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वेद भूमि मिथिला धार्मिक व जातिगत सौहार्द्र की अनूठी मिसाल – शंकर झा

डेस्क : आर्य सभ्यता व सनातन धर्म में वेदों का सर्वोच्च स्थान रहता आया है। चार वेदों क्रमशः ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद में संकलित ऋचाओं (श्लोकों) से स्पष्ट होता है कि इन वेदों में कई ऋषियों के मंत्रों के संकलन हैं।

इन ऋषियों में कुछ महत्वपूर्ण ऋषियों व उनके आधार पर वेदों के नाम इस प्रकार हैः-
(क) ऋग्वेदः- के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे कौथुम ऋषि जो मिथिला के थे। गौतम ऋषि (जनकवंश के आदि गुरू) ऋग्वेद के पंद्रह नग मरूत सुक्त की रचना किए थे।

(ख) यजुर्वेदः- शुक्ल यजुर्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे याज्ञवल्क्य, जो मिथिला के थे तथा महर्षि जनक के आध्यात्मिक गुरू थे।

(ग) सामवेद :- के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे गौतम ऋषि, जो मिथिला के थे।
(घ) अथर्ववेदः- के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे अथर्वा ऋषि।
देवी भागवत में उल्लेखानुसार इन चार वेदों के कई ऋचाओं की रचना सम्पूर्ण आर्यावर्त यथा कुरू, पांचाल कोसल, अवन्ती, चेदी आदि क्षेत्रों से त्रेता युग में एकबार बारह वर्ष अकाल के दौरान मिथिला के गौतम आश्रम में पधारे ऋषि मुनियों द्वारा प्रारम्भ हुआ तथा ऋचाओं की रचना वर्षों चलता रहा।

चूँकि ऋषि मुनि ही संस्कृति, सभ्यता, आचार, विचार, रीति रिवाज के जनक रहे हैं, अतः ऋचाओं में इन्हें सूत्रबद्ध किया जाने लगा। इन ऋषि मुनियों ने ऋचाओं का संकलन कर वेदों की रचना का अभियान चलाया। इस अभ्यानरूपी यज्ञ के आचार्यत्व मिथिला के ऋषि गौतम को मिला। धीरे-धीरे कई ऋचाओं की रचनाएँ हुई। इन ऋचाओं का संकलन कर वेदों की रचना प्रारम्भ हुई। अंततः ऋचाओं को चार वेदों में संकलित किए गए तथा महत्वपूर्ण ऋचाओं के सूत्रधार ऋषियों व वेदों के संकलन में उनके महत्वपूर्ण योगदान के आधार पर इन ऋषियों को मंत्रद्रष्टा ऋषि की उपाधि दी गई।

तथ्यों से स्पष्ट है कि चार वेदों की रचना में मिथिला क्षेत्र (गौतम ऋषि का आश्रम ‘‘ब्रह्मपुर’’ दरभंगा जिला), गौतम ऋषि व याज्ञवल्क्य के महत्वपूर्ण योगदान रहे हैं। इतना ही नहीं वेद के वेदान्तों की रचनाओं में भी मिथिला क्षेत्र व मिथिला के ऋषि, मुनियों के विशिष्ट योगदान रहे हैं। वेद के अंतिम भाग को वेदान्त (या उपनिषद्) कहते हैं। वेदों के गूढ़ ऋचाओं को समझाने हेतु जो टीका/टिप्पणी/अभिमत लिखे गए हैं, उन्हें वेदान्त/ उपनिषद् कहते हैं।

उपनिषदों की संख्या 112 हैं। उदाहरणार्थः- माण्डुकोपनिषद, कठोपनिषद, छन्दोग्योपनिषद, ईशावास्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद् आदि।


मिथिला का वैदिक परम्परा :-

मिथिला समाज के रीति-रिवाज, इन चार वेदों व सैकड़ों वेदान्तों/उपनिषदों में प्रतिपादित सिद्धांतों पर आधारित हैं, इन्हें ही मिथिला का वैदिक परम्परा/वैदिक विचारधारा कहते हैं।
चार वेदों में से शुक्ल यजुर्वेद (मंत्र द्रष्टा महर्षि याज्ञवल्क्य थे) का महत्व सर्वाधिक हैं। लगभग 75 प्रतिशत मैथिल शुक्ल यजुर्वेद के समर्थक हैं।

