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मिथिला :: जन-भाषा मैथिली एक समृद्ध साहित्यिक भाषा जिसकी है अपनी लिपि – शंकर झा

डेस्क : मार्च 2018 में मैथिली भाषा व लिपि को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर मैथिल समाज में सरगर्मी तेज हुई थी। मुद्दा का प्रारम्भ मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार के एक वक्तव्य से हुआ था जिसमें कहा गया था कि, मैथिली भाषा मौखिक भाषा ही रही है, इसकी पाठ्य पुस्तकें देवनागरी लिपि में लिखी गई है, और इस भाषा का प्रचार-प्रसार के लिए कोई योजना नहीं हैं। मैथिली भाषा मूल रुप से बिहार के मिथिलांचल में बोली जाती रही हैं।

मैथिली भाषा, जो विश्व की मधुरतम व समृद्ध भाषा है, उसे कमतर आंकने वाला उपर्युक्त वक्तव्य का सम्पूर्ण भारत के मैथिल समाज से लेकर मिथिला के लोक प्रतिनिधि तक ने एक मत से सशक्त विरोध दर्ज किया। जिसे मानव संसाधन विभाग ने संज्ञान में लिया, पूर्ण संवेदना दिखाते हुए मिथिला लिपि की महत्ता को स्वीकार करते हुए इसके संरक्षण, संवर्द्धन के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया। 
मैथिल व मैथिली भाषा के अनुयायी के जानकारी के लिए मानव संसाधन विभाग द्वारा उठाये गए मुद्दों का बिंदुवार विश्लेषण आवश्यक है ताकि मैथिली भाषा के साहित्यिक व बोलचाल की भाषा के रुप में उपयोगिता तथा मैथिली लिपि (मिथिलाक्षर) के उद्भव व उपयोग को सही परिदृश्य में समझा जा सके।मैथिली भाषा की पुस्तकों में देवनागरी लिपि के बोलबाला के क्या कारण हैं, इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है ? मैथिली क्या राजनैतिक उदासीनता के कारण उपेक्षित है ? अष्टम सूची में भारत के एक महत्वपूर्ण भाषा के रुप में स्थापित होने से इसका महत्व कैसे बढ़ा है तथा आगे किस प्रकार इसे बढ़ाया जा सकता है।


मैथिली भाषा का इतिहास
भारतीय संविधान की अष्टम सूची में भारत के मान्यता प्राप्त 22 भाषाएँ शामिल हैं। इन 22 भाषाओं में मैथिली भी है, जिसे वर्ष 2003 में इस भाषा की साहित्यिक महत्व व विशाल क्षेत्र को देखते शामिल किया गया। जिसप्रकार अष्टम सूची में शामिल अन्य भाषा यथा बंगाली व असमिया भाषा का उद्गम व विकास हुआ है। साझा विरासत के बावजूद असमिया व बंगला अष्टम सूची में बहुत पहले शामिल हो गया, जबकि मैथिली काफी बाद में शामिल हुआ। मैथिली भाषा का इतिहास लगभग 700 वर्ष पुराना है । इन सात सदियों में मैथिली किस प्रकार अवतरित होकर विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए आज विश्व के एक महत्वपूर्ण समृद्धशाली भाषा बना है, उसे जानने का प्रयास करते हैं :-


मैथिली का उद्भव से अब तक के विकास का कालखण्ड :-
1900-2000 ई. – सम सामयिक मैथिली
1800 ई. – नवीन मैथिली युग
1400 ई. – मध्य मैथिली युग
1300 ई. – प्राचीन मैथिली युग
1200 ई. – अवहट्ट/अवहट्ठ भाषा
800 ई. – मध्य कालीन भारतीय आर्यभाषा कुल (अपभ्रश)
0 ई. – मध्य कालीन भारतीय आर्यभाषा कुल (मगधी/प्राकृत, पालि)
800 ई. – प्राचीन भारतीय आर्यभाषा कुल (संस्कृत)
1500 ई. पूर्व – प्राचीन भारतीय आर्यभाषा कुल (वैदिक भाषाएँ)
2500 ई. पूर्व – भारोपीय भाषा कुल (भारत$ यूरोपीय भाषाएँ)


