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जीवन परिचय :: सादा लिबास व क्रांतिकारी विचारधारा के जॉर्ज फर्नांडिस के संघर्ष से सफलता की दास्तान, पोखरण परीक्षण में रहे अटल कमांडर

डेस्क : भारतीय राजनीति के महारथियों में से एक समाजवादी नेता और देश के पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस नहीं रहे. जॉर्ज ने मंगलवार सुबह 7 बजे दिल्ली में अंतिम सांस ली. वे पिछले कुछ दिनों से स्वाइन फ्लू से पीड़ित थे. 9 बार लोकसभा सांसद रहे जॉर्ज फर्नांडिस समता पार्टी के संस्थापक थे और केंद्र सरकार में उद्योग, रेल और रक्षा समेत विभिन्न मंत्रालयों का पद संभाला.


देश की सियासत में अलग पहचान रखने वाले जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म 3 जून, 1930 को एक ईसाई परिवार में हुआ था. माना जाता है कि जॉर्ज की मां किंग जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं. इसलिए उन्होंने अपने 6 बच्चों में से सबसे बड़े का नाम जॉर्ज रखा. मैंगलोर में पले बढ़े जॉर्ज को 16 साल की उम्र में क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने के लिए भेजा गया. लेकिन क्रांतिकारी स्वभाव वाले जॉर्ज का वहां के रीति रिवाजों से मोहभंग हो गया. जिसके बाद 1949 में वे रोजगार की तलाश में मुंबई चले गए.


मूंबई में जॉर्ज फर्नांडिस समाजवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन का हिस्सा बने. इस दौरान उन्होंने मजदूर नेता के तौर पर भारतीय रेलवे में कई बड़े आंदोलन कराए. सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन में सक्रीय रहने के चलते जॉर्ज की छवि प्रतिरोध के बड़े नेता के तौर पर बनती गई. उनके विद्रोही तेवर ने 1950 में उन्हें टैक्सी ड्राइवर यूनियन का बड़ा नेता बना दिया. साल 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता एसके पाटिल को दक्षिण मुंबई से पराजित करने वाले जॉर्ज की छवि जायंट किलर के तौर पर बनी. 

इसके बाद धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के अखाड़े में जॉर्ज की पकड़ मजबूत होती गई. जॉर्ज के क्रांतिकारी जीवन में एक अहम पल तक आया जब वे 1973 ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन के अध्यक्ष चुने गए. इस दौरान रेलवे कामगारों की मांगों का मुद्दा बनाकर उन्होंने 1974 में देशव्यापी रेल आंदोलन का आह्वान किया. जिसके चलते रेल का संचालन कई दिनों तक ठप रहा. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनौती देने वाले नेताओं में से एक जॉर्ज फर्नांडिस समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया से काफी प्रभावित थे.


उन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने का विरोध किया. कहा जाता है कि आपातकाल की घोषणा के बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने डायनामाइट लगाकर देश में विस्फोट करने का ऐलान किया था. देश में हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप में जॉर्ज और उनके साथियों को 1976 में गिरफ्तार किया गया. और सीबीआई ने जॉर्ज समेत उनके 25 साथियों पर मुकदमा दर्ज किया. इसके लिए विस्फोटक गुजरात के बड़ौदा (वदोदरा) से आए थे, इसलिए इस कांड को बड़ौदा डायनामाइट केस के नाम से जाना गया.
1977 में इंदिरा गांधी द्वारा चुनावों की घोषणा के साथ आपातकाल समाप्त हुआ. जॉर्ज फर्नांडिस ने जेल में रहते हुए बिहार के मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड मत से जीते. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता सरकार में जार्ज फर्नांडिस को उद्योग मंत्री के पद से नवाजा गया. उद्योग मंत्री के तौर पर जॉर्ज ने फेरा कानून के तहत कई विदेशी कंपनियों पर कार्रवाई करना शुरू किया. जिससे परेशान होकर दो बड़ी विदेशी कंपनिया कोका कोला और आईबीएम ने भारत में व्यवसाय बंद कर दिया. 
कालांतर में जनता पार्टी में टूट के बाद जॉर्ज फर्नांडिस ने समता पार्टी का गठन किया और भारतीय जनता पार्टी का समर्थन किया. अपने राजनीतिक जीवन में जॉर्ज ने उद्योग, रक्षा और रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला. रेल मंत्री के तौर पर कोंकण रेलवे के विकास और विस्तार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही.
वहीं, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रक्षा मंत्री के तौर पर पोकरण परमाणु परीक्षण और ऑपरेशन पराक्रम में उनका अहम योगदान रहा. हालांकि रक्षा मंत्री के तौर पर जॉर्ज का कार्यकाल विवादों के घेरे में भी आया जब ताबूत घोटाला और तहलका खुलासे में उनका नाम घसीटा गया. लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें क्लीन चिट दे दी. 
साल 2004 के लोकसभा चुनाव मे जब एनडीए गठबंधन हार गया तो भी मुजफ्फरपुर सीट से जॉर्ज फर्नांडिस ने जीत दर्ज की. जॉर्ज अब धीरे-धीरे बुजुर्ग हो चले थे और अगला चुनाव आते- आते स्थितियां बदलने लगी थी. ऐसे में 2009 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने उन्हें टिकट देने के इनकार कर दिया. लेकिन जॉर्ज नहीं माने और निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मुजफ्फरनगर से पर्चा भर दिया. इस चुनाव में जॉर्ज की बुरी हार हुई. इसके बाद उन्होंने राज्यसभा के चुनाव में पर्चा भरा लेकिन जेडीयू ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया और वे निर्विरोध राज्यसभा के सदस्य चुने गए.

जॉर्ज फर्नांडिस का विवाह 22 जुलाई 1971 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में राज्यमंत्री रहे हुमायूं कबीर की पुत्री लैला कबीर से हुआ. लेकिन राजनीतिक और निजी जीवन के बीच संघर्ष में लैला कबीर ने 1984 में उन्हें छोड़ दिया. लेकिन नियति देखिए ठीक 25 साल बाद खुद लैला ने ही जॉर्ज की जिंदगी में लौटने का फैसला लिया जब वे गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थे. कहा जाता है कि अंतिम दिनों में जॉर्ज अलजाइमर नाम की बीमारी के पीड़ित थे और उनकी याददाश्त जा चुकी थी.

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