याज्ञवल्क्य द्वारा तैयार किया गया संहिता, ‘‘वाजसनेयी संहिता’’ के समर्थक अधिकांश मैथिल हैं, उन मैथिलों को ‘‘वाजसनेयी’’ कहा जाता है। इनके जीवन संस्कार यथा जनेउ विवाह आदि की रीति इस संहिता के प्रावधानों के अनुरूप होते हैं। विदित हो कि याज्ञवल्क्य वाजसनेय मुनि के संतान थे।


इसके बाद दूसरा वेद जो मिथिला में महत्व रखते हैं वह सामवेद है। इस वेद का मंत्रद्रष्टा ऋषि गौतम हैं। सामवेद पर संकलित टीका को ‘‘छन्दोग्योपनिषद’’ कहते हैं तथा इस उपनिषद के समर्थकों को ‘‘छन्दोग’’ कहा जाता है। लगभग 25 प्रतिशत मैथिल छन्दोग हैं, तथा इनके जीवन संस्कार यथा जनेउ विवाह आदि के रीति इस उपनिषद् के प्रावधानों के अनुरूप होते हैं। सम्पूर्ण मिथिला के लोगों का जीवन उपर्युक्त वैदिक सिद्धान्तों पर संचालित होते रहें हैं। रीति रिवाज, सामाजिक व धार्मिक क्रिया कलाप यथा शादी, जनेउ, पूजा, पाठ, यज्ञ आदि भी इन्हीं सिद्धान्तों के अनुरूप मिथिला के जीवन में घुलकर परम्परागत रूप में मान्यता लिए हुए, सदियों से चला आ रहा है।


मिथिला के वैदिक परम्परा में गृहस्थ जीवन का महत्व, सन्यास जीवन का निषेध :-

मैथिल महर्षि द्वय गौतम (सामवेद व छन्दोग्योपनिषद् का प्रणेता) व याज्ञवल्क्य (शुक्ल यजुर्वेद, ईशावास्योपनिषद् व वृहदारण्यकोपनिषद् के प्रणेता) का प्रभाव सम्पूर्ण मिथिला पर रहा है। इनके द्वारा प्रतिपादित वेद, वेदान्तों का सार है कि – ‘‘वेद वेदान्तों का अध्ययन अध्यापन करते हुए पुत्र-पौत्रादि को धर्मात्मा बनाते हुए सम्पूर्ण जीवन परिवार में रहते हुए (अर्थात् गृहस्थ जीवन) जो व्यतीत करते हैं, उसे स्वर्ग प्राप्ति के साथ-साथ मोक्ष (पुनर्जन्मादि द्वन्द्व से मुक्ति) प्राप्त हो जाती है। अतएव मिथिला के लोग वैदिक परम्परा (शुक्ल यजुर्वेद सामवेद व उपनिषदों ) के कारण गृहस्थ जीवन के अवधारणा को अपनाए तथा सन्यास जीवन से दूर रहे। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह रहा कि मिथिला को शासित करने वाला किसी भी राजवंश के (इक्ष्वाकुवंश, जनक वंश, पालवंश, सेनवंश, कर्णाट वंश, ओइनवार वंश व खण्डवला वंश) राजा लोग सन्यासी नहीं हुए। साथ ही मिथिला के कोई भी ऋषि मुनि भी सन्यासी नहीं हुए। सभी पारिवारिक जीवन व्यतीत किए।