मैथिली भाषा का प्राचीन युग
13वीं शताब्दी से पूर्व का कोई ऐसा साहित्य उपलब्ध नहीं है जिसे शुद्ध प्राचीन मैथिली कह सकते हैं। इसलिए प्राचीन मैथिली का युग का प्रारम्भ 13वीं शताब्दी को माना जाता हैं। लगभग 1224 ई. के आसपास ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित ‘‘वर्ण रत्नाकर‘‘ को मैथिली साहित्य का आगाज करने वाला साहित्यिक गं्रथ माना जाता हैं। ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित ‘‘वर्ण रत्नाकर‘‘ को मैथिली का प्रथम गद्य संकलन माना जाता है, जो मिथिलाक्षर में लिखा गया है। वर्णरत्नाकर में जनजीवन के विविध अंगों का सजीव वर्णन मिलता है, जिसे इसकी भाषा भी बहुत हद तक वास्तविक और युगधर्मी है। मैथिली एक ‘‘इण्डो-आर्यन‘‘ कुल (भारोपीय कुल) की भाषा है।
प्राचीन मैथिली युग में, मैथिली साहित्याकाश में ग्रह-नक्षत्रों की संख्या नितांत कम है, किंतु जो है, वे सूर्य के समान जाज्वल्यमान और चन्द्र के समान देदीप्यमान हैं। ज्योतिरीश्वर इस गगन के सूर्य हैं, और विद्यापति ने तो स्वयं अपने को उनके सामने बालचंद कहा है, परन्तु आगे मैथिली में सैकड़ों पदावली व अन्य रचनाएँ करके पूर्ण चंद्र हो गए हैं। वे मैथिली भाषा को जन-जन तक पहुँचा दिए तथा इस युग में मैथिली साहित्य को समृद्धि की चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिये। अवहट्ठ में विद्यापति ने कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका जैसे विशिष्ट रचनाओं का निर्माण किया है ।

 

मैथिली लिपि को संरक्षण की आवश्यकता, मैथिली लिपि का महत्व शंकर झा की कलम से

कीर्तिलता विद्यापति की बहुचर्चित रचना है । इसमें प्रारंभ में पांच संस्कृत श्लोक हैं जो मंगलाचरण, इष्ट देवता के वंदन तथा काव्य विषयों का निरूपण है । इसके बाद अवहट्ठ भाषा में आठ पद हैं जिनमें महाकवि विद्यापति द्वारा अपनी भावना व विचार व्यक्त किये गये हैं। अंतिम पद कुछ इस प्रकार है :-’’सक्कअ वाणी बहुअण भावइ पाउअ रसको मम्म न पावई। देसिल बअना सबजन मिठ्ठा, तें तैसन जम्पओ अवहट्ठा’’। अर्थात, संस्कृत भाषा केवल बुद्धजन या पंडितजन को प्रिय है, प्राकृत भाषा के रस का मर्म कोई नहीं पा रहा है ।

देसी भाषा सभी को मीठा लगता है, इसलिये मैं अवहट्ठ में रचना करता हूं । कीर्तिपताका का पाण्डुलिपि कहांॅ है किसी को पता नहीं है । साहित्य अकादमी के विशेष प्रयास से डॉ शैलेन्द्र मोहन झा तथा डॉ शशिनाथ झा द्वारा संपादित कीर्तिपताका के दो संस्करण प्रकाशित हो पाया । नेपाल दरबार लाईब्रेरी में स्थित पाण्डुलिपि को कीर्तिपताका का पाण्डुलिपि दर्शाते हुए सुचिबद्ध किया गया परन्तु यह पाण्डुलिपि भी आधा-अधूरा है । इस पाण्डुलिपि के प्रारंभ में पत्र संख्या एक से सात तथा पत्र संख्या तीस से अड़तिस उपलब्ध हैं ।

कैथी लिपि का महत्व और कैथी को संरक्षण की आवश्यकता – शंकर झा

अर्थात कुल सोलह पत्र इस पाण्डुलिपि में विद्यमान है । इन पत्रों के अध्ययन से निम्नलिखित महत्वपूर्ण जानकारी मिथिला के गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में पता चलता है। इसमें उल्लेखित तथ्यों के अनुसार शिव सिंह (तत्कालीन मिथिला शासक), गौड़ेस व सुल्तान के बीच घनघोर युद्ध का वर्णन है । ओइनवार वंशीय शासकगण खासकर देव सिंह व शिव सिंह को गौडेस सेना (सेनापति निशिपा खॉं) तथा मुसलमान आक्रमणकारी सुरतान सेना सब से बराबर आक्रमण झेलना पड़ा ।

शिव सेना के नेतृत्व में तिरहुत सेना व योद्धा सब अपने अपने पराक्रम के बल पर उन सभी बाहरी सेनाओं को युद्ध में परास्त किया। ये संघर्ष कई वर्ष तक चलते रहे । कीर्तिपताका में शिव सिंह के युद्ध कौशल, साहस, शौर्य तथा पराक्रम का प्रभूत उल्लेख हुआ है ।

