रिपोर्ट :- डॉ0 एस0बी0एस0 चौहान
मकर संक्रांति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है जो जनवरी के महीने में13-14 या 15 तारीख को मनाया जाता है. पूरे भारत में इस त्योहार को किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे केवल ‘संक्रांति’ कहते हैं. पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है जब इस पर्व को मनाया जाता है।
यह पर्व जनवरी माह के तेरहवें, चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ( जब सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है ) पड़ता है. मकर संक्रांति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारंभ होती है. इसलिए इसको उत्तरायणी भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि यानि कि नकारात्मकता का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है।धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है।
इस दिन शुद्ध घी एवं कंबल दान मोक्ष की प्राप्त करवाता है।मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यंत शुभकारक माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है।सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छह-छह माह के अंतराल पर होती है।रातें छोटी व दिन होंगे बड़े
भारत देश उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात भारत से दूर होता है. इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है, लेकिन मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है. अत: इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर(सूर्य देव) अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं।इसलिए संक्रांति मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।इस दिन तिल-गुड़ के सेवन का साथ नए जनेऊ भी धारण करना बताया गया है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य दक्षिणांयन से उत्तरायणं होते हैं। इस दिन तड़के स्नान कर सूर्य उपासना का विशेष महत्व है।मकर संक्रांति का त्योहार हिन्दू धर्म के प्रमुख त्योहारों में शामिल है, जो सूर्य के उत्तरायंण होने पर मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है और सूर्य के उत्तरायंण की गति प्रारंभ होती है।भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में मकर संक्रांति के पर्व को अलग-अलग तरह से मनाया जाता है. आंध्रप्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे संक्रांति कहा जाता है, तमिलनाडु में इसे पोंगल पर्व के रूप में मनाया जाता है।पंजाब और हरियाणा में इस समय नई फसल का स्वागत किया जाता है और लोहड़ी पर्व मनाया जाता है।वहीं असम में बिहू के रूप में इस पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है। संक्रांति पर चावल, दाल, हल्दी, नमक और सब्जियों की खिचड़ी बनती है। इस प्रकार खिचड़ी खाने से सारे ग्रह मजबूत होते हैं। मकर संक्रांति का त्योहार हर साल सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के अवसर पर मनाया जाता है। बीते कुछ वर्षों से मकर संक्रांति की तिथि और पुण्यकाल को लेकर उलझन की स्थिति बनने लगी है। इस साल भी कुछ ज्योतिषी कह रहे हैं कि मकर संक्रांति 14 की नहीं बल्कि 15 जनवरी को मनाई जाएगी। आइए देखें कि यह उलझन की स्थिति क्यों बनी हैं और मकर संक्रांति का पुण्यकाल और तिथि मुहूर्त क्या है।दरअसल इस उलझन के पीछे खगोलीय गणना है। गणना के अनुसार हर साल सूर्य के धनु से मकर राशि में आने का समय करीब 20 मिनट बढ़ जाता है। इसलिए करीब 72 साल के बाद एक दिन के अंतर पर सूर्य मकर राशि में आता है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुगल कल में अकबर के शासन काल के दौरान मकर संक्रांति 10 जनवरी को मनाई जाती थी। अब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का समय 14 और 15 के बीच में होने लगा क्योंकि यह संक्रमण काल है।बाबा बाबूराम दास 70 वर्ष बताते हैं कि संक्रांति के पर्व काल में दान देना और दान लेना दोनों ही पुण्य में गिने जाते हैं। दान भी उचित पात्र को ही दिया जाना चाहिए क्योंकि दानदाता यह अर्थ सोचकर कि दान देने के बाद हमारा कल्यांण होगा और यदि दान ग्रहण करता उसका गलत इस्तेमाल करता है तो फिर वह दान का अर्थ अनर्थ में बदल जाता है। 100 वर्षीय शकुंतला धर्मपत्नी स्वर्गीय रामकिशन पंडित जी बतातीं हैं कि यह तो परंपरा संक्रांति के दिन खिचड़ी का मांगना जिसमें चावल, उड़द, धी, व मिठाई का दान मिलता रहा जिसमें अब कुछ गिरावट आई है। धी तो अब देवताओं को भी नहीं मिल पाता क्योंकि दूध दूधियों के लीटर में चला जाता है फिर धी कहां से आए? इसलिए इसके महत्व में कुछ परिवर्तन भी आया है जो हमारे जमाने में हुआ करता था उससे आज के समय में बहुत बड़ा बदलाव दिखाई दे रहा है, इस पर्व काल के दिन फिर भी लोग मंदिरों में पूजा अर्चना और दान दक्षिणा करने के लिए जाते हैं और इसमें वह अपना अहोभाग्य भी मानते हैं