मिथिला का वैदिक परम्परा पर आधारित रीति रिवाज देश में सर्वोत्तम व शाश्वत हैः-

गौतम व याज्ञवल्क्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर आधारित मिथिला का आचार विचार और व्यवहार जो वसुधैव कुटुम्बकम, अतिथि देवो भव सादा जीवन उच्च विचार व सर्वधर्म समभाव जैसे मानवीय, सर्वव्यापी व शाश्वत मूल्यों पर आधारित हैं, वे देश में सर्वोत्तम हैं, अतः निर्विघ्न चला आ रहा है।
संस्कृत भाषा के श्लोकों की लय कर्णप्रिय दैवीय ऊर्जा शक्ति से परिपूर्ण, मनोहारी व स्वास्थ्य वर्द्धक है। जिस समय भारत में कुछ अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के उद्भव व उनके शासकीय संरक्षण व प्रचार-प्रसार के कारण सनातन वैदिक सभ्यता पर प्रहार होने लगा था, कुछ क्षेत्रों में सनातन वैदिक सभ्यता क्षींण भी पडने लगा, उस समय भी मिथिला में सनातन वैदिक सभ्यता की कीर्तिपताका हर जगह लहरा रही थी। इन वैदिक सभ्यता के बल पर मिथिला ने सैकड़ों मूर्धन्य विद्वानों को विभिन्न विशयों में चाहे वह मीमांसा हो, न्याय हो, संस्कृत व्याकरण हो, नव्य न्याय, सांख्य, वैषेशिक दर्शन हो, धर्म-शास्त्र हो, को उद्भूत किया, जिनकी रचनाओं से विश्व संस्कृत वाड्मय के भण्डार पट गए। अतः हम कह सकते हैं कि गौतम याज्ञवल्क्य द्वारा स्थापित वैदिक सभ्यता सुदृढ़ और सुदीर्घ हैं।

मिथिला की भूमि एक ओर अपनी वैदिक संस्कृति व स्वर्णिम इतिहास से भरी पड़ी है तो दूसरी ओर सारस्वत पुत्रों यथा :- गौतम रहूगण (गौतम ऋशि) :-मिथिला के जनक वंष के आदि गुरू (निमि/मिथि के गुरू) व वैदिक मंत्रों के मंत्र द्रश्टा ऋशि थे । ऋग्वेद के मरूत सुक्ति के प्रणेता तथा सामवेद के प्रथम मंत्र द्रश्टा थे । अहल्या इनकी पत्नी थी ।
ऽ याज्ञवल्क्य :- मिथिला के जनक वंष के बाइसवें जनक सीरध्वज जनक (माता सीता के पिता) के आध्यात्मिक गुरू थे । ये षुक्ल-यजुर्वेद की रचना किए, जो गौतम के सामवेद से समर्थित है । सामवेद व षुक्ल यजुर्वेद का मिथिला में सबसे ज्यादा अनुयायी हैं । इनकी पहली पत्नी गार्गी व दूसरी पत्नी मैत्रेयी थी । दोनों ब्रम्हज्ञानी विदुशी थीं ।


ऽ कुमारिल भट्ट/कुमारिल मिश्र (भट्ट) :- ये पं. विश्णु मिश्र के पुत्र थे । ये कौमारी देवी की कठोर उपासना से पुत्र प्राप्त किए अतः पुत्र का नाम कुमारिल रखा । इनका जन्म सातवीं सदी में मनीगाछी रेल्वे स्टेषन के पास भटपुरा गांव में हुई थी । ये मिथिला में प्रचलित शट दर्षन षास्त्रों में से एक मीमांसा के मर्मज्ञ थे । मीमांसा षास्त्रों पर ये स्वतंत्र एवम् विषिश्ट सिद्धान्त प्रतिपादित किए, अतः मीमांसा-वार्तिकाकार कहलाए । ये बौद्ध विद्वानों व संस्कृत के विद्वानों के षिश्य रहे । बौद्ध धर्म के प्रसार युग में वैदिक सनातन धर्म की रक्षा की । इनकी विदुशी बहन भारती थी ।


ऽ मण्डन मिश्र :- आठवीं सदी में हुए, आदि षंकराचार्य के समकालीन थे, महिशी गॉव सहरसा जिला के थे । इनकी विदुशी पत्नी भारती थी, जो कुमारिल (मिश्र) भट्ट की बहन थी ।


ऽ वाचस्पति मिश्र :- दसवीं सदी में ग्राम अंधराठाढ़ी में हुए, इनका जीवन अवधि 1920 से 1976 ई. माना गया है। इनकी पत्नी भामती मिश्र थी ।


ऽ उदयनाचार्य :- दसवीं सदी में ग्राम करियन जिला समस्तीपुर में हुए । सेन वंषीय अंतिम षासक लक्ष्मण सेन के दरबार में राज पंडित थे ।