तिरहुत प्रदेश की अस्मिता की रक्षा के लिये शिव सिंह तथा इनके एक आदेश पर अपने सर्वोच्च बलिदान करने आतुर कटिबद्ध सैकड़ों तिरहुतिया योद्धाओं का यथार्थ परक वर्णन से स्पष्ट है कि मिथिला का इतिहास तिरहुतिया योद्धाओं के साहस व शौर्य का गौरवशाली गाथा से परिपूर्ण रहा है। 
यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि जहाँ अन्य ‘‘नवीन आर्य भाषाएँ‘‘ यथा बंगला, असमिया, ओड़िया आदि का उद्भव सीधे, किसी न किसी अपभ्रंश भाषा से हुआ, वहीं मैथिली का उद्भव में एक कड़ी और है, जिसे अवहट्ठ या अवहट्ठ कहते हैं। गौर करने की बात है कि महाकवि विद्यापति ने अपनी रचना ‘‘कीर्तिलता‘‘ जो अवहट्ठ में है उसे ‘‘देसिल बयना‘‘ कहा है, जहाँ देसिल का अर्थ उनके समय में ‘‘तिरहुत देश‘‘ से है। और यह बयना (भाषा) तिरहुत देश के जनसाधारण की बोली के सबसे निकट रहने के कारण ही इसे सब जन मिट्ठा अर्थात् ‘‘सर्वजन्य बोधगम्य‘‘ माना गया। वस्तुतः हम कीर्तिलता की भाषा को न तो पूर्णतः अपभ्रंश कह सकते और न ही पूर्णतः मैथिली। यह स्पष्टतः इन दोनों भाषायी अवस्थाओं के बीच की कड़ी है, जिसे अवहट्ठ कहा गया है।

मैथिली भाषा व लिपि के उत्थान का स्वर्णिम युग, मैथिली से रोजगार के भी खुले द्वार

भाषाशास्त्रीय दृष्टि से निः संकोच कह सकते है कि अवहट्ठ मिथिला में एक समय प्रचलित ऐसी भाषा है जिसका स्वन तंत्र तो ’’मध्य कालीन भारतीय आर्यभाषा’’ का है किंतु रचना तंत्र ’’नवीन भारतीय आर्यभाषा’’ का है। सिद्धपंथियों के दोहा-कोश, महायोगिनी तंत्र, डाक की सुक्तियाँ आदि कई कृतियाँ इस उद्भव युग की पायी जाती हैं जिनकी भाषा को अवहट्ठ की कोटि में रख सकते हैं और इन्हीं में  ’’प्राचीन मैथिली’’ के अधिकांश रूपतत्व प्रचुर मात्रा में  निखरे और निखरते पाये जाते हैं। अवहट्ठ साहित्य बहुत कम उपलब्ध हैं, किंतु अनुमान किया जाता है कि इसमें भी काफी साहित्य रचा गया होगा जो उसी प्रकार अतीत के गर्त में चला गया जिस प्रकार नामतः ज्ञात अन्य कई महत्वपूर्ण कृतियाँ। इस युग के सौभाग्य-वश बचे साहित्य में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैंः-
1 वाचस्पति मिश्र कृत ’’भामती’’ में हड़ि (काठ की बेड़ी) शब्द का प्रयोग जो मैथिली के देशी शब्द का शायद प्राचीनतम अभिलेख है।
2 दोहा-कोश (सिद्ध पंथियों के)
3 सर्वानन्द कृत ‘‘अमरकोश-टीका’’ में 400 मैथिली शब्द (11वीं शताब्दी)
4 डाक के वचन व सूक्तियां (11वीं शताब्दी)
5 कीर्तिलता और कीर्तिपताका (इसकी रचना तो इस युग के बाद हुई है, किंतु भाषा का स्वरूप 10वीं शताब्दी का है।)
6 प्राकृत – पैंगल के कृछ पद
7 पुरातन – प्रबंध – संग्रह
8 चर्यापद

मैथिली भाषा का मध्य युग
मैथिली का मध्य युग, भाषा की दृष्टि से 1600 ई. के आसपास से आरम्भ होकर 1800 ई. के आसपास समाप्त होता है। इस युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि पण्डितों द्वारा रचित नाटक व आख्यानक हैं।
मध्य युगीन रचनाओं को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि ज्योतिरीश्वर व विद्यापति से सुस्सजित प्राचीन मैथिली युग की भाषा धीरे-धीरे बदलती गई। इस भाषायी विकास क्रम में कुछ महत्वपूर्ण अवलोकनीय बातें इस प्रकार हैं :-
(क) मैथिली व्याकरण में धीरे-धीरे नियमितता आ गई।
(ख) प्राचीन मैथिली युग में मैथिली साहित्य पर जो अपभ्रंश की झाई थी, तथा रुप बहुलता थी, वो समाप्त हो गई।
(ग) सार्वनामिक संबंध कारकों और अन्य विशेषणों में विशेष्य के अनुसार रुप बदलने की परिपाटी समाप्त हो गई।
(घ) कारक विभक्तियाँ पूर्व युग से ही लुप्त होते होते इस युग में पूर्णतः उठ गई।
(ड.) सबसे बड़ा अंतर आया शब्दावली में। ज्योतिरीश्वर और विद्यापति के बहुत सारे तद्भव और स्थानीय शब्द, लोक व्यवहार से मध्य युग में छंट गए। जैसेः- लोत (रहस्य) काप (कलम) आदि। इन लुप्त हुए शब्दों की क्षतिपूर्ति बोल चाल में आए नए शब्दों से हुई।

