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रविदास जयंती की पूर्व संध्या पर संगोष्ठी सह पुरस्कार समारोह आयोजित

दरभंगा। विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग और विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र विभाग के संयुक्त तत्वावधान में रविदास जयंती की पूर्व संध्या पर संगोष्ठी सह पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया।


संयोजक सह मुख्य अतिथि डॉ. ए.के.बच्चन ने इस अवसर पर कहा कि रैदास को संत शिरोमणि यूंही नहीं कहा गया, बल्कि वे सच में इस सम्मान के हकदार थे। वे कर्म को ही अपना गुरु मानते थे और उसी की भक्ति में रमे रहते थे। समाज में पूजा–पाठ के नाम पर जो ढोंग हो रहा है, जिसका निर्भीक हो कर उन्होंने विरोध किया। काशी नरेश भी रैदास के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।


हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन के आरंभ में प्रतिभागियों को धन्यवाद देते हुए कहा कि आपलोगों की वजह से ही ऐसे कार्यक्रम सफल होते हैं। रैदास ने परमात्मा का साक्षात्कार किया और इसी लिए वे संत कहलाए। उन्होंने कर्म को अध्यात्म से जोड़ा। रैदास विवाहित होते हुए संतत्व की उस कोटि को प्राप्त हुए जहां आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है। संत रविदास ने अपने जीवन में सत्य का आचरण निष्ठा के साथ किया। जीवात्मा से प्रेम की भावना को साकार किया तथा परमार्थ के प्रति सदैव सजग रहे। संत के सारे गुण उनमें वर्तमान थे। कबीर साहब के संसर्ग में आने के बाद उन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना को अधिक महत्व दिया। संतों का संत होने की उपाधि उन्होंने कबीर से पाई थी। उन्होंने अपनी अन्तदृष्टि से आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त की।


दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डा. रुद्रकांत अमर ने इस अवसर पर कहा कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद अगर सदियों तक उसे याद किया जाए तो उसकी साधना की महानता को समझा जा सकता है। उन्होंने आगे कहा कि रैदास ने यह संदेश दिया है कि अपनी प्रतिभा के बल कोई भी इतना ऊंचा उठ सकता है कि सभी वर्णों और वर्गों के लोग उसे सम्मान दें। रैदास जैसे महान संतों के समक्ष करोड़ों ब्राह्मणों को न्योछावर किया जा सकता है। रैदास के विचारों में बुद्ध के संदेश भी परिलक्षित होते हैं।


हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.चंद्रभानु प्रसाद सिंह ने इस अवसर पर कहा कि रैदास को हाल–फिलहाल से ही कवि माना जाने लगा है। रैदास के चर्चा में आने का कारण राजनीतिक और सामाजिक भी है। रैदास के अधिकांश अनुयायी पंजाब और राजस्थान में मिलते हैं। रैदास ने सांप्रदायिक सद्भाव पर सबसे अधिक बल दिया। उन्होंने सर्वाधिक पद हिन्दू–मुस्लिम एकता पर लिखे। इस दृष्टि से वे उस समय जितने प्रासंगिक थे, उससे कहीं ज्यादा आज प्रासंगिक हैं। कवि रैदास ने जिस भाषा में रचना की है, आज भी उस भाषा में लिखने का कोई साहस नहीं कर सकता। वे अहंकार को मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। वे कर्मवादी थे, गीता के निष्काम कर्म की बात इसी लिए रैदास भी करते हैं। कबीर ने रैदास को संतों के संत के रूप में संबोधित किया है। इस विश्व अशांति के दौर में रैदास जैसे संतों का चिंतन बहुत प्रासंगिक हो जाता है।


इस अवसर पर डा. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि इस दौर में रैदास या कबीर को याद करते हुए धड़कन बढ़ जाती है, क्योंकि यह खाल खींचने वाला युग है। इस फासीवादी युग में रैदास और कबीर को भी बोलने की आजादी नहीं मिलती। रैदास और कबीर ने उस दौर में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सामंतवाद को चुनौती दी। आज बर्बरता उस दौर से कहीं ज्यादा बढ़ चुकी है। संत रैदास ने वर्ण विहीन समाज की परिकल्पना आज से बहुत पहले की थी।


हिंदी विभाग, एम एल एस एम कॉलेज के अध्यक्ष डॉ. अमरकांत कुमार ने रैदास को याद करते हुए यह कहा कि संत रविदास के आदर्श को अगर हम दशांश में भी अपना सके तो न केवल हम धन्य होंगे, बल्कि अगली कई पीढ़ियां भी धन्य होंगी। उन्होंने रामभजन का आदर्श चुना। वे किसी को भी आक्रमकता से जवाब नहीं देते थे, बल्कि बहुत सहजता से किसी भी बात का उत्तर देते थे। कबीर और रैदास सामाजिक स्तर पर इस लिए अलग हैं, क्योंकि कबीर में जहां प्रचंडता है, वहीं रैदास में विनम्रता है। रैदास का कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं मिलता है, लेकिन उनके फुटकर पद कई जगह संकलित हैं। मंच का संचालन डा. आनंद प्रकाश गुप्ता ने किया।


इस अवसर पर सभी प्रतियोगिताओं के विजयी प्रतिभागियों को पुरस्कृत और सम्मानित किया गया। भाषण प्रतियोगिता में सुभाष कुमार, शिवम सरोज और साक्षी कुमारी क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पर रहे। बाद–विवाद प्रतियोगिता में सुभद्रा कुमारी, शिव कुमार और अन्नू कुमारी क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। निबंध प्रतियोगिता में मोनी कुमारी ने प्रथम, सुभाष कुमार ने द्वितीय और साक्षी कुमारी ने तीसरा स्थान हासिल किया। कार्यक्रम में काफी संख्या में शिक्षक, शोधार्थी और विद्यार्थी उपस्थित रहे।

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