मण्डन व वाचस्पति मिश्र द्वारा स्थापित मिथिला के अद्वैत वेदांत व सनातन परम्परा को मजबूती से आगे बढ़ाने वाला तथा नास्तिक विचारधाराओं (बौद्ध, जैन व चार्वाक) को तर्क से पराजित करने का कार्य मिथिला का यह विद्या बारिधि पुत्र ने किया । चार्वाक प्राचीन भारत में एक अनीष्वर वादी तार्किक थे । चार्वाक दर्षन एक भौतिक वादी नास्तिक दर्षन है । यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा परलौकिक सत्ताओं (ईष्वर/ब्रम्ह) को स्वीकार नहीं करता है । अतः यह वेद वाह्य भी कहा जाता है । इस सिद्धान्त को मानने वाले सिर्फ कर्जखोर व भोगवादी थे । इस सिद्धान्त के अनुसार :- यदा जीवेत सुखम जीवेत, ऋण कृत्वा धृतम पीवेत ।


ऽ अयाची मिश्र/भवनाथ मिश्र :- 15 वीं सदी में सरिसवपाही गॉव के सोदरपुरिये सरिसव मूल के थे।
महाकवि विद्यापति (14वीं व 15वीं शताब्दी के मध्य) कवीश्वर चन्दा/चन्द्रनाथ झा (19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी के प्रारम्भ में) तथा लालदास आदि हुए । मिथिला के पावन भूमि पर कई विदुशी नारियां हुईं, यथा :-


ऽ अहल्या (गौतम ऋषि की पत्नी) जो इन्द्र के द्वारा छल से सतित्व को भंग करने पर गौतम के श्राप से पत्थर हो गई ।

बाद में भगवान राम के चरण स्पर्ष से पुनः महिला का रूप वापस पायी तथा गौतम ऋशि उन्हें स्वीकार किए ।


ऽ अंजना :- गौतम ऋशि की पुत्री थी, जिनसे बजरंगबली का जन्म हुआ ।
ऽ गार्गी (ब्रम्हज्ञानी विदुशी) :- इनके साथ याज्ञवल्क्य (सीरध्वज जनक के आध्यात्मिक गुरू) का षास्त्रार्थ जनक के दरवार में हुआ, जिस दौरान गार्गी ने ब्रम्ह के रहस्य, अस्तित्व परम ब्रम्ह के सान्निध्य पाने का तरीका पर मेधावी संभाशण कर याज्ञवल्क्य को हतप्रभ कर दी थी, बाद में इनकी मेधा से प्रसन्न होकर याज्ञवल्क्य ने इन्हें अपनी पत्नी बना लिया ।
ऽ मैत्रेयी :- ब्रम्हज्ञानी विदुशा थी जो याज्ञवल्क्य की द्वितीय पत्नी बनी ।
ऽ सुनयना :- राजा सीरध्वज जनक की ज्ञान गुणषील पत्नी थी तथा सीता की मां थी ।
ऽ सीता :- राजा सीरध्वज जनक की प्रथम पुत्री थी, जिनकी षादी भगवान राम से हुई ।


ऽ उर्मिला :- राजा सीरध्वज जनक की दूसरी पुत्री थी, जिनकी षादी लक्ष्मण से हुई।
ऽ माण्डवी :- सीरध्वज जनक के छोटे भाई कुषध्वज जनक की बड़ी पुत्री थी। इनकी षादी भरत से हुई थी । माण्डवी को राम के प्रति अगाध स्नेह था वह अपने पति भरत को राम के प्रति प्रेम करने सदा प्रोत्साहित करती थी ।
ऽ श्रुतिकीर्ति :- यह कुषध्वज जनक की दूसरी पुत्री थी, जिसकी षादी षत्रुघ्न से हुई ।
ऽ भारती :- यह मण्डन मिश्र की विदुशी पत्नी थी तथा कुमारिल (मिश्र) भट्ट की बहन थी। भारती ने षंकराचार्य को षास्त्रार्थ के दौरान काम षास्त्र पर प्रष्न कर निरूत्तर कर दी थी ।