मानवता की मिसाल ‘आभा अनुपमा’, पड़ोसी देश की रहने वाली “स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत” में दे रही अहम योगदान

अतः हम कह सकते हैं कि ‘‘मध्य युगीन मैथिली‘‘ भाषा काल, भाषा की दृष्टि से परिमार्जन का युग है, अभिवृध्दि का नहीं। परन्तु इस युग की सबसे बड़ी घटना है -मैथिली भाषा का स्वागत अन्य पड़ोसी राज्यों यथा बंगाल, आसाम व उड़ीसा में। विद्यापति की पदावलियाँ व मैथिली गीतों की अमृत लहरी जब मिथिला आकर विद्यार्जन के बाद वापस गए छात्रों द्वारा बंगाल पहुँचा तो बंगाल के वैष्णव कवि गण न केवल इन भावों को, बल्कि भाषा का भी अनुकरण कर नए-नए गीत रचने लगे। परिणामस्वरुप मैथिली की एक अद्भुत प्रभावशील उपभाषा का जन्म हुआ। जो आजकल ब्रजबुली, ब्रजबोली या ब्रजावली के नाम से विदित है। इसी प्रकार ब्रजबुली आसाम व उड़ीसा में भी विकसित हुआ।

मिथिला :: जन-भाषा मैथिली एक समृद्ध साहित्यिक भाषा जिसकी है अपनी लिपि - शंकर झा

मैथिली भाषा का नवीन युग
मैथिली भाषा का नवीन युग मन बोध्द के बाद (1780 ई. के बाद) से माना जा सकता है। नवीन मैथिली युग का उद्घाटन महाकवि मनबोध ने अपने ‘‘कृष्ण-जन्म‘‘ नामक कथा-काव्य में किया है। प्रो. हरिमोहन झा ‘‘पुरातन मैथिली‘‘ के बजाय ‘‘नवीन मैथिली‘‘ का चलन प्रारम्भ किया, इनकी रचना ‘‘खट्र काका क तरंग ‘‘नवीन मैथिली साहित्य‘‘ की अद्भुत रचना है। चन्दा झा मैथिली भाषा को समृद्ध करने के लिये ’’मिथला भाषा रामायण’’ की रचना कर मिथिला में व्यवहृत 97 रागों को देवी देवताओं के मैथिली गीतों में सन्निहित कर सुरक्षित कर दिये ।
बाबू भोला लाल दास द्वारा मैथिली व्याकरण की रचना की गई जिसका नाम है- ‘‘मैथिली व्याकरण‘‘ साथ ही आचार्य राम लोचन शरण द्वारा मिथिलाक्षर में मैथिली साहित्य पुस्तक की रचना की गई।

700 साल पुरानी मिथिला की धरोहर ‘पंजी व्यवस्था’ में इनोवेशन की जरूरत

इस काल में भाषा में परिवर्तन बहुत तीव्र दिखाई देता हैं। समसामयिक मौखिक बोली को मैथिली-साहित्य में तेजी से अपना लिया गया, जिसे हम मैथिली भाषा का नवीन युग कहते हैं। मिलता जुलता धातु रूपावली का जो अद्भुत विशाल ढाँचा नवीन मैथिली युग में सामने आया, उसका आभास तक पूर्व युग में नहीं पाते हैं। वास्तव में क्रियापद की यह विशाल संग्रह ही (जैसेः-देखल से देखलक, देखलकइक, देखलथि, देखलथिन्ह, देखलकन्हि, देखलकौक इत्यादि रूप बनाना) मध्ययुगीन मैथिली से नवीन मैथिली को पृथक करने वाला सबसे बड़ा उपादान है। इसके अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ नीचे दी जाती हैः-
(1) मध्य युगीन मैथिली काल में सभी विभक्तियों का लोप हो गया था, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप, विभक्ति प्रतिरूप के रूप से नवीन युग में चलाः- मध्य मैथिली कालः- पारिजात तरू गरूड़ चढ़ाओल हरि कमल उपाड़ि। नवीन मैथिली कालः- पारिजात तरू कें गुरूड़ पर चढ़ाओल हरि केर कमल सं उपाड़ि।
(2) कर्मणि प्रयोग पूर्णतः उठ गया।
(3) क्रियापद का प्राचीन रूप ’करए’ ‘देखए’ इत्यादि उठ गया और उसके स्थान पर नवीन संयुक्त रूप क्रियापद जैसेः- करैत अछि, देखैत अछि इत्यादि चला।
(4) प्रशासन का सूत्र पश्चिम (उत्तर प्रदेष, दिल्ली) से संचालित होने के कारण पश्चिम की भाषाओं का प्रभाव बढ़ता गया जो आज तक जारी है।
(5) विशाल मात्रा में अरबी, फारसी मुल के सामंतिक और प्रषासनिक षब्द अपनाये गये और पुराने षब्द सब उठते गये ।
इसके अतिरिक्त साहित्य की विधायें बदलीं और जन-भावना के अनुकूल, जनभाशा को अपनाते हुए साहित्य ने नया मोड़ लिया।

