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पुस्तकीय शास्त्रार्थ में शंकराचार्य पर मण्डन का विजय, मण्डन का ग्रंथ (ब्रम्हसिद्धि) आदिशंकराचार्य के ग्रंथ (शांकर भाष्य) से है बेहतर

मिथिला के मण्डन का वेदान्त ग्रंथ (ब्रम्हसिद्धि) आदिशंकराचार्य के वेदान्त ग्रंथ (शांकर भाष्य) से बेहतर, जो मण्डन का शंकराचार्य पर पुस्तकीय शास्त्रार्थ में विजय का प्रतीकमण्डन मिश्र द्वारा रचित वेदान्त ग्रंथ ब्रह्मसिद्धि तथा आदि शंकराचार्य द्वारा रचित वेदान्त सूत्र पर भाष्य- शांकर भाष्य दोनों उपलब्ध हैं। साथ ही शांकर भाष्य पर षट्दर्शन टीकावार द्वारा रचित अंतिम ग्रंथ ” भामती टीका ” भी उपलब्ध हैं।

इनके अध्ययन से मण्डन की रचना ब्रह्मसिद्धि तथा आदि शंकराचार्य की रचना शांकरभाष्य की विषय वस्तु जो ब्रह्म, जीव, जगत से संबंधित हैं तथा उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों तर्कों व उदाहरणों से परिचित होकर सुधीजन पाठक स्वतः यह जान सकते हैं कि मण्डन के प्रतिपादित सिद्धान्त व तर्क के सामने आदि शंकराचार्य के सिद्धान्त व तर्क कमजोर पड़ते है। साथ ही कुछ सिद्धान्तों में मण्डन द्वारा दिए गए तर्कों को विवश होकर ने अपनी रचना शांकर भाष्य में समायोजित किया, भले ही यह समायोजन उनके मठ के पूर्वज विद्वानों के तर्क के विरूद्ध हों। परन्तु मण्डन के तर्कों के सामने वे विवश हुए तथा उसे माने साथ ही मण्डन द्वारा अपनी रचना ब्रह्मसिद्धि में प्रतिपादित सिद्धान्तों व युक्तियों के सशक्त तर्कों द्वारा उसी समय शांकर भाष्य के कुछ सिद्धान्तों व युक्तियों के खण्डन होते विवशतापूर्ण तरीके से देखते रह गए, उस खण्डन पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाए। हद तो तब हो गए जब शंकराचार्य की युक्तियों व तर्कों के मण्डन द्वारा खण्डन का समर्थन आदि शंकराचार्य के शिष्यों क्रमशः सुरेश्वराचार्य तथा पद्यपाचार्य ने अपनी रचनाओं में किया। इससे स्पष्ट होता होगा कि मण्डन मिश्र भले ही कपोल कल्पित शंकर विजय गाथा (शंकर – दिग्विजय ग्रंथ में प्रकाशित) के तहत शंकराचार्य से शास्त्रार्थ के दौरान हार गए हों, परन्तु वास्तविक रूप में दोनों ग्रंथों (ब्रह्मसिद्धि व शांकर भाष्य ) की तुलनात्मक अध्ययन में मण्डन का शंकराचार्य पर पुस्तकीय शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त हुई थी।

आइए नजर डालते हैं इन दोनों विश्व विश्रुत ग्रंथों के कुछ विषय-वस्तुओं पर :

1. ब्रह्म साक्षात्कार साधन के संबंध में : ब्रह्म साक्षात्कार ( ब्रह्म को जानना) साधन के संबंध में शंकर एवम् मण्डन की दृष्टि में मतभेद हैं। वे इस प्रकार हैं :मण्डन का ब्रह्म साक्षात्कार का सिद्धान्त : मण्डन का सिद्धान्त है कि “अहम ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) तथा “तत्वमऽसि ” ( वह ब्रह्म तुम ही हो) आदि वेदान्त के महावाक्य हैं। यहाँ “अस्मि” शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता हैं, तब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी रूप का हो जाता है। दानों के मध्य का काल्पनित द्वैत भाव (आत्मा और परमात्मा, दो अलग) खत्म हो जाता हैं। अर्थात् वे अद्वैत हो जाते हैं। तभी जीव कह उठता है- “अहम् ब्रह्मास्मि” मैं ब्रह्म हूँ ।

