मधुबनी : सामाजिक कार्यों में अहम भूमिका निभाने वाली जयपुरा झा पत्नी स्वर्गीय दयानंद झा जिसे सिजौल के लोग स्नेह से ‘मौसी’ कहकर पुकारते थे अब वह इस संसार में नहीं रहीं। बीते मंगलवार की रात्रि करीब 10:40 बजे उन्होंने अंतिम सांसें लीं। कुछ दिनों से वह बीमार चल रही थीं। उनकी उम्र 82 वर्ष थीं। वह अपने पीछे तीन संतान मदन झा, मीना झा एवं डॉ बीरबल झा समेत पौत्री वंदना, माला, खुशबू, मीमांसा पौत्र अंशू, शब्दज्ञा, पुत्रबधु पवन झा, गौरी रानी छोड़ गई हैं।
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उनके निधन की खबर से पूरे गांव में शोक का माहौल है। सैकड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनके आवास पर पहुंच रहे हैं। निधन की सूचना उनके पुत्र डॉ बीरबल झा ने दी है।
डॉ. बीरबल झा ने अपनी मां को याद करते हुए कहा, “ मां कर्म को ही ईश्वर मानती थीं। आज जो कुछ भी हूं सब मां का दिया हुआ है। मेरे जन्म के कुछ माह बाद ही पिता जी का निधन हो गया था पर मां ने पिता जी का अभाव कभी खलने नहीं दिया। स्वयं तमाम परेशानी झेलने के बावजूद हमेशा बेहतर करने के लिए उत्साहवर्धन करतीं रहीं।“
जयपुरा झा का जीवन संघर्षों की गाथा है। उनकी शादी दयानंद झा से वाल्यावस्था में हो गई थी। वह जब 30 वर्ष की थी तो पति दयानंद झा का निधन हो गया। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। ऐसी स्थिति में परिवार और बच्चों के लालन- पालन की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आ गई। घर में कोई कमाने वाला नहीं था साथ ही कोई पैतृक संपत्ति भी नहीं थी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपने श्रम के बल पर अपने बच्चों के लालन- पालन करने के साथ ही समुचित शिक्षा भी दी। वह हमेशा अपने बच्चों से कहा करतीं थीं “लैड़ मरी बैस नहि मरी” यानी मरो भी तो संघर्ष करके बैठकर नहीं। इस संघर्ष की घड़ी में भी उन्होंने किसी के पास हाथ नहीं फैलाया बल्कि अपने परिश्रम पर विश्वास कर संघर्ष करतीं रहीं।
वह अपने परिवार के लिए कपड़ों की समस्या का निदान खादी भंडार में सूत बेचकर कर लेतीं थी इसके एवज में उन्हें कुछ कपड़े और रुपये मिल जाते थे जिससे वह अपने परिवार का कार्य चला लेती थीं। उन्हें औषधीय पौधों का भी अद्भुत ज्ञान था। घर परिवार के लोगों के बीमार होने पर वह इन्हीं औषधीय पौधों का इस्तेमाल करतीं थी यानी चिकित्सा के क्षेत्र में भी वह आत्मनिर्भर थी। उन्हें पाक शास्त्र में भी महारथ हासिल था। घर आए अतिथियों का वह मिथिलांचल के व्यंजन से बड़े ही चाव से स्वागत करतीं थीं उनके हाथ के बने भोजन कर लोग उनका कायल हो जाते थे। उनका मैनेजमेंट एवं चरित्र समाज के सैकड़ों गरीब, वंचित एवं विधवाओं के लिए मिसाल बन गया था।
वह स्वयं तो साक्षर नहीं थी पर उन्हें शिक्षा से बहुत लगाव था। वे तमाम अभाव के बीच भी अपने बच्चों के साथ ही समाज के सभी वर्गों के लोगों को पढ़ाई के लिए उत्साहवर्धन करतीं थी। इसी का परिणाम है कि उन्होंने अपने छोटे बेटे बीरबल झा को तमाम परेशानी के बीच पढ़ने के लिए उस समय राज्य के सबसे प्रतिष्ठित पटना विश्वविद्यालय भेजकर दो विषय में स्नातकोत्तर एवं पीएचडी की शिक्षा दिलवाई। आगे चलकर डॉ बीरबल झा ने ब्रिटिश लिंग्वा नामक संस्थान की स्थापना की जो आज अंग्रेजी शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट़ीय ख्याति की संस्था बन गई है। डॉ झा ने तकरीबन दो दर्जन पुस्तकों की रचना की है जो अंग्रेजी अध्ययन के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो रही है। ——————-