दिखने लगा आसार, बैाद्ध सर्कीट पस्टन मुसहरनिया डीह के दिन बहुरने का 

मिथिलाक्षर का इतिहास
 मिथिलाक्षर लिपि का प्राचीनतम उल्लेख ‘‘ललित विस्तर’’ नामक बौद्ध ग्रंथ में मिलता है जहाँ यह ‘‘वैदेही लिपि’’, ‘‘ब्राम्ही लिपि’’, ’’मगधी’’ या ’’प्राच्य भारतीय लिपि’’ कही गई है। आज इस लिपि का सबसे प्रचलित नाम ‘‘तिरहुता लिपि’’ है।
 मैथिली भाशा मिथिला में तीन लिपियों में लिखी जाती थी, मिथिलाक्षर (तिरहुताक्षर), कैथी और नागरी लिपि। तीनों लिपियाँ साथ-साथ नहीं चली हैं, बल्कि काल-क्रमेण एक को दबा कर दूसरी आती गई।
 ब्राम्ही या मगधी या ’’प्राच्य भारतीय लिपि’’ स्थानीय अंतर के साथ समस्त मिथिला, बंगाल, आसाम और उड़ीसा में प्रचलित रहा। मगध में भी यही लिपि प्रचलित थी, किंतु नालंदा के विनाश के साथ वहाँ यह लिपि भी समाप्त हो गई।
 10वीं सदी आते आते नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के उदय के साथ ही भारत की लिपियों में भी स्थानीय विशेषताएँ आने लगी। इसके बाद उक्त प्राच्य भारतीय लिपि (ब्राम्ही लिपि) एक से तीन हो गई- मिथिलाक्षर, बंगला, और ओड़िया।
 उड़ीसा में वृत्ताकार शिरोरेखा की परिपाटी चली, जिससे उस लिपि का ढॉचा मिथिलाक्षर और बंगाक्षर से नितांत भिन्न हो गया। शेष दोनों का ढॉचा तो एक ही रहा, पर आकृति मूलक अंतर इतना हो गया कि दोनों स्पष्टतः भिन्न-भिन्न लिपियाँ हो गई। एक का नाम बंगलाक्षर या बंगाक्षर पड़ा और दूसरी का वैदेही/ तिरहुता/ मिथिलाक्षर। ब्राम्ही लिपि से निकला मिथिलाक्षर व बंगलाक्षर में बहुत समानता होने के बावजूद इनमें अन्तर भी पर्याप्त मात्रा में रहे जिससे दोनों स्वतंत्र लिपि बन गये।
 इस प्रकार स्वतंत्र रूप में विकसित मिथिलाक्षर का प्रयोग समस्त मिथिला में 11वीं सदी से लेकर मुगल षासनकाल (अकबर के षासनकाल) तक सार्वजनिक तौर पर एकछत्र होता रहा।
 मुस्लिम आक्रमणों के समय मिथिला पर कई सम्राटों व सामंतों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रशासनिक अधिकार जमया।
 मध्यदेश (कर्णाटक) से आए कायस्थों और अन्य वर्गों ने इन सम्राटों/सामंतों के हाकिमों व अमलों के रूप में आसन जमाया। वे शासन की भाषा के रूप में फारसी तो लाए ही, साथ-साथ अरबी-फारसी शब्दों से लदी-हिन्दुस्तानी भाषा और ‘‘कैथी लिपि’’ भी लेते आए।

फारसी से अनभिज्ञ मिथिलावासियों ने इस हिन्दुस्तानी कैथी लिपि को अपेक्षाकृत सरल पाकर खूब पसंद किया। फलतः मिथिला के घरेलू पाठशालाओं में मिथिलाक्षर के साथ-साथ कैथी लिपि भी सीखने लगे।
 1870 ई. के आसपास कार्नवालिस ने कैथी लिपि को मान्यता दी और मिथिला के सभी सरकारी दफ्तरों में सारे अभिलेख इसी कैथी में तैयार किए गए। इससे कैथी लिपि का ज्ञान सबों के लिए अनिवार्य हो गया और मिथिलाक्षर केवल शास्त्रीय, सांस्कृतिक, और सामाजिक व्यवहारों में सीमित रह गया।

