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विशेष :: 700 साल पुरानी मिथिला की धरोहर ‘पंजी व्यवस्था’ में इनोवेशन की जरूरत

डेस्क : देश में तमाम विविधताओं की खूबसूरती के बीच परंपरा विविधिताएं भी हैं. बिहार के मिथिलांचल में वंशावली को संरक्षित करने के लिए सालों से चली आ रही पंजीकार परंपरा इन्हीं पारंपरिक विविधिताओं में से एक है. पंजीकार व्यवस्था और पंजी प्रबंध बदले जमाने में बदलाव की जरुरत महसूस कर रही है और पंजीकार भी इस प्रबंधन में नवाचार (इनोवेशन) को जरुरी मान रहे हैं.

परंपराएं समाज की नींव होती है, ये परिवार, जाति और फिर समग्र समाज के बीच अलग-अलग तरह की पाई जाती हैं. मिथिलांचल में मैथिल ब्राह्मणों की पंजीकार व्यवस्था अपनी वंशावली को लिखित रुप से संरक्षित करने की एक पुरानी पारंपरिक पद्धति के रुप में आज तक चली आ रही है. इसे लोग पंजी प्रबंध के नाम से भी जानते हैं.

बताया जाता है कि 1326 ईस्वी में मिथिला के शासक हरिसिंह देव ने पंजी को औपचारिक रूप से लिपिबद्ध किया था. वंशावली के इस लिखित स्वरुप से आपसी और पारिवारिक इतिहास का पता चलता है और इस कारण लोग पिता और माता के कुलों को अलग-अलग समझ पाते हैं और फिर लगन के दिनों में शादियां तय की जाती हैं.

पंजीकार पंजी के वंशों के अनुरुप विवाह के पूर्व एक कागजात तैयार करते हैं जिसे सिद्धांत लेखन कहा जाता है. इसके अलावा पंजीकार निर्धारित क्षेत्र में गांव-गांव घूमकर पारिवारिक स्थितियों के आंकडों को दर्ज करते हैं. मूलरुप से इस पंजी में वैवाहिक संबंधों और कुलों तथा निवास से संबंधित जानकारियां मिथिलाक्षरी लिपि में दर्ज रहती है. 

पूर्णिया के पंजीकार विद्यानंद झा के यहां तीन सौ वर्ष पुराने पंजी संरक्षित हैं और इनमें लगभग एक हजार वर्षों का खानदानी इतिहास दर्ज है. नये दौर में पुराने तालपत्र, भोजपत्र, बांस के कागजों की ये पंजियां अब नावाचारी प्रयोग की जरुरत बता रही हैं. इस व्यवस्था के प्रति आस्था रखने वाले पूर्णिया के स्थानीय युवा अरुणेन्दु झा और बुजुर्ग नागरिक विनयानंद झा पंजी प्रबंध के कई जरुरतों और गुणों की चर्चा करते हुए इसे अति उपयोगी रिवाज करार देते हैं.

पंजी प्रबंध करने के लिए पंजीकार का परिवार भी जमाने से चला रहा है. मिथिलांचल से लेकर सीमांचल तक में चंद पंजीकार हीं पूरे इलाके का पंजी प्रबंध सामाजिक कर्मचारी के रुप में करते रहे हैं. पूर्णिया के पंजीकार विद्यानंद झा बताते हैं कि वे अपनी 19वीं पीढ़ी के वर्तमान पंजीकार हैं. पंजीकार कहते हैं कि पंजी व्यवस्था ऐतिहासिक है और कई तरह से लाभकारी भी. वे आज के हालातों में आ रही आर्थिक और व्यवहारिक चुनौतियों को सामने रखते हुए समाज के लोगों से पंजी व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने और परंपरागत आचरण करने की जरुरतों को सामने रखते हैं.

बदले दौर में लोग पंजी व्यवस्था को कई कारणों से लागू नही कर पा रहे हैं. वहीं पूर्णिया क्षेत्र के पंजीकार विद्यानंद झा ने पुराने पन्नों को नए किस्म की छपाई कर उसे पुस्तक के आकार रुप में संरक्षित करने का भी प्रयास किया है. वंशावली निर्माण एक सामाजिक जरुरत और आनुवंशिकी की जानकारी के लिए एक वैज्ञानिक,कानूनी और तार्किक प्रावधान के रुप में मान्य है. मिथिलांचल का यह पंजी प्रबंध इस परंपरा का प्राचीन उदाहरण है और सामाजिक परंपराओं में से एक अनोखे टेक्स्ट और टेस्ट के रुप में सामने है.

(साभार- न्यूज 18)

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