ऽ भामती :- भामती मिश्र मधुबनी जिला के भभाम ग्राम की थी तथा अंधराठाढ़ी के प्रख्यात दर्षनषास्त्री पं. वाचस्पति मिश्र की पत्नी थी । इनकी निःस्वार्थ प्रेम का प्रतिफल था वाचस्पति मिश्र कृत ’’भामती’’ (टीका) जो अद्वैत वेदान्त का सर्वोच्य ग्रंथ है ।



उपर्युक्त वरद पुत्रों व विदुशी नारियों के उज्जवल कीर्ति कौमुदी ने सम्पूर्ण भारतीय वाड्यम को चमत्कृत किया है, जिसकी तुलना ‘‘न भूतो, न भविष्यति’’! तो तीसरी ओर युद्धवीर पुरूषों यथा नान्यसिंह देव व हरि सिंह देव (कर्णाट वंशीय शासक द्वय), कीर्ति सिंह (ओईनवार वंष में) नरेन्द्र सिंह (खण्डवला वंषीय राजा) व क्रांतिकारी शहीदों यथा गणेशी, अकलू व सूरज नारायण की जीवटता से मिथिला की पावन धरती त्रिवेणी की तरह पूजनीय, वंदनीय व अभिनन्दनीय बनी है।


मिथिला- सर्व धर्म समभाव का अनूठा उदाहरण :-
यहाँ सनातन काल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश (शंकर) गणेश व दुर्गा के उपासक निवास करते आ रहे हैं, जिन्हें पंच देवोपाशक कहते हैं। मिथिला धर्म-प्राण देश है। मुस्लिम शासकों के साथ मिथिला में मुस्लिम समुदाय की संख्या अच्छी खासी रही है तथा बाद में सिख व इसाई समुदाय के लोग भी वास करने लगे हैं। सभी धर्मावलंबी साथ-साथ रहते हुए अपने – अपने धार्मिक अनुष्ठानों, रीति रिवाजों का निर्वहन बिना विघ्न-बाधा के करते रहे हैं। मिथिला में जो धार्मिक सहिष्णुता थी/है, वह शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिलता है इसका मुख्य कारण बहुसंख्यक मैथिलों के आचार-व्यवहार में सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त का होना है। यहाँ हिन्दू समुदाय मुसलमान के पर्व त्यौहारों में सम्मिलित होते हैं तथा मुसलमान लोग हिन्दूओं के पर्व-त्यौहारों में।


मिथिला- परस्पर जातीय सौहार्द का मिसाल :-
मिथिला की जातीय व्यवस्था में वैदिक काल से ही ऐसी समन्वय दिखलाई देता है जो देश के किसी अन्य भाग में देखना मुश्किल हैं। ब्राह्मण, यादव, मल्लाह, कमार, डोम, कुम्भकार, नाई आदि एक – दूसरे के धार्मिक अनुष्ठान में सहयोग कर यज्ञ को पूर्णता देते हैं। ब्राह्मण पूजा-पाठ, कुम्भकार वर्तन, कमार वेदी श्रुवा, डोम सूप डाली, यादव दूध गोघृत, मल्लाह मत्स्य व्यवस्था तो नाई केश आदि काटकर सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान की पूर्णता में सहायक होते हैं। अर्थात् सभी जाति एक-दूसरे पर सौहार्दपूर्ण आश्रित होते हैं।
मिथिला- सादा जीवन उच्च विचार का परिपोशक :-
उपर्युक्त वर्णित मिथिला के मूर्धन्य पण्डित व मनस्विनी नारियॉ क्या धनाढ्य थे ? क्या उनके पास महल थे ? जी नहीं । कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र, वाचस्पति मिश्र, उदयानाचर्य हों या विदुशियॉ भारती, गार्गी, मैत्रेयी, भामती सभी के सभी आर्थिक रूप से अत्यन्त गरीब थे, परन्तु आर्थिक कमजोरी कभी इनके बौद्धिक मजबूती को डिगा न सका । ये भले ही पर्णकुटी में वास करते हों, भले ही डिबिया व दीप के प्रकाष में अध्ययन व रचना करने पड़े हों परन्तु जो कुछ रच कर निकले वे वैष्विक दर्षन क्रमषः न्याय, वेदान्त, मीमांसा, सांख्य आदि के सर्वोच्च ग्रंथ । वे अपने घर के बाड़ी से निकले साग, ओल, तिलकोड़, खम्हार तथा अपने खेत से निकले अनाज (चावल, दाल) पर ही आश्रित थे, जो मिला खाया, रम गये अध्ययन अध्यापन में। मांगना किसी से नहीं, पूर्ण अयाची रूप । अर्थात् सादा जीवन उच्च विचार ।
मिथिला – धार्मिक अनुश्ठानों के अनुपालन में अनुषासित व सही मायने में धर्म निरपेक्ष :-