 लार्ड मेकॉले ने आधुनिक शिक्षा चलाई। तत्कालीन शिक्षाधिकारियों ने तिरहुत जिला को हिन्दुस्तानी क्षेत्र मान लिया। शिक्षा विभाग ने नई शिक्षा में कैथी लिपि के बदले नागरी लिपि को और हिन्दुस्तानी के बदले हिन्दी को प्रतिष्ठित किया। तब से मिथिला के स्कूलों में कैथी लिपि के बदले नागरी लिपि और हिन्दुस्तानी भाषा के बदले हिन्दीभाषा की पढ़ाई शुरू हुई। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा पद्धति द्वारा शिक्षित लोगों को मिथिलाक्षर से कोई संबंध न रह गया, केवल प्राचीन पंरपरा के विद्वानों में ही मिथिलाक्षर चलता रहा, क्योंकि उनके सभी गं्रथों हस्तलेख मिथिलाक्षर में ही थे। पिछले कुछ शताब्दी में जब संस्कृत के गं्रथ ‘नागरी लिपि’ में मुद्रित होकर उपलब्ध हो गए, तब प्राचीन परंपरा के पंडितों में भी मिथिलाक्षर का प्रचार घटता गया और मिथिला में भी नागरी लिपि का एकछत्र राज्य हो गया।

 

मिथिलाक्षर का ऐतिहासिक महत्व
राजा न्यायदेव के मंत्री श्रीधर (कायस्थ) के अंधरा ठाढी शिलालेख (1097 ई) में सर्वप्रथम मिथिलाक्षर का दर्शन होता है। उसके बाद पनिचोभ ताम्रपत्र, तिलकेश्वरगढ़ अभिलेख, खोजपुर अभिलेख, भगीरथपुर शिलालेख, आदि अनेक शिलाओं और ताम्रपत्रों में मिथिलाक्षर के क्रमिक विकास का दर्शन होता है। 1500 ई. के बाद के मिथिलाक्षर हस्तलेख भारी मात्रा में उपलब्ध है, जिनकी एक उत्कृष्ट सूची बिहार रिसर्च सोसाइटी ने प्रकाशित की है। इनमें म. म. पक्षधर मिश्र और महाकवि विद्यापति ठाकुर के हस्तलेख विशेष गौरव के हैं।
मिथिलाक्षर के विषेशज्ञ श्रीभवनाथ झा कहते हैं कि 11वीं सदी से लेकर आज तक जितने भी अभिलेख हैं, ज्यादातर में मिथिलाक्षर का ही प्रयोग किया गया है। कोई-कोई ही ऐसा है जिसमें देवनागरी का प्रयोग किया गया है। मिथिलाक्षर में सबसे पुराना अभिलेख मधुबनी के अंधराठाढ़ी में कमलादित्य स्थान में प्राप्त हुआ था, जिसमें प्राप्त विश्णु मूर्ति के नीचे एक अभिलेख लिखा गया था। इस अभिलेख में 1096 ई. के कर्णाटवंषीय जानकारी दी गई है। अभिलेख से ही पता चलता है कि कर्णाटवंषीय नान्यदेव के मंत्री श्रीधर दास ने इस मूर्ति को स्थापित किया था।

विलुप्त हो रहा मिथिला का पारंपरिक सामा-चकेवा

श्री झा बताते हैं कि मधुबनी के अंधराठाढ़ी में ही एक मां तारा की मूर्ति मिली थी, जिसे श्री झा डिसाइफर किया था। इसकी विषेशता यह है कि मिथिलाक्षर में बौध्दमंत्र लिखा गया है, जो बिहार में मिले कई अवषेशों में मिला है। हमारे देेश की एक कहावत है :- कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बाणी। यानि लिपि और भाशा की दृश्टि से हमारा देष षुरू से ही समृद्ध रहा है। भाशा जगत जितना अनूठा और विस्तृत है, उससे जरा भी कम लिपियों का संसार नहीं। जितनी पुरानी मानव सभ्यता, लिपियों का इतिहास भी करीब इतना ही पुराना है। कालांतर में कई विलुप्त लिपियों को पढ़ने में सफलता मिली, लेकिन ऐसी कई लिपियॉ है जो आज भी अबुझ हैं।

 

 

