पं. सुषील झा हैं । सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्त पर जीवन भर चलकर समाज में एक आदर्ष स्थापित किए हैं ।
पं. शिव शंकर झा (1860-1938)
व्याकरण के परमाचार्य थे, विदष्वर स्थान लोहना में पण्डित मण्डलों में विजयी होने के कारण ‘‘दूसरे पतंजलि’’ की उपाधि दी गई। धौत परीक्षा में प्रथम आने पर दरभंगा महाराज रमेश्वर सिंह द्वारा सम्मानित किया गया।
पं. हरिशंकर झा (1877-1947)
व्याकरणाचार्य थे, ज्योतिष गणना में सक्षम थे, 12 ग्रंथों की रचना इनके द्वारा की गई जिनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :- मंजूषा रत्नम, शिशुतोषिणी, टतोषिणी, तर्क संग्रह व्याख्या, मेधदूत व्याख्या।
पं. अच्युतानन्द (1890-1964)ः–
प्रकाण्ड ज्योतिषी थे, तथा इनकी प्रमुख रचना ‘‘ज्योतिषीय साहित्य की उद्गम’’ थी ।
पं. कृष्ण लाल झा (1882-1978)
मीमांसक वेदान्ती थे, वे मिथिला के अंतिम मीमांसक वेदांती रहे ।
पं. निरसू झा
परमेश्वरी संस्कृत पाठशाला के प्राचार्य रहे, धार्मिक अनुष्ठान के सर्वमान्य तिथि का निर्धारण यही करते जो सभी को मान्य होता था ।
पं. मनरक्खन झा
न्याय, व्याकरण, मीमांसा के परमाचार्य थे, इन्हें महावैयाकरण अथवा ‘‘व्याकरण सम्राट‘‘ भी कहा जाता था ।
पं. बाबूनाथ मिश्र-
ये महावैयाकरण एवम् दार्शनिक थे ।
पं. नन्दन झा –
ये महापण्डित थे । अपनी उत्कृश्ट विद्वता से गांव के गौरव को बढ़ाया ।
पं. सदानन्द झाः-
इन्होंने श्राध्द स्थली में वेदध्वनि को प्रारम्भ करवाया जिससे आज भी श्राद्धस्थली में सामवेद के पाठ का प्रचलन है ।
पं. उमा नाथ झाः-
धर्मषास्त्र, ज्योतिशषास्त्र, तंत्रषास्त्र के विद्वान थे ।
पं. दामोदार झाः-
ये महान नैयायिक थे। अपने मूर्धन्य पंण्डित पिता श्री विष्वनाथ झा के समान ही महान धर्मषास्त्री थे ।
पं. विश्णु लाल षास्त्री :-
ये महान पण्डित थे ।
केशव झा (उर्फ रौदी बाबू)ः-
ये महान कवि थे।
पं. युगल किषोर मिश्रः–
ज्योतिश व तंत्र के विद्वान थे तथा इनका ज्योतिश गणना चमत्कारिक था। काषी में वेदान्त एवम् ज्योतिश षास्त्र का अध्ययन किए। जन्म कुण्डली बनाने में दक्ष थे। इन्होंने वेदांत षास्त्र में स्वर्णपदक प्राप्त की ।
पं. मधुकान्त मिश्रः-
ये ज्योतिशाचार्य तथा तंत्रसाधक थे । इन्होंने तंत्र की साधना, छिन्नमस्तिका भगवती (नेपाल) के मंदिर में किए। जन्म कुण्डली बनाने में दक्ष थे। जन्म कुण्डली में लिखी बातें लोगों के जीवन घटनाओं से काफी मेल खाती थी ।
पं. श्रृश्टि नारायण झाः-
ये स्वर्ण पदक प्राप्त वेदान्ती थे।
पं. विष्वम्भर झाः-
ये दर्षन षास्त्री तथा व्याकरणाचार्य थे ।
पं. पुरुशोत्तम झा :- ये न्याय दर्षन के मूर्धन्य विद्वान थे तथा व्याकरण के मर्मज्ञ थे । इनकी विद्वता से चमत्कृत होकर भारत के महामहिम राश्ट््रपति द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया।
पं. रुद्र धर झा –
ये काषी हिन्दू विष्वविद्यालय दर्षन षास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। प्रखर दार्षनिक थे। सीताराम की धुन का प्रचार प्रसार किए।
चन्द्रशेखर झा –
एक उत्कृश्ट वैद्य थे, तथा मदनेष्वर संस्कृत विद्यालय में अध्यापक थे।
पं.अलीक नारायण झा :- एक मूर्धन्य विद्वान थे । इनकी विद्वता व वाक्पटुता से समाज चमत्कृत था ।
वैद्यनाथ झा (वैजू बाबू) :- संस्कृत के उद्भट विद्वान थे ।
पं. सुरेश मिश्र – ये भूतपूर्व प्रधानाचार्य मदनेष्वर संस्कृत महाविद्यालय थे।