तत्वमसि :- सृष्टि के जन्म के पूर्व द्वैत के अस्तित्व से रहित नाम और रूप से रहित एक मात्र सत्य स्वरूप अद्वितीय “ब्रह्म” ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को तत्वमसि कहा गया है।ब्रह्म के संबंध में तीन तरह की बोध (प्रतिपत्तियाँ) होती हैं। पहले शाब्दिक – बोध होती है। शब्द जन्य बोध प्राप्त करने के बाद उस बोध की मनन, ध्यान एवम् उपासना शब्द वाच्य परिस्थिति आती है। उसके बाद साक्षात्कार रूपा तीसरी बोध होती है। जिससे ब्रह्मज्ञान की पूर्ण प्राप्ति हो जाती है और सभी तरह की भ्रम / कल्पनाएँ दूर हो जाती है। मण्डन मिश्र ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रह्मसिद्धि में तथा अपनी मीमांसा रचना “विधिविवेक” में अनेक स्थानों में किया है। शंकर सम्प्रदाय ( शंकराचार्य व अन्य विद्वानों) ने एक ही तरह का ब्रह्मबोध माना है। शब्द ब्रह्मबोध इन लोगों का मानना है कि प्रमाण का स्वभाव है कि वह प्रमेय का बोध कराता है। शब्द प्रमाण है। अतः “ब्रह्म” का बोध कराएगा। अर्थात् वेदान्त वाक्य “अहम् ब्रह्मास्मि” से ही ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है। उदाहरण शंकर का अभिप्राय है कि किसी व्यक्ति को डोरी में सर्प की भ्रांति से भय हो जाता है। तो भयभीत व्यक्ति को “यह डोरी है सत्य वस्तु के कथन मात्र से ही भय की निवृत्ति हो जाती है। उसी तरह से “मैं ब्रह्म हूँ” ऐसे वेदान्त वाक्य से द्वैत की निवृत्ति हो जाती है। वेद प्रमाण है तथा ब्रह्म प्रमेय है। ऐसा जो मानता है. वेदवाक्य से उसका ऐसा विश्वास हो जाता है कि मैं ब्रह्म हूँ और इस तरह के विश्वस्त ज्ञान का सामर्थ्य है कि उस व्यक्ति को किसी तरह के दुःख एवम् भय नहीं होते।

शंकर के उपर्युक्त सिद्धान्त का मण्डन द्वारा निम्नलिखित तर्क के साथ खण्डन किया गया, ब्रह्मसिद्धि में :- जिस व्यक्ति को वेदान्त वाक्य ( अहम् ब्रह्मास्मि ) सेब्रह्मतत्व का ज्ञान हो भी गया तथा द्वैत (आत्मा व परमात्मा / ब्रह्म व जीव) के प्रबल संस्कार से जो प्रभावित हैं, उसको केवल वेद वाक्य से ब्रह्मतत्व का निश्चित ज्ञान होने पर भी द्वैत की भ्रांति नहीं हटती। इसलिए वेद वाक्य के श्रवण उपरांत भी मनन एवम् निदिध्यासन ( ध्यान / समाधि) करने के लिए कहा गया है। उदाहरण :- किसी व्यक्ति को यह निश्चित ज्ञान रहता है कि गुड़ मीठा होता हैं। किन्तु पित्त की अधिकता से उस व्यक्ति को गुड़ खाने मे तीता प्रतीत होता है। गुड़ को थुकरकरवह व्यक्ति दुःखित होता है। इसलिए वेदवाक्य से प्राप्त निश्चित ज्ञान होने पर भी वैदिक कर्म एवम् ध्यान की अपेक्षा रहती है।