मिथिला के लोक व्यवहार में मिथिलाक्षर
परन्तु आज मिथिलाक्षर को जानने वालों की संख्या नगण्य हैं। जबकि ऐसा युग रहा जब विषय कुछ भी हो, वे लिखे गए मिथिलाक्षर में ही।संस्कृत के हजारों पांडुलिपि मिथिला शोध संस्थान और कामेश्वर सिंह पुस्तकालय दरभंगा में रखे हैं, जो मिथिलाक्षर में हैं। आज से करीब 100-150 वर्ष पूर्व से ही मिथिला में देवनागरी लिपि के तरफ रुझान बढ़ा तथा मिथिलाक्षर के तरफ घटने लगा। फिर भी साहित्यिक विद्वानों व संस्कृत विद्वानों ने इसे सीमित स्तर पर बचा के रखा। विस्तृत स्तर पर लेखन में भले ही देवनागरी लिपि का धड़ल्ले से उपयोग होने लगा परन्तु बच्चों के अक्षर आरम्भ के सुअवसर पर पिछले सात-आठ दशक तक मिथिलाक्षर का उपयोग होता रहा। बच्चों को मिथिलाक्षर में ’’आंजी सिध्दि रस्तु’’ लिखा कर अक्षरारम्भ (पढ़ाई शुरु) कराये जाने की परम्परा रही। क्रमशः अक्षरारम्भ की यह परम्परा भी समाप्त हो गयी। लेकिन मिथिलाक्षर का अस्तित्व मुंडन, उपनयन, विवाह श्राध्द अदि पर संबंधी लोगों को प्रेषित होने वाले सूचना व आमंत्रण पत्रों पर बना रहा । इसको ‘पता‘ कहते हैं। करीब 20-25 वर्ष पूर्व तक यह परम्परा धरल्ले से चल रही थी। परन्तु ‘‘पता‘‘ के बजाय आमंत्रण-कार्ड का प्रेस से छपाई प्रारम्भ हुआ तो मिथिलाक्षर का उपयोग यहाँ भी बंद हो गया।

 

मैथिली भाषा का नव जागरण युग का आगाज
वर्ष 2003 में देश में जब भाजपा का शासन था तथा देश के माननीय प्रधानमंत्री भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, तब मैथिली भाषा को इसकी मृदुल छवि के अनुरूप भारत के संविधान की अष्टम सूची में शामिल किया गया, जो मैथिली की समृद्धि भाषा हेतु यथोचित सम्मान था तथा विश्व में फैले मैथिली समाज के लिए गौरव का क्षण था।
यहाँ यह बताना समीचीन होगा कि भारतीय संविधान की अष्टम सूची में देश की मान्यता प्राप्त प्रभावशील भाषाओं को शामिल किया गया है। जिनमें से 14 भाषाओं को संविधान लागू करने के समय ही शामिल किए गए थे जो इस प्रकार हैः- संस्कृत, हिन्दी, मलयालम, मराठी, बंगाली, पंजाबी, तेलुगू, तमिल, गुजराती, कश्मीरी, कन्नड़, ओड़िया, उर्दू, असमिया। वर्ष 1967 में सिन्धी भाषा को शामिल किया गया था। पुनः वर्ष 1992 में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषाओं को शामिल किया गया। तथा वर्ष 2003 में मैथिली भाषा के साथ-साथ डोगरी, बोड़ो व संथाली भाषाओं को शामिल किया गया।
अष्टम सूची में मैथिली को शामिल करने से न केवल लगभग 700 वर्षों के मैथिली भाषा के इतिहास को एक गरिमामय सम्मान मिला है बल्कि आने वाले समय में संवैधानिक मान्यता से सशक्त यह भाषा, मैथिली समुदायों को साहित्यिक रचनाएँ करने, मैथिली भाषा की अकादमिक महत्व को पुनर्जिवित करने तथा मैथिली भाषा के माध्यम से नए-नए रोजगार के सुअवसर गढ़ने में उपयोगी होगा। 
पूर्व में मैथिली भाषा को मातृभाषा के रूप में मिथिलांचल में चुना जाता था; चूॅकि इस प्रकार की शासकीय शिक्षा व्यवस्था थी। उन दिनों उत्तरी बिहार के अधिकांश जिले के बच्चे मातृभाषा मैथिली को बडे़ चाव से मैट्रिक, इण्टरमीडिएट व महाविद्यालय में पढ़ते थे।
परन्तु पिछले दो-तीन दशक में बिहार सरकार ने मैथिली के प्रति उदासीन रवैया अपनाते हुए मैथिली को मातृभाषा के रूप में अनिवार्य रूप से मानने के बजाय वैकल्पिक कर दिया गया। इससे मैथिली के जगह अन्य भाषा चुनने के विकल्प के रास्ते खुल जाने से मैथिली भाषा पर नकारात्मक असर पड़ा। इससे मैथिली भाषा पिछड़ती गई। 
अतः अष्टम सूची में मैथिली भाषा को शामिल करने के सकारात्मक पहल को मैथिलों का पूर्ण समर्थन मिलना वांछनीय है। बिहार सरकार को शिक्षा की पाठ्यक्रम में मातृभाषा मैथिली को अनिवार्य करना चाहिए, न कि संपर्क भाषा का विकल्प देकर अन्य भाषा को बढ़ाना चाहिए। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति पटना को आगे आकर इस भाषा को प्रोत्साहित करने मैथिली को अनिवार्य भाषा बनाना चाहिए।