प. प्रवर श्री षोभाकांत मिश्र, डॉ. दिवाकर झा, श्री कामेष्वर झा, (अभियंता प्रवर), डॉ. षुभचंद्र झा, पं. बद्रीनाथ झा, पं.अभिराम झा, पं. लक्ष्मी ना. झा (जीतन बाबू), पं. सियाराम झा, पं. जयराम झा, पं. लक्ष्मण झा, पं. राधेष्याम झा, पं. रामनारायण झा, पं. हरिषंकर मिश्र, श्री षीलाकांत मिश्र, पं. श्री पलटन मिश्र, पं. श्रुतिधर झा, पं. तृप्ति नारायण झा (परमेष्वरी मंदिर पुजारी), पं. प्रकाष झा, पं. बोधनारायण मिश्र, पं. महेष झा, श्री हरिनाथ मिश्र (अभियंता प्रवर), श्री मिथिलेष झा (अभियंता प्रवर), पं. विभूति नाथ झा, श्री रिद्धिनाथ झा, पं. विद्यानाथ झा (बिन्दू जी), श्री अमरेन्द्र नाथ झा (कृशि विज्ञान विषेशज्ञ), श्री कृश्णचंद्र मिश्र (अभियंता प्रवर), श्री मोहन झा (भूतपूर्व सी.आई.डी. आफिसर), श्री प्रेमनाथ झा (भारतीय रेल विभाग) श्री सिद्धिनाथ झा (भूतपूर्व मुख्य प्रबंधक सिंडीकेट बैंक), श्री प्रेमचंद्र मिश्र (भूतपूर्व चिकित्सक, वेटनरी विभाग), श्री सुखचंद्र मिश्र (वरिश्ठ व्याख्याता), श्री रामदेव झा, श्री रामफल चौधरी (माननीय पूर्व मंत्री बिहार सरकार), श्रीकांत चौधरी (वरिश्ठ षिक्षक), प्रोफेसर सी.एल.दास (सरोदवादक), श्री लाल बहादुर राय (वरिश्ठ षिक्षक)।
प्रो. जगदीश लाल कर्ण :-
जन्म 3 मई 1939 (ग्राम अंधराठाढ़ी में)। म.रा.गि.उ.वि. अंधराठाढ़ी से 11वीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इण्टरमीडिएट आर के कॉलेज मधुबनी से जिसमें वे कॉलेज टॉपर रहे। लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर से स्नातक व स्नातकोत्तर किए (गणित विषय में)।
प्रोफेसर (गणित विषय) जगदम कॉलेज छपरा में रहे वर्ष 1961 से 1987 तक।
यूनिवर्सिटी प्रोफेसर, बिहार यूनिवर्सिटी मुजफ्फरपुर वर्ष 1987 से 1999 तक।
इनके द्वारा कई पुस्तकों की रचना की गई जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार रहे :-
(क) इलिमेण्टरी कॉलेज अलजेब्रा-वर्ष 1965 में।
(ख) द टेक्स्टबुक ऑफ हायर अलजेब्रा-प्रकाशक भारती भवन-वर्ष 1968
सम्प्रति मुजफ्फरपुर में निवास रत हैं।
डॉ लक्ष्मी कान्त कर्ण :-
वे एसोसिएट प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष (भौतिक शास्त्र) एम.आर.एम. कॉलेज, ल.ना.मि.वि.वि. दरभंगा में रहे । उन्होंने मैट्रिक, म.रा.गि.उ.वि. अंधराठाढ़ी से तथा स्नातक (भौतिक शास्त्र में) पटना साइन्स कॉलेज पटना, (पटना वि.वि.) से और एम.एस.सी. भौतिक शास्त्र, पटना वि.वि. से तथा पी.एच.डी. ल.ना.मि.वि.वि. दरभंगा से किए । डॉ. कर्ण भौतिक षास्त्र के अतिविषिश्ट ज्ञाता हैं ।
डॉ ललित नारायण कर्ण ‘‘कुमुद’’ (8 अगस्त 1946-अप्रैल 2018)
प्रसिद्ध कवि व चित्रकार थे। लगभग 66 वर्ष की उम्र में इनकी मृत्यु हुई। उनके निधन से कला जगत को अपूरणीय क्षती हुई।
8 अगस्त 1946 को अंधराठाढ़ी में जन्म हुआ था। वे बिहार के पहले फॉरेन्सिक साईंस एक्सपर्ट थे।
हिन्दी व मैथिली के मंचीय कवि के रूप में काफी लोकप्रिय थे।
वे राज्य के इकलौते पोट्रेट चित्रकार भी थे। इनके द्वारा बनाए गए चित्र आज भी सरकारी और गैर सरकारी भवनों में लगते हैं।
डॉ कुमुद स्वयं भी मिथिला पेंटिंग्स बनाते थे, परन्तु उनका सबसे बड़ा योगदान मिथिला पेंटिंग्स को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर लाने में रहा। 1970 के दशक में भाष्कर कुलकर्णी, कमला चट्टोपाध्याय, व उपेन्द्र महारथी की टीम में वे शामिल थे। उन्होंने मधुबनी पेंटिंग्स के फलक को विस्तार दिया।
