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विशेष :: आखिर पक ही गई “बीरबल की खिचड़ी”, दिल्ली में गई परोसी

डेस्क : “बीरबल की खिचड़ी” ये शब्द सुनते ही लोगों के मन में एक ही ख्याल आता है —वो खिचड़ी जो पकी ही नहीं, जो किसी को भी नसीब ही नहीं हुआ। लेकिन शायद अब से लोग “बीरबल की खिचड़ी” का यह मतलब कदापि नहीं निकालेंगे, क्यूँकि राजधानी दिल्ली में आखिरकार बीरबल की खिचड़ी पकी भी, और परोसा भी गया, और वो भी उसके चारों यार घी, दही, पापड़ और अचार के साथ। 

जी हाँ , ‘पाग पुरुष’ डॉ. बीरबल झा’ द्वारा स्थापित मिथिलालोक फाउंडेशन के तत्वावधान में आयोजित “खिचड़ी पे चर्चा” का शहर के बुद्धिजीवियों ने खूब लुफ्त उठाया। चर्चा की शुरुआत करते हुए लिंगुआ फैमिली के प्रमुख डॉ बीरबल झा ने कहा, ” जहाँ तक मेरी जानकारी है यह इस तरह की पहली चर्चा है।

  वैसे तो अनौपचारिक रूप से मिथिलावासी युगों से खिचड़ी पे चर्चा करते आ रहे हैं, परन्तु ऐसे औपचारिक रूप से “खिचड़ी पे चर्चा” करने के लिए १०-२० किलोमीटर की दूरी तय कर, इतनी ठंढ में आना, शायद पहले कभी नहीं हुआ था। आज आप सब दिल्ली में हैं तो शायद इसलिए हैं क्योंकि कहीं न कहीं आपने खिचड़ी समाज को अपना लिया है, अगर आप इसे नहीं स्वीकारते तो शायद दिल्ली आपको रास नहीं आती। 

‘पर्सन ऑफ द ईयर’ 2014 से नवाजे गए डॉ.बीरबल झा ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा, ” ऐसा कभी नहीं हुआ है कि मैं अपने छात्र जीवन को अपने मित्रों, परिजनों से साझा करूँ और उसमें खिचड़ी की चर्चा न हो। अगर मैं ये कहूँ की “खिचड़ी” ने ही मुझे सामंजस्य सिखाया तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा । मेरी तो बल्कि दिली इच्छा है कि “खिचड़ी” शब्द को “सामंजस्य” का पर्यायवाची शब्द घोषित कर देना चाहिए। सामंजस्य से ही सरकार सुचारू ढंग से काम कर पाती है, “सम्पूर्ण शक्ति” तो “निरंकुशता” को जन्म देती है। १९ वीं शताब्दी के महान ब्रिटिश राजनीतिज्ञ लार्ड ऐक्टन का यही मत था।

पत्रकार प्रमोद झा ने कहा, “खिचड़ी शब्द को जिस तरह से बीरबल झा जी ने समाज के विभिन्न पक्षों से जोड़ कर प्रस्तुत किया है वह निश्चय ही कबीले तारीफ है। समंजस्यता जिसे बीरबल जी ने “खिचड़ी” शब्द का पर्यायवाची माना है, इसके ये सबसे बड़े उदाहरण हैं, ऐसा कहने में मुझे कतई भी संकोच नहीं हो रहा है। बिहार के एक लाख से अधिक महादलित को मुफ्त में अंग्रेजी सिखाने का कार्य जो इन्होंने किया है, पूरे बिहार को इसके लिए लिए इन पर गर्व है। मैं बीरबल झा जी और यहाँ आए तमाम लोगों से अनुरोध करता हूँ कि इस तरह का आयोजन बार-बार किया जाए ताकि “शांतिपूर्ण सहअस्तित्व” का सन्देश हम जन-जन तक पहुँचा पाएँ।
दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक श्री अरुण कुमार झा जी ने कहा, “निश्चय ही खिचड़ी आज के समाज की जरूरत बन चुकी है। सर्वसुलभ ही लोकप्रिय होता है, सर्वसंपन्न ही ताकतवर होता है और सर्वमान्य ही शासक बन पाता है।

खिचड़ी का अर्थ है- समाज के विभिन्न वर्गों, सम्प्रदायों, सिद्धांतों का मेल, जिसे बीरबल झा जी ने बहुत सुन्दर नाम दिया है — सामंजस्य। सामंजस्य दिल, दिमाग और जिस्म का जब होता है तभी हमारा जीवन व्यवस्थित रह पाता है। इसी प्रकार हमारा समाज तभी उन्नति करेगा जबकि “सामंजस्य की खिचड़ी” बीरबल जी के यहाँ पकती रहेगी।

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