मिथिलाक्षर हेतु पुर्नजागरण व संरक्षण की एैतिहासिक व रोजगारपरक आवश्यकता
मिथिलाक्षर के विकास के लिए मिथिला के विद्वान व मैथिली साहित्य के विद्वान वर्षों से चिंतित रहे हैं। इस चिंता के तहत इसकी पुनर्जागरण के लिए कुछ पहल भी हुए जैसे :-
1 मिथिलाक्षरांकण प्रबंधक समिति, लहेरियासराय 1936 ई. के आसपास मिथिलाक्षर लिखने प्रेस कांटा बनवाए।
2 मैथिली के इतिहासकार डॉ. जयकान्त मिश्र, मिथिलाक्षर सिखाने इलाहाबाद से किताब छपवाये।
3 अखिल भारतीय मैथिली साहित्य परिषद् दरभंगा ने ‘‘मिथिलाक्षर अभ्यास पुस्तिका‘‘ छपवाया।
4 कितने बार मिथिलाक्षर सिखाने का अभ्यास भी चलाया गया।
5 हाल में साहित्य अकादमी के सदस्य डॉ. जयकान्त मिश्र ने मिथिलाक्षर का कॉटा बनवाया है और उनके तत्वावधान में निकलने वाले मैथिली शब्द-कोश में नागरी के साथ-साथ मिथिलाक्षर का व्यवहार किया गया है।
भारत शासन द्वारा विशेषज्ञ समिति का गठन

निमि‘, ‘मिथि‘, ‘मिथिला‘ व ‘जनक‘ शब्दों की तथ्यात्मकता शंकर झा की कलम से…

दिनांक 19 मार्च 2018 को श्री संजय झा बिहार राज्य योजना परिषद् के सदस्य एवम् नेता जनता दल युनाइटेक ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी से दिल्ली में उनके दफ्तर में मुलाकात कर एक ज्ञापन सौंपा था, जिसमें मैथिली के विकास के लिए एक कमिटी गठित करने के लिए आग्रह किया था। जावड़ेकर जी के पहल पर ही इस समिति का गठन हुआ है।
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से हाल ही में इस लिपि के संरक्षण संवर्धन और विकास के लिए चार सदस्यी समिति का गठन कर दिया गया है, जो इस पर जल्द ही एक रिपोर्ट मंत्रालय को सांपेगी। इस चार सदस्या समिति के सदस्य इस प्रकार है :-
1 ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा के मैथिली विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो.(डॉ) रमण झा।
2 कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा के सेवानिवृत्त प्रो. डॉ रत्नेश्वर मिश्र।
3 पटना स्थित महावीर मंदिर न्यास के प्रकाशन विभाग के पदाधिकारी पण्डित भवनाथ झा।
4 कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा के व्याकरण विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ (पं.) शशि नाथ झा।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर की अध्यक्षता में मैथिली लिपि के संरक्षण संवर्धन और विकास के लिए गठित विशेषज्ञ समिति की पहली बैंठक गुरुवार 5 जुलाई 2018 को दिल्ली में हुई। इस बैंठक में विशेषज्ञ समिति के चारों सदस्य के साथ बिहार राज्य योजना परिषद् के सदस्य संजय कुमार झा भी शामिल हुए। बैठक में केंद्रीय भाषा संस्थान के निदेशक भी मौजूद थे। माननीय मंत्री ने आश्वस्त किया कि मिथिलाक्षर को संरक्षित व सवंर्धित करने सभी प्रकार की सहायता की जावेगी।

 मैथिली व मिथिला का इतिहास शंकर झा की कलम से…

सदस्यों ने सूचित किया कि मैथिली लिपि को पढ़ने व समझने वाले लोगों की संख्या बहुत कम हैं, ऐसे में लिपि को पढ़ कर रोजगार पा सकेंगे। मैथिली लिपि में पचास हजार से अधिक पाडुलिपि हैं, जिन्हें पढ़कर समझना है, तथा उन बातों को अन्य भाषाओं में अनुवाद कर दुनिया के सामने मिथिला का गौरवशाली इतिहास के दबे तथ्यों को लाना है। 
ऐसे भाषा की संख्या ज्यादा नहीं है जिसकी अपनी लिपि हो, उसमें मैथिली भाषा सौभाग्यशाली है कि इसकी अपनी लिपि है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि मैथिली भाषा एक समृद्ध साहित्यिक व जनभाषा है तथा इसकी अपनी सशक्त लिपि भी है ।

शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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