इनके द्वारा लिखी गई किताब ‘‘कला और छायाचित्र’’ काफी मशहूर हुई।
मैथिली की पहली फिल्म ‘‘ममता गावय गीत’’ में बतौर कला निर्देशक काम कर चुके थे।
उन्होंने लगभग चार दर्जन किताबों का कव्हर भी डिजाइन किया।
इनके पिता का नाम – आचार्य कुलानन्द कुंद तथा माता का नाम – श्यामा देवी था। श्यामा देवी मिथिला लोक चित्रकला मर्मज्ञ थी।
इन्हें ‘‘भारत गौरव शिखर सम्मान व साहित्य कला रत्नाकर सम्मान व अन्य प्राप्त था।
डॉ ललित मुकुद मैथिली, हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला व कई ऑचलिक भाषाओं में भी दखल रखते थे। साप्ताहिक नवशक्ति, दैनिक विश्वबंधु किलकारी मासिक पत्रिका के सम्पादन से भी संबद्ध रहे।
फिंगर प्रिंट विशेषज्ञ के रूप में अपराधियों की पहचान करने वाले हाथों में जब कूची आती थी तो कैनवास पर मिथिला पेंटिंग्स की बारीकियां खुद ब खुद उकेरने लगती थी।
उपर्युक्त वरिश्ट मनीषियों के कड़ी को आगे बढ़ाते हुए कुछ आज के युग में गाँव के नाम रौशन करने वाले विभिन्न विधाओं में देदिप्यमान मूर्धन्य सितारों की चर्चा करते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :-
पं. (डॉ) शंकर जी झा, पं. नारायण जी झा, पं. (डॉ) कन्हैया लाल झा, पं. श्री लखन झा, पं. श्री परमानन्द झा, पं. दुर्गानंद मिश्र, श्री क्षेमाधर झा, प्रो. कांषीनाथ झा, श्री रत्नेष्वर झा, श्री आनंद नारायण झा, श्री हरिदेव झा, श्री रंजन मिश्र (अभियंता प्रवर), श्री अनिल झा (भारतीय रेल विभाग), श्री नवीन झा (भारतीय स्टेट बैंक), श्री काषी नाथ झा (स्वास्थ्य विभाग), श्री गणपति झा (पुलिस विभाग), श्री हरिहर नाथ झा (व्याख्याता केन्द्रीय विद्यालय), श्री नरेन्द्र झा (व्याख्याता केन्द्रीय विद्यालय), श्री मंगनू झा (लोक निर्माण विभाग), श्री रमानंद झा, श्री राजेन्द्र कर्ण (मिथिला के सिनेजगत के कलाकार), श्री अषोक कर्ण (प्रधानाध्यापक उच्च विद्यालय) आदि । अंधराठाढ़ी गाँव से विगत कुछ दशकों में देश व विभिन्न प्रदेशों में प्रशासनिक अधिकारियों ने भी यशस कीर्ति स्थापित किए हैं; जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण हैंः- श्री वेचन झा, श्री गोविन्द झा, श्री लल्लन झा, श्री गोपाल झा, श्री देवकांत राय दिवाकर, श्री शंकर झा, श्री नागेन्द्र झा (उर्फ सुमन जी), श्री प्रकाष झा आदि। ठाढ़ी ग्राम की कीर्तिध्वजा की चमक तब जगमगा उठी जब वर्ष 2013 में संघ लोक सेवा आयोग नई दिल्ली के प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा में श्री अजित वसंत का भारतीय प्रशासनिक सेवा हेतु चयन हुआ।
यह सूची आधा अधूरा ही है । लेखक के प्रवासी होने के कारण तथा अंधराठाढ़ी गांव के विषाल होने के कारण कई विद्वानों व वरदपुत्रों के नाम षामिल नहीं हो पाये, जिसके लिये आगे प्रयास करूंगा ।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि अंधराठाढ़ी के पावन उर्वर भूमि ने वाचस्पति, विश्वनाथ, रविनाथ, जनार्दन, दामोदर, दिगम्बर, सहदेव व वासुदेव सदृश मूर्धन्य विद्वानों को उद्भूत करने का जो सिलसिला प्रारम्भ किया वह अविरल व निर्बाध भाव से चलती जा रही है। अंधराठाढ़ी के विष्वविश्रुत ग्राम देवी माँ ठाढ़ी-परमेश्वरी की कृपा से यह सिलसिला और मजबूज होंगे, ऐसा विश्वास है।
शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)