भारतवर्ष एक ‘‘धर्म-प्राण‘‘ देश है । पुनीत भारत के धवल धाम मिथिला धर्म के अनुपालन में अनुषासित व अग्रगण्य है ।
मिथिला में वेदों व वेदान्तों के संकलन व सतत् धार्मिक अनुश्ठानों से उपजे सकारात्मक मनोविचार के कारण मिथिलावासी के आचार विचार पर षालीनता व अन्तर्धामिक सहिश्णुता की गहरी छाप है । मिथिला के लोगों में जो संस्कार और सभ्यता व्याप्त है तथा देवी-देवता पूजा-पाठ में जो दृढ़ता और विष्वास है वह दूसरे प्रांत में कम मिलेंगे। इन्हीं संस्कारों के कारण मिथिला के लोग बुद्धिजीवी होते हैं तथा प्रत्युत्पन्नमति हैं। यह विलक्षण प्रतिभा मैथिल को आज दुनियॉ के किसी भी देष में अपने को सषक्त रूप में स्थापित करने की क्षमता प्रदान किया है । जिनके कारण मिथिलावासी न केवल अपनी धार्मिक भावनाओं का संरक्षण व संवर्धन करते हैं बल्कि दूसरे धर्मों के धार्मिक भावनाओं का भी सम्मान करते हैं । यहॉ एक धर्म के लोग का दूसरे धर्म के लोगों से वैमनस्य नहीं रहा है । बल्कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के आग्रह पर उनके गतिविधियों में खुषी-खुषी षामिल होते हैं । जैसे कि मुस्लिम मजारों पर हिन्दू व अन्य धर्म के लोगों की धार्मिक यात्राएॅ, दाहा-मुहर्रम का हिन्दुओं के द्वारा स्वागत सम्मान । दुर्गा पूजा षिवरात्रि आदि के मेला मक्करों में मुस्लिम समुदाय का षामिल होना आदि । भारतीय संविधान ने जो धर्म निरपेक्षता को परिभाशित किया है, उसका अनुपालन मिथिला में पूर्ण रूपेण होता है जो गौरव की बात है । आवष्यकता है राजनीतिक पार्टियां इस भावना को ठेस न पहुंचने दें ।


मिथिला- अतिथि देवों भव (अतिथि देवता के समान हैं) की भावना का परिपोशक :-

मिथिला में अतिथि अर्थात् जिस व्यक्ति के आने की तिथि की जानकारी न हो अर्थात् मेहमान का जोरदार स्वागत करने का रिवाज पुरातनकाल से आ रहा है । त्रेतायुग में राम-जानकी विवाह प्रसंग से संबंधित पौराणिक कथाओं में भी उल्लेख है कि श्री राम जी जब दुल्हा बनकर सीता जी से शादी करने अवधपुरी से मिथिला (जनकपुर) आए तब बारात का स्वागत सीरध्वज जनक के नेतृत्व में मिथिलावासी ने अभूतपूर्व तरीका से किया था, जैसा कि देवताओं का स्वागत किया जाता है। रामायण काल से अतिथि भक्ति की परम्परा चली आ रही है । मिथिला के लोग अपने घर आए मेहमान को यथा साध्य खातिर करते हैं, चाहे अतिथि किसी भी समय क्यों न आ जाएॅ । मिथिला अपने मेहमानों को तब तक खिलाते हैं जब तक की उनका मन तृप्त न हो जाय । अतिथियों को तृप्त करना वे ईश्वर को तृप्त करना मानते हैं ।

शंकर झा
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र), एल.एल.बी.
{छ.ग. राज्य वित्त सेवा}
नियंत्रक (वित्त)/अपर निदेेेशक (वित्त)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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