उपर्युक्त गुड़ के दृष्टान्त से मण्डन ने यह प्रमाणित किया है कि किसी व्यक्ति को एक ही समय में परस्पर विरोधी ज्ञान रह सकता है। अर्थात् निश्चित ब्रह्मज्ञान के साथ प्रत्यक्ष द्वैत के भ्रम भी रह सकते हैं। प्रत्यक्ष द्वैत भाव को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष- निश्चयात्मक ब्रह्मबोध की आवश्यकता है। प्रत्यक्ष निश्चित ब्रह्मबोध के लिए श्रवन, मनन व निदिध्यासन (समाधि) की आवश्यकता है। निदिध्यासन से जो प्रत्यक्ष ब्रह्मबोध होता है, उससे द्वैत का भ्रम दूर हो जाता है।

मण्डन के उपर्युक्त तर्क का शंकर पर प्रभाव मण्डन के उपर्युक्त तर्क से प्रभावित होकर शंकराचार्य ने अपनी रचना शांकर भाष्य में अनेक स्थानों पर ऐसी पंक्तियां लिखी जिससे यह सूचित होता है कि निदिध्यानसन (सुसंकृत मन) से आत्म साक्षात्कार (ब्रह्मज्ञान) होता है। ऐसा उन्होंने माना कि ध्यान आत्म साक्षात्कार का साधन है। शंकराचार्य के सम्प्रदाय का (अर्थात् शंकराचार्य के पूर्वज गुरूओं का) सिद्धान्त आ रहा था कि “शब्द से ही ब्रह्म का प्रत्यक्ष बोध होता है”। साथ ही शंकराचार्य के प्रथम शिष्य गुरेश्वराचार्य जो अति प्रिय शिष्य थे शंकराचार्य की अनुमति से शंकराचार्य के जीवन काल में ही सिद्धि ग्रंथ में पुनः ढतापूर्वक प्रतिपादित किया कि वेदान्त वाक्य से ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। ध्यान से ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं होता है।इससे साफ होता है कि मण्डन के ब्रह्मसिद्धि से प्रभावित होकर शंकराचार्य ने कहीं-कहीं ऐसी पंक्तियाँ लिखी कि ध्यान से ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। अर्थात् पुस्तकीय शास्त्रार्थ में शंकराचार्य पर मण्डन के विजय का द्योतक है।

2. ब्रह्म का सच्चिदानन्द स्वरूप के संबंध में :शंकर व शंकर सम्प्रदाय के अनुसार : शंकर व उनके गुरू गौड़पादाचार्य के सिद्धान्त से ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं हैं। – इनका मत है कि अगर ब्रह्म को आनन्द स्वरूप माना जाय तो आनन्द के राग (उत्कृष्ट इच्छा से) मोक्ष प्राप्त करने की प्रवृत्ति नहीं होगी। राग (उत्कट इच्छा) किसी वस्तु हेतु ही जन्म-मरण का कारण है। ऐसी परिस्थिति में आनन्द दायक ब्रह्म की प्राप्ति के लिए (मुक्ति के लिए) मुमुक्षुओं की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी।आनन्द की उत्कट इच्छा से प्रवृत्त होता हुआ पुरूष शान्त नहीं हो सकता। इसलिए सभी दुखों से रहित ब्रह्मतत्व में दुःखों से उदिग्न और सुखों से वीतरागी (इच्छा रहित ) व्यक्ति ब्रह्मज्ञान के लिए प्रवृत्त होता हुआ, मुक्त होता है। यदि ब्रह्म आनन्द स्वरूप हो तो उनकी ओर प्रवृत्त होना “राग-मूलक-प्रवृत्ति” हो जाएगी। राग- मूलक प्रवृत्ति मोक्ष के लिए बाधक है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को स्पष्ट रूप से भाव स्वरूप नहीं माना है। वे ब्रह्म को भाव एवम् अभाव अर्थात् सत् और असत् इन दोनों से अतिरिक्त मानते हैं। वे ब्रह्म को अनिर्वचनीय मानते हैं।

मण्डन के अनुसार : मण्डन मिश्र ने ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, अपनी रचना ब्रह्मसिद्धि में सप्रमाण सिद्ध किए हैं। मण्डन मिश्र ने अपनी रचना ब्रह्मसिद्धि में मत इस प्रकार व्यक्त किए हैं :- दुःखों की निवृत्ति (हँटना / समाप्त करना) ही सुख नहीं है क्योंकि एक ही काल में सुख और दुःख देखे जाते हैं। उदाहरण गर्मी से व्याकुल व्यक्ति के आधे शरीर ठण्डे पानी वाले सरोवर में यदि दुवा] हुआ रहता है तो आधे शरीर में सुखों की अनुभूति और आधे शरीर में दुखों की अनुभूति होती रहती है। वहाँ दुःखों का अभाव नहीं है। फिर भी सुख होते रहते हैं।जहाँ दुःखों की निवृत्ति होती है, वहाँ भी केवल दुःख की निवृत्ति ही सुख नहीं है। उदाहरणार्थ – भूखा व्यक्ति अन्न खाते हैं और पेय पीते हैं। जैसे-तैसे अन्न एवम् जल से भी भूख एवम् प्यास स्वरूप दुःख की निवृत्ति हो जाती है तो भी भूखा व्यक्ति स्वादिष्ट अन्न एवम् स्वादिस्ट जल की लालसा रखता है दुःख के अभाव में कोई विशेषता नहीं होती है।

मण्डन का मत है कि ब्रह्मानन्द ( ब्रह्म + आनन्द ) की ओर प्रवृत्ति राग मूलक नहीं हो सकती है। क्योंकि इच्छा मात्र राग नहीं है। यदि तपस्वी तपस्या करने की इच्छा करता है, तो उसे लोग रागी नहीं कहते हैं। जो राग मोक्ष का बाधक हो वही राग है। लौकिक सुख दुःख के कारण जो राग उत्पन्न हो जाते हैं उन्हें ही ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए बाधक माने गए हैं। धर्म-कर्म करने की लालसा को मण्डन ने राग नहीं माना है। साथ ही स्वर्गादपि प्राप्ति के लिए जो वैदिक सकाम कर्म किए जाते हैं उन्हें भी मण्डन ने ब्रह्म प्राप्ति का बाधक नहीं माना है। मण्डन ने यहाँ एहलौकिक सुख-दुःखादि से उदासीन रहने की बात ही बताई है। ब्रह्मतत्व के दर्शन से चित्त की जो विमलता होती है और ब्रह्मतत्व में चित्तकी प्रसन्नता, अभिरूचि आदि जो होती है, वह राग पक्ष में व्यवस्थापित नहीं होती है।इस तरह “ब्रह्मसिद्धि के ब्रह्मकाण्ड में मण्डन मिश्र ने वेद- समर्थित सशक्त – युक्तियों से ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। और यह भी माना है कि स्वप्रकाश होने के कारण, ब्रह्म अपनी सच्चिदानन्द स्वरूप का निरन्तर अखण्ड अनुभव करते रहते हैं। जीव जव ज्ञानाभास आदि से मुक्तस्वरूप होकर ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, तो मुक्तावस्था में उनमें भी अपनी वास्तविक आनन्द सच्चिदानन्द स्वरूपता का सदा अखण्ड अनुभव होता रहता है। और इसलिए मोक्ष पुरूषार्थ है, अर्थात् जीवों के लिए उत्कृष्ट प्रार्थनीय वस्तु है और अगर यह माना जाय कि ब्रह्म अज्ञेय होने के कारण अपने अखण्ड आनन्द की अनुभूति नहीं करते हैं, तो ब्रह्म अथवा मोक्ष जीवों के लिए प्रार्थनीय स्वरूप पुरुषार्थ नहीं हो सकेगा ।

ब्रह्म को सुस्पष्ट रूप से भाव स्वरूप मानने के कारण, मण्डन मिश्र के अद्वैत वेदान्त को मधुसूदन सरस्वती ने “भावा द्वैतवाद” माना है। क्योंकि मण्डन ने ब्रह्मसिद्धि में केवल दुःख रहित ब्रह्म को नहीं माना है, अपितु दुःख रहित अनन्त आनन्द-स्वरूप ब्रह्म को माना है अर्थात् ब्रह्म दिव्य प्रकाश एवम् दिव्य आनन्द स्वभाव के हैं। ऐसा मानने से लौकिक आनन्द को भी जो उपनिषद में ब्रह्म की मात्रा (अंश) कही गई है, वह प्रमाणित होता है क्योंकि भावस्वरूप ब्रह्मा को मानने से उसके सीमितीकरण करने से, लौकिक आनन्द ब्रह्म के आनन्द का अंश है। अर्थात इसी ब्रह्म के आनन्द की मात्रा ( अंश) से सभी प्राणी जीवित रहते हैं। यदि केवल दुःख निवृत्ति स्वरूप / दुखाभव रूप ब्रह्म हो, तो अभाव का अंश नहीं हो सकता है। तब ब्रह्मानन्द के अंश से सभी प्राणी कैसे जीवित रहते हैं जैसे आकाश भावस्वरूप है, तो उसको घट एवम् गृह आदि उपाधि से सीमित किया जा सकता है परन्तु अभावात्मक वस्तु को उपाधियों से सीमित नहीं किया जा सकता है। अतः दुःख निवृत्ति स्वरूप ब्रह्म को नहीं माना जा सकता है जैसा शंकर मानते हैं।

आत्मा आनन्द स्वरूप है, इसे प्रमाणित करते हुए मण्डन ने लिखा है आत्मा अर्थात ब्रह्म एवम् जीवात्मा का आन्द स्वभाव ही स्वधर्म है क्योंकि जीवों का सबसे अधिक प्रेम अपनी आत्मा के लिए ही रहता है। उपनिषद में कहा गया है कि यह ब्रह्मस्वरूप जीव पुत्र से भी अधिक प्रिय है। मण्डन मिश्र का आशय है कि सुखदायक वस्तुओं की ओर लोगों की प्रवृत्ति होती है। दुःखदायक वस्तुओं से लोगों की निवृत्ति होती है तथा सुख और दुःख से रहित वस्तुओं में उपेक्षा होती है। इसलिए ब्रह्म अथवा मोक्ष को सुख स्वरूप दूसरे शब्द में सुखदायक मानना आवश्यक है। यह ब्रह्म ही जीवों को आनन्दित करता है। यदि ब्रहा अथवा मोक्ष को सुख और दुःखो से रहित माना जाय, जैसा कि शंकर आदि मानते हैं, तो मोक्ष की प्राप्ति के लिए जीवों की प्रवृत्ति नहीं होगी तब मोक्ष परम पुरुषार्थ नहीं होगा। जबकि यह स्पष्ट है कि मोक्ष परम पुरुषार्थ है। इसलिए ब्रह्म एवम् जीव को आनन्द स्वरूप मानना और जीव को ब्रह्म से अभिन्न (अद्वैत) मानने के कारण जीवों को भी आनन्द स्वरूप वेदान्तों में माना गया है। इस तरह से मण्डन ब्रह्मसिद्धि के ब्रह्मकाण्ड में ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। इसलिए ब्रह्म एवम् मोक्ष का स्वरूप एक है, जो आकर्षक है और यह समाज हेतुकल्याण कारक है। मण्डन मोक्ष के लिए कर्म को बाधक नहीं मानते तथा बिना कर्म के महत्व से समाज का कल्याण असंभव है।ब्रह्मसिद्धि के सिद्धान्तों से से प्रभावित होकर शंकर ने भी अनेक स्थानों में अपने सम्प्रदाय व गुरू के सिद्धान्त के विरूद्ध जाकर मण्डन के सिद्धान्त के अनुरूप ब्रह्म को सच्चिदानन्द स्वरूप माना है। शंकराचार्य के बाद उनके अद्वैतवेदान्ती शिष्यों क्रमशः सुरेश्वराचार्य, पद्यपादाचार्य एवम् मधुसूदन सरस्वती आदि ने सयुक्ति ब्रह्म को सच्चिदानन्द माना है। अर्थात पुस्तकीय शास्त्रार्थ में शंकराचार्य पर मण्डन के विजय का प्रतीत है ।

3. गृहस्थजीवन (काम्यकर्म) को मोक्ष लायक मानना :शंकराचार्य काम्यकर्म (इच्छित फलदायक कर्म) को ब्रह्म-साक्षात्कार के साधन नहीं मानते। उदाहरण :- हवा आदि से पर्वत जैसे कम्पित नहीं होता, उसी तरह विरोधियों के तर्कों से ज्ञान व कर्म का विरोध कम्पित नहीं हो सकता है अर्थात् कर्मनिष्ठ गृहस्थ ब्रह्मज्ञानी नहीं हो सकते हैं।

शंकराचार्य ने लिखा है कि हमारी आत्मा ईश्वर ही हैं। “अहम् ब्रह्मास्मि । ऐसी भावना से जो युक्त हैं, उन्हें पुत्रैषणा (पुत्र प्राप्ति की इच्छा) वित्तेषणा (सम्पत्ति की इच्छा एवम् लोकेषणा (प्रतिष्ठा की इच्छा) को त्याग करने में अर्थात् सन्यास लेने में ही भलाई है। वैदिक कर्म करने का एवम् गृहस्थ रहने का अधिकार नहीं है। शंकराचार्य ने अपनी कई रचनाओं में लिखा है कि गृहस्थ को मुक्ति (मोक्ष)नहीं हो सकती।मण्डन मिश्र का सिद्धान्त :मण्डन मिश्र ने शंकराचार्य के उपर्युक्त विचार का सशक्त खण्डन किया है। उन्होंने अपनी रचना ब्रह्मसिद्धि में लिखा है कि सन्यासी भी ब्रह्मज्ञानी होने पर मोक्ष प्राप्त करते हैं। परन्तु यदि गृहस्थ, ब्रह्मज्ञान के साथ, यज्ञ, दान एवम् तप आदि वैदिक कर्म भी करे तो सन्यासी की अपेक्षा गृहस्थ को शीघ्रता से मोक्ष प्राप्त होता है।

शंकर के परम शिष्य सुरेश्वराचार्य ने अपनी रचना में काम्यकर्म को मोक्ष का साधन माना है। साथ ही शंकर संप्रदाय के अद्वैतवेदांती विद्यारण्य जो जीवनकाल के अंत में शंकराचार्य भी हुए, उन्होंने अपनी रचना “अनुभूति प्रकाश” में स्पष्ट लिखा है कि गृहस्थ को भी मोक्ष हो सकता है”। यदि यह माना जाय कि गृहस्थ को ब्रह्मज्ञान नहीं होता है, तो कर्म युक्तः गृहस्थ राजर्षि जनक, याज्ञवल्क्य, गार्गी, मैत्रेयी आदि को ब्रह्मज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ? सन्यासी को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने में सुलभता होती है। क्योंकि गृहस्थ के समान उनके चित्त का विचलन नहीं होता।

विद्यारण्य ने आगे लिखा है कि – विचलन पर नियंत्रण करके, चित्त की एकाग्रता में यदि गृहस्थ सक्षम हो तब गृहस्थ को भी ब्रह्मज्ञान हो सकता है। अर्थात् शंकर अनुयायी ने भी शंकराचार्य के सिद्धान्त का खण्डन, मण्डन के तर्क पर कर दिया है, जो निश्चित रूप से पुस्तकीय शास्त्रार्थ में मण्डन का शंकराचार्य पर विजय दर्शाता है।

(मुख्य स्त्रोत मिथिला के वेद-वेदांत पं. सहदेव झा)

Shankar Jha Author

शंकर झा
वित्त नियंत्रक ( छ.ग. वित्त सेवा )
एम.एस.सी. (कृषि अर्थशास्त्र),
बी.एच.यू. वाराणसी
एम.ए. (समाजशास्त्र)
(कोर्स अपूर्ण), जेएनयू, नई दिल्ली
एल.एल.बी. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय रायपुर (छ.ग.)
ग्राम अन्धरा ठाढी
जिला मधुबनी ( बिहार )

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