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वाचस्पति मिश्र के न्याय दर्शन से मिथिला में बौद्ध दर्शन निष्प्रभावी – शंकर झा

प्रसिद्ध लेखक शंकर झा की कलम से : मिथिला के अद्वैत वेदान्त दर्शन पर बौद्ध दर्शन का सांस्कृतिक हमला तथा उसके प्रतिरक्षार्थ मैथिल विद्वानों व वाचस्पति की भूमिका मिथिला प्राच्य इतिहास काल से ( महाकाव्य काल ) से श्रुति ग्रंथों (वेंदों व उपनिषदों) व स्मृति ग्रंथों (ब्राम्हण ग्रंथों, दर्शन शास्त्रों, मनु स्मृति आदि ) की रचना कर विश्व के साहित्यिक वांग्मय का केंद्र बन गया था। जनक वंश के आदि गुरू गौतम ऋषि तथा राजर्षि सीरध्वज जनक ( 22वें जनक) के आध्यात्मिक गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य के द्वारा छन्दोग्योपनिषद्, ईशावास्योपनिषद् व वृहदारण्यकोपनिषद में प्रतिपादित सिद्धान्तों के आधार पर वैदिक रीति-रिवाजो से समृद्ध हो गया था। मीमांसा दर्शन के अनुसार वैदिक कर्म-काण्ड, यज्ञ, पूजा, विधान के अनुसार हवन-पूजन सर्वत्र हो रहे थे, धार्मिक यज्ञों में बलिप्रदान प्रथा भी प्रचलित थी।

धार्मिक अनुष्ठानों में मिथिला के पंडितों का महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी, जातिगत आधार पर पंडितों में ब्राम्हण वर्ग की प्रधानता थी। कई ब्राम्हण ग्रंथ यथा शतपथ ब्राम्हण जो यज्ञ व धार्मिक अनुष्ठान के विवरण व नियम पेश करते थे। धर्मशास्त्र ईश्वर के अस्तित्व को मानते हुए ईश्वरवादी था। साथ ही वैदिक उपनिषदों में ऋषि द्वय क्रमशः गौतम व याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ कर्म करते ( प्रवृति मूलक) वेद-उपनिषद् की मान्यता अनुरूप यज्ञ पूजा-पाठ करते जीवन बिताने पर स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति करने की प्रधानता प्रतिपादित किए।

जनक वंशीय शासन के अंत काल तक बिहार के गंगा नदी के दक्षिण में मगध साम्राज्य का उदय के साथ एक नया धार्मिक सम्प्रदाय ने जोर पकड़ा जिसका नाम था बौद्ध धर्म राजकीय प्रोत्साहन तथा दो महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों क्रमशः नालन्दा विश्व विद्यालय तथा विक्रशिला विश्व विद्यालय भागलपुर में बौद्ध दर्शन के विकास के साथ ही, यह स्पष्ट हो गया कि बौद्ध दर्शन तथा मिथिला के अद्वैत वेदान्त दर्शन में कुछ समानता है तो कुछ विभेद भी। मिथिला का अद्वैत वेदान्त जहाँ ईश्वरवादी था, वहीं बौद्ध दर्शन अनीश्वरवादी मिथिला दर्शन जहाँ यज्ञ, मूर्ति पूजन व बलि प्रदान का समर्थक था तो बौद्ध दर्शन इनका विरोधी था ।

बौद्ध दर्शन के अनुयायियों व बौद्ध दर्शन शास्त्रियों के बढ़ने के साथ मिथिला के वैदिक दर्शन के सिद्धान्तों व तर्कों पर साहित्यिक हमले होने लगे। बौद्ध धर्मावलंबी, मिथिला के कई वेदान्ती आचार्यों के प्रतिपादित भाष्यों व तर्कों का खण्डन करने लगे तथा उन वेदान्त शास्त्रों को अप्रमाणिक / अनुपयोगी सिद्ध करने की कुटिल कोशिश करने लगे, ताकि मिथिला वासियों में भी धार्मिक संसय व ऊहापोह उत्पन्न कर बौद्ध धर्म का प्रवेश कराकर वैदिक से बौद्ध धर्मावलंबी बनाया जा सके। वैदिक दर्शन शास्त्रियों व बौद्ध दर्शन शास्त्रियों के बीच शह-मात का आध्यात्मिक खेल : न्याय दर्शन के सूत्रधार रचनाकार गौतम ऋषि (जनक वंश के आदि गुरु ) मिथिला (गाँव ब्रम्हपुर कमतौल स्टेशन के पास) के थे। गौतम के “न्याय-सूत्र” पर प्रथम टीका “न्याय – भाष्य” वात्स्यायन (चाणक्य) द्वारा की गई। इसी समय “दिगनाग” नाम के बौद्ध विद्वान ने न्याय भाष्य” का खण्डन किया।

तत्पश्चात् उद्योतकर नामक मैथिल नैयायिक ने दिगनाग के मत को खण्डन करते हुए वात्स्यायन के भाष्य “न्याय – भाष्य” का समर्थन में न्यायवार्तिक” नाम की पुस्तक लिखी। शताब्दियों तक “न्याय भाष्य ” (वात्स्यायन का ) तथा न्याय – वार्तिक ” ( उद्योतकर का) का वर्चस्व बना रहा। परन्तु पुनः प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिकों क्रमशः धर्म-कीर्ति व धर्मोत्तर आदि ने उद्योतकर के न्याय दर्शनों खासकर न्याय-वार्तिक पर आध्यात्मिक हमला कर उसे जर्जर कर दिया। अर्थात् न्यायवार्तिक का खण्डन किया।

तत्पश्चात् 10वीं सदी में षट्दर्शन टीकाकार वृद्ध वाचस्पति मिश्र का आविर्भव हुआ, और उन्होंने अपने गुरु त्रिलोचन मिश्र की सहायता से उद्योतकर के न्याय – वार्तिक पर न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका नाम की अति महत्वपूर्ण व्याख्या लिखी। जिसके बदौलत बौद्ध नैयायिकों खासकर धर्म-कीर्ति व धर्मोत्तर के आक्षेपों का खण्डन कर न्याय-वार्तिक का ताप्तपर्य (अर्थ) प्रकट किया। न्याय – वार्तिक- तात्पर्य टीका के प्रारम्भ में वाचस्पति ने उद्घोषित किया कि :- अत्यंत बूढ़ी गाय जिस तरह कीचड़ में फंस जाती है, उसी तरह बौद्धों के कुत्सित दर्शनों में डूबी हुई उद्योतकर के सिद्धान्त को उद्धार कर मैं अति- पुण्य अर्जित करना चाहता हूँ।

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने न्याय – शस्त्र में वाचस्पति मिश्र के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा है कि वाचस्पति मिश्र ने न्यायशास्त्र की नींव को इतना सुदृढ़ बनाया कि भारत के सर्वश्रेष्ठ नैयायिकों को उद्भुत (उत्पन्न करने का सौभाग्य शताब्दियों तक मिथिला को ही प्राप्त होता रहा।

वाचस्पति के बाद उदयानाचार्य, गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, (नव्य-न्याय दर्शन विद्वान), आदि मिथिला में ऐसे नैयायिक शताब्दियों तक होते रहे, जो भारत में सर्वश्रेष्ठ नैयायिक साबित हुए। वाचस्पति मिश्र के बाद तो न्याय दर्शन तथा न्याय शास्त्रों पर मिथिला का एकक्षत्र राज्य स्थापित हो गया। मिथिला न्याय-शास्त्र का केंद्र बन गयी । इसका परिणाम यह हुआ कि वैदिक धर्म को बौद्ध धर्म से संरक्षित करने के लिए मिथिला की प्रतिभा न्याय शास्त्र के तर्कों की रचना हेतु केंद्रित हो गयी। फिर बौद्ध धर्मों के तर्कों व कुतर्कों का खण्डन कर मिथिला ने इसे निष्प्रभावी बना दिया।

शंकर झा

शंकर झा

वित्त नियंत्रक ( छ.ग. वित्त सेवा )
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र),
बी.एच.यू. वाराणसी
एम.ए. (समाजशास्त्र)
(कोर्स अपूर्ण) नई दिल्ली
एल.एल.बी. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय रायपुर (छ.ग.)
ग्राम अन्धरा ठाढी
जिला मधुबनी